ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तुर्जनि॑त्री॒ तस्या॑ अ॒पस्परि॑ म॒क्षू जा॒त आवि॑श॒द्यासु॒ वर्ध॑ते। तदा॑ह॒ना अ॑भवत्पि॒प्युषी॒ पयों॒ऽशोः पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं तदु॒क्थ्य॑म्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तुः । जनि॑त्री । तस्याः॑ । अ॒पः । परि॑ । म॒क्षु । जा॒तः । आ । अ॒वि॒श॒त् । यासु॑ । वर्ध॑ते । तत् । आ॒ह॒नाः । अ॒भ॒व॒त् । पि॒प्युषी॑ । पयः॑ । अं॒शोः । पी॒यूष॑म् । प्र॒थ॒मम् । तत् । उ॒क्थ्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतुर्जनित्री तस्या अपस्परि मक्षू जात आविशद्यासु वर्धते। तदाहना अभवत्पिप्युषी पयोंऽशोः पीयूषं प्रथमं तदुक्थ्यम्॥
स्वर रहित पद पाठऋतुः। जनित्री। तस्याः। अपः। परि। मक्षु। जातः। आ। अविशत्। यासु। वर्धते। तत्। आहनाः। अभवत्। पिप्युषी। पयः। अंशोः। पीयूषम्। प्रथमम्। तत्। उक्थ्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणानाह।
अन्वयः
हे मनुष्या य तुर्जातस्सँस्तदाहना अप आविशत् यासु मक्षु परिवर्द्धते तस्य या जनित्री तस्याः पयः पिप्युष्यभवत् तदंशोर्यत् प्रथमं पीयूषं तदुक्थ्यं सर्वं यूयं प्राप्नुत ॥१॥
पदार्थः
(तुः) वसन्तादिः (जनित्री) (तस्याः) (अपः) जलानि (परि) सर्वतः (मक्षु) सद्यः (जातः) (आ) समन्तात् (अविशत्) विशति (यासु) (वर्द्धते) (तत्) ताः (आहनाः) व्याप्ताः (अभवत्) भवति (पिप्युषी) पालनकर्त्री (पयः) रसम् (अंशोः) अंशात् (पीयूषम्) पातुं योग्यम् (प्रथमम्) (तत्) (उक्थ्यम्) उक्थेषु वक्तुं योग्येषु भवम् ॥१॥
भावार्थः
मनुष्यैरृतूनामुत्पादिका विद्युद्वेद्या यस्याः प्रभावाद् मेघा अमृतात्मकं जलं वर्षयन्ति येन सर्वाः प्रजा वर्द्धन्ते सा वेद्या ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तेरह चावाले तेरहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (तुः) वसन्तादि तुगुण (जातः) उत्पन्न हुआ (तत्) उन (आहनाः) सब पदार्थों में व्याप्त (अपः) जलों को (आ, अविशत्) सब प्रकार से प्रवेश करता है (यासु) जिनमें (मक्षु) शीघ्र (परिवर्द्धते) सब ओर से बढ़ता है उसकी जो (जनित्री) उत्पन्न करनेवाली समय बेला है (तस्याः) उसकी जो (पयः) रस का (पिप्युषी) पान करनेवाली अन्तर्वेला (अभवत्) होती है उसके (अंशोः) अंश से जो (प्रथमम्) प्रथम (पीयूषम्) पीने योग्य उत्पन्न होता है उस प्रशंसनीय समस्त अंश को तुम प्राप्त होओ ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को वसन्तादि तुओं की उत्पन्न करनेवाली बिजुली जाननी चाहिये, जिस बिजुली के प्रभाव से अमृत के समान मेघ जल वर्षाते हैं, जिससे सब प्रजा बढ़ती है, वह जाननी चाहिये ॥१॥
विषय
ज्ञानामृत
पदार्थ
१. (ऋतुः) = [ऋतु Light, splendour] ज्ञान का प्रकाश (अपः) = कर्मों का (जनित्री) उत्पादक है । यह ऋतु – यह ज्ञानज्योति- मानो माता है और कर्म उसकी सन्तान हैं। (तस्याः) = उस ज्ञानज्योति से (मक्षू) = शीघ्र (परिजात:) = सब प्रकार से विकास को प्राप्त हुआ ज्ञानी (आविशत्) = प्रभु में प्रवेश को प्राप्त करता है । ये ज्ञान-ज्योतियाँ वे हैं (यासु) = जिनके होने पर (वर्धते) = वृद्धि को प्राप्त करता है । २. (तद्) = सो यह ज्ञानज्योति (आहनाः) = आहन्तव्य [हन् गतौ] प्राप्तव्य होती है। यह (पिप्युषी अभवत्) = सब तरह से हमारा आप्यायन [वर्धन] करती हुई होती है । (अंशो:) = [अंशु Ray of light] ज्ञानकिरणों का पयः दुग्ध (प्रथमं पीयूषम्) = सर्वोत्कृष्ट अमृत है - (तद्) = वह अमृत ही (उक्थ्यम्) = अति प्रशंसनीय है। -
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान सर्वोत्कृष्ट अमृत है। इसका पान हमारा वर्धन करता है। इससे उत्पन्न कर्म हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाले होते हैं।
विषय
