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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वम्रो वैखानसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कं न॑श्चि॒त्रमि॑षण्यसि चिकि॒त्वान्पृ॑थु॒ग्मानं॑ वा॒श्रं वा॑वृ॒धध्यै॑ । कत्तस्य॒ दातु॒ शव॑सो॒ व्यु॑ष्टौ॒ तक्ष॒द्वज्रं॑ वृत्र॒तुर॒मपि॑न्वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कम् । नः॒ । चि॒त्रम् । इ॒ष॒ण्य॒सि॒ । चि॒कि॒त्वान् । पृ॒थु॒ऽग्मान॑म् । वा॒श्रम् । व॒वृ॒धध्यै॑ । कत् । तस्य॑ । दातु॑ । शव॑सः । विऽउ॑ष्टौ । तक्ष॑त् । वज्र॑म् । वृ॒त्र॒ऽतुर॑म् । अपि॑न्वत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कं नश्चित्रमिषण्यसि चिकित्वान्पृथुग्मानं वाश्रं वावृधध्यै । कत्तस्य दातु शवसो व्युष्टौ तक्षद्वज्रं वृत्रतुरमपिन्वत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कम् । नः । चित्रम् । इषण्यसि । चिकित्वान् । पृथुऽग्मानम् । वाश्रम् । ववृधध्यै । कत् । तस्य । दातु । शवसः । विऽउष्टौ । तक्षत् । वज्रम् । वृत्रऽतुरम् । अपिन्वत् ॥ १०.९९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में परमात्मा कर्मफल देनेवाला, ज्ञानप्रकाशदाता, स्तुतिकर्ता को मोक्ष में लेनेवाला, दुष्ट को दण्ड देता है। उसकी उपासना से उपासक अपनी इन्द्रियों को वश करता है, इत्यादि विषय वर्णित हैं।

    पदार्थ

    (नः) हमारे लिए (चित्रं कम्) श्रवण करने योग्य-कमनीय सुखद (पृथुग्मानं वाश्रम्) विस्तृत परिणामवाले वक्तव्य या प्रशंसनीय वेदज्ञान को हमारी वृद्धि-उन्नति के लिए (चिकित्वान्) बोध देता हुआ जनाता हुआ (इषण्यसि) परमात्मन् ! तू प्रेरित करता है (तस्य शवसः) उस तुझ बलवान् का कैसा अद्भुत दान है (व्युष्टौ) विविध-कामना निमित्त (तक्षत्) सम्पन्न करता है, या प्रकट करता है (वृत्रतुरं वज्रम्) आवरक अज्ञान के नाशक वज्रसमान या ओजरूप ज्ञानामृत को (अपिन्वत्) सींचता है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा अद्भुत श्रवण करने योग्य सुखद वेदज्ञान का उपदेश करता है, हमें बोध देकर उन्नतिपथ पर ले जाता है, यह ज्ञानदान अज्ञान का नाश करता है, अमृतरूपी इस ज्ञान को हमारे अन्दर सींचता है ॥१॥

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    विषय

    अद्भुत आनन्दप्रद ज्ञान की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (चिकित्वान्) = ज्ञानी होते हुए आप (नः) = हमारे लिए (कम्) = आनन्द को देनेवाले (चित्रम्) = चेतानेवाले ज्ञान को (इषण्यसि) = आप प्रेरित करते हैं। जो ज्ञान (पृथुग्मानम्) = [पृथुभावं प्राप्नुवन्तं] पृथुभाव को विस्तार को प्राप्त करनेवाला है, जिस ज्ञान को प्राप्त करके हम संकुचित व अनुदार नहीं रहते, जो ज्ञान हमें विशाल बनानेवाला है। (वाश्रम्) = जो स्तुति के योग्य व प्रशंसनीय है । (वावृधध्यै) = जो ज्ञान वर्धन के लिये होता है, जिस ज्ञान को प्राप्त करके हम उन्नत ही उन्नत होते चलते हैं । [२] (तस्य) = उस प्रभु का (दातु) = दान (कम्) = आनन्दप्रद है । (शवसः व्युष्टौ) = बल के उदय होने [व्युष्टि = dawn उषा] के निमित्त अथवा [व्युष्टि - prospesity] बल के ऐश्वर्य के निमित्त वे प्रभु (वज्रं तक्षत्) = क्रियाशीलता रूप वज्र को बनाते हैं और इस वज्र के द्वारा (वृत्रतुरम्) = वासनारूप शत्रु को हिंसित करनेवाले को (अपिन्वत्) = प्रीणित करते हैं अथवा आनन्द से सींचते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें ज्ञान देते हैं । शक्ति के ऐश्वर्य को प्राप्त कराने के लिए क्रियाशीलता रूप वज्र को प्राप्त कराते हैं। इस वज्र से वासना का संहार होने पर ही तो शक्ति मिलती है ।

