ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 17
अ॒व॒पत॑न्तीरवदन्दि॒व ओष॑धय॒स्परि॑ । यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व॒ऽपत॑न्तीः । अ॒व॒द॒न् । दि॒वः । ओष॑धयः । परि॑ । यम् । जी॒वम् । अ॒श्नवा॑महै । न । सः । रि॒ष्या॒ति॒ । पुरु॑षः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवपतन्तीरवदन्दिव ओषधयस्परि । यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥
स्वर रहित पद पाठअवऽपतन्तीः । अवदन् । दिवः । ओषधयः । परि । यम् । जीवम् । अश्नवामहै । न । सः । रिष्याति । पुरुषः ॥ १०.९७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 17
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवः) आकाश से (अवपतन्तीः) बीजरूप से जल द्वारा नीचे भूमि पर गिरती हुई-आती हुई (ओषधयः) ओषधियाँ (परि-अवदन्) घोषित करती हैं (यम्) जिस (जीवम्) प्राणधारी को (अश्नवाम) व्याप्त होती हैं (सः) वह (पुरुषः) मनुष्य (न रिष्याति) नहीं पीड़ित होता है ॥१७॥
भावार्थ
ओषधियाँ यद्यपि पृथिवी पर उत्पन्न होती हैं, तब जबकि आकाश से जल पृथ्वी पर गिरता है-बरसता है, एक प्रकार से बीजरूप में आकाश से प्राप्त हुईं ओषधियाँ समझनी चाहिए, आकाश का जल अमृतसमान होता है, उस ऐसे जल से उत्पन्न ओषधियाँ अमृतरूप होकर जिस पुरुष के सेवन में आती हैं, वह पीड़ा से बचा रहता है ॥१७॥
विषय
द्युलोक से ओषधियों का पतन
पदार्थ
[१] (ओषधयः) = ये ओषधियाँ (दिवः) = द्युलोक [आकाश] से (अवपतन्ती:) = वृष्टिजल के साथ नीचे गिरती हुई (परि अवदन्) = चारों ओर परस्पर बात करती हैं कि (यं जीवं अश्नवामहै) = जिस जीव को हम प्राप्त होती हैं, जिस जीव के शरीर में हमारा व्यापन होता है, (स पुरुषः) = वह पुरुष (न रिष्याति) = रोगों से हिंसित नहीं होता । [२] वृष्टिजल के साथ ओषधियाँ मानो आकाश से ही भूमि पर पहुँचती हैं। 'पर्जन्यादन्न संभव: 'पर्जन्य से ही तो सब अन्नों का सम्भव होता है । ये ओषधियाँ सब दोषों का दहन करके हमें रोगों से असमय मरने नहीं देती।
भावार्थ
भावार्थ- द्युलोक से आकर ओषधियाँ हमें रोगों से हिंसित नहीं होने देती ।
विषय
शपथ्य, वरुण और देवकिल्विष तथा यम के पड्वीश का रहस्य। ओषधि शब्द का निरुक्तत्यर्थ। ओषधियों का रोगनाशक सामर्थ्य।
भावार्थ
(ओषधयः) ओषधि, ताप को धारण करने वाली (दिवः परि अव- पतन्तीः) सूर्य की किरणों के तुल्य रोग नाशक तीव्र, ओषधियां आकाश से नीचे आती हुई वा भूमि से हमें प्राप्त होती हुईं (अवदन्) मानों कहती हैं कि (यं जीवम् अश्नवामहै) हम जिस जीवित देह को व्याप लेती (सः पुरुषः न रिष्याति) वह पुरुष-देह रोगों से पीड़ित नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिवः-अवपतन्तीः-ओषधयः-परि-अवदन्) आकाशात् खलु जलरूपेण नीचैर्भूमौ प्रगच्छन्त्यः-ओषधयः सर्वतोभावेन घोषयन्तीव (यं जीवम्-अश्नवामहै) यं प्राणधारिणं व्याप्नुयामः (सः-पुरुषः-न रिष्याति) स जनो न पुना रोगेण पीडितो भवति ॥१७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Descending from heaven the herbs, by their fragrance, energy and vitality, declare: the person whose life we pervade and vitalise comes to no harm.
मराठी (1)
भावार्थ
औषधी जरी पृथ्वीवर उत्पन्न होते तरी आकाशातून पृथ्वीवर जल पडते. एक प्रकारे बीजरूपात आकाशातून प्राप्त झालेली औषधी समजली पाहिजे. आकाशातील जल अमृताप्रमाणे असते. त्या जलाने उत्पन्न झालेली अमृतरूपी औषधी जी व्यक्ती सेवन करते तिचा त्रासापासून बचाव होतो. ॥१७॥
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