मातृवत् राजा, सभा और राजा का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( ऋतुः जनित्री ) ऋतुमती स्त्री पुत्र उत्पन्न करने हारी होती है, और ( तस्याः परि जातः ) उससे उत्पन्न हुआ पुत्र ( यासु वर्धते ) जिन जलों के भीतर लिपटा हुआ बढ़ता है वह उन ( अपः आ अविशत् ) जलों के भीतर प्रविष्ट होकर रहता है । ( आहनाः ) वह प्रेममयी माता ही ( तत् अंशोः ) उस अपने से उत्पन्न पुत्र को ( पयः पिप्युषी ) दूध पिलाने वाली ( अभवत् ) होती है । वही प्रेम वश उसको दूध पिलाया करती है । ( अंशोः ) किरण के समान सुन्दर उस बालक के लिये ( प्रथमं ) सब से प्रथम ( तत् ) वह ( पीयूषं ) दुग्ध ही पान योग्य होने से ‘पीयूष’ है और वह ( उक्थ्यम् ) अति उत्तम, प्रशंसा योग्य होता है। और जिस प्रकार ( ऋतुः जनित्री ) सब ओषधियों को उत्पन्न करने वाला मौसम ही उन ओषधियों की माता है । जिनमें वह वृद्धि पाता है उन जलों में भी वह औषधि ( तस्याः जातः ) उस ऋतु से उत्पन्न होकर उन जलों में प्रविष्ट होता है वही ‘ऋतु’ ही उसमें व्यापक रहकर अपने ( पयः ) रसका पान कराती है वह ऋतु का जल ही उस सोम आदि ओषधि के लिये उत्तम जल है । ठीक इसी प्रकार (ऋतुः) ज्ञानवान् पुरुषों की बनी सभा ही ( अंशोः जनित्री ) राष्ट्र के भोक्ता या तेजस्वी उदीयमान राजा को उत्पन्न करने वाली है । ( तस्याः परि जातः ) उससे प्रकट होकर वह उन ( अपः आ अविशत् ) आप्त पुरुषों और प्रजाओं में प्रवेश करे ( यासु वर्धते ) जिनमें वह बढ़ता है । ( आहना ) प्रेम से प्राप्त होकर वह उत्पादक माता रूप राष्ट्र प्रजा ( पयः पिप्युषी ) पुष्टि कारक पदार्थों को पान करा करा उसकी वृद्धि करती है । ( अंशोः ) सूर्य के समान तेजस्वी और व्यापक राजा के लिये वह ही प्रजा का दिया ( पीयूषं ) नये पौधे के लिये जल के समान पुष्टि कारक अंश या भाग ( प्रथमं ) सब से उत्तम ( तत् उक्थ्यम् ) अति प्रशंसनीय है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्युत, विद्वान व ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
ऋतूंना उत्पन्न करणारी विद्युत माणसांनी जाणून घेतली पाहिजे. ज्या विद्युतच्या प्रभावाने मेघ अमृताप्रमाणे जलाचा वर्षाव करतात व ज्यामुळे प्रजा वाढते तिला जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
(There is a season for the birth of life, for everything.) The season is the mother’s womb. Whatever is born, the seed enters the waters of the womb, the season, and therein it grows. The receiving mother becomes the first recipient, taster and giver of the nectar of life to the seed, which nectar is the life-nursing energy of the sun. That nectar, that original essence of living energy, is worth knowing and celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Attributes of the scholars are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! the seasons like autumn enter into the waters and in all the substances in varying forms. They grow or expand because of it. The people who know the importance of this life-source and drink the juice of herbs, they get all-round growth and development. We should get this knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All the seasons like autumn have a specific form of energy, varying in the seasons. The clouds because of the impact of seasons rain on the earth and which is like nectar. All the people grow with its knowledge.
Foot Notes
(आह्नाः) व्याप्ताः = Absorb in all the substances. (पिप्युषी) पनकत्नी = Taking in the essence of dawn. (उक्थ्यम् ) उक्थेषु वक्तुं योग्येषु भवम् = The truth worthwhile and revealing. (मक्षु) सद्यः = Immediately.
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