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    विषय

    इन्द्र। प्रभु-विद्वान् और सूर्य की महिमा।

    भावार्थ

    हे स्वामिन् ! तू (चिकित्वान्) ज्ञानवान् होकर (नः) हमें (चित्रं) ज्ञान देने वाले, अति पूज्य (पृथुग्मानं) परिमाण में बहुत बड़ा होजाने वाले, (वाश्रम्) स्तुत्य (कं) सुखप्रद धनैश्वर्य, ज्ञान को (नः ववृधध्यै) हमारी वृद्धि के लिये (इषण्यसि) जल को मेघवत् हमें प्रदान करता है। (तस्य शवसः) उस ज्ञानी और बलशाली प्रभु का (दातु कम्) कितना भारी दान है, उसका क्या ठिकाना है, जो (व्युष्टौ) नाना प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने के निमित्त (वृत्रतुरं वज्रं) मेघ के छिन्न भिन्न करने वाले बलशाली विद्युत् के सदृश, अज्ञान, कष्ट आदि के नाशक ज्ञान रूप वज्र को (तक्षत्) बनाता है, उपदेश करता और फिर (अपिन्वत्) जगत् को मेघ के तुल्य ज्ञान जलों से सेंचता, और जगत् को अन्न, धन-धान्य, प्रजा आदि से बढ़ाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते परमात्मा कर्मफलविधाता ज्ञानप्रकाशस्य दाता स्तोतारं मोक्षे स्वीकर्ता, दुष्टाय दण्डं प्रयच्छति, तदुपासनेनोपासकः स्वेन्द्रियाणि वशीकरोतीत्येवमादयो विषयाः वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (नः) अस्मभ्यं (चित्रं कम्) चायनीयं निशाम्यं श्रोतव्यम् “चायृ पूजानिशामनयोः” [भ्वादि०] तथा कमनीयं सुखकरं (पृथुग्मानं वाश्रम्) विस्तृतपरिणामवन्तं वक्तव्यं प्रशंसनीयं वा वेदज्ञानम् (ववृध्यै) अस्माकं वर्धनाय-उन्नतये (चिकित्वान्) बोधयन् सन् (इषण्यसि) त्वं परमात्मन् !  प्रेरयसि (तस्य शवसः) तस्य बलवतः परमात्मनः (कत्-दातु) कथम्भूतमद्भुतं दानमस्ति (व्युष्टौ) विविधकामनानिमित्तं (तक्षत्) तक्षति-करोति “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] प्रकटीकरोति स परमात्मा (वृत्रतुरं वज्रम्) आवरकस्याज्ञानस्य नाशकमोजः “वज्रो वा ओजः” ज्ञानामृतम् (अपिन्वत्) अस्मासु सिञ्चति ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Knowing us all, Indra wishes us well, gives us comfort and well being, gifts wondrous and varied, expansive and admirable, for our progress and advancement. Great is his gift of bliss, the mighty one, for our fulfilment. And what could be our gift in return for his kindness? He creates and wields the thunder for breaking the cloud and strikes the thunderbolt to destroy the evil, and he gives us the showers that we may grow and rise in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा अद्भुत श्रवण करण्यायोग्य सुखद वेदज्ञानाचा उपदेश करतो. आम्हाला बोध करून उन्नती पथावर घेऊन जातो. हे ज्ञानदान अज्ञानाचा नाश करते. अमृतरूपी हे ज्ञान आमच्यामध्ये सिंचित करतो. ॥१॥

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