ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र: 1
छन्दः - विराड्जगती 1
स्वरः - निषादः
तद॑स्मै॒ नव्य॑मङ्गिर॒स्वद॑र्चत॒ शुष्मा॒ यद॑स्य प्र॒त्नथो॒दीर॑ते। विश्वा॒ यद्गो॒त्रा सह॑सा॒ परी॑वृता॒ मदे॒ सोम॑स्य दृंहि॒तान्यैर॑यत्॥ 1
स्वर सहित पद पाठतत् । अ॒स्मै॒ । नव्य॑म् । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । अ॒र्च॒त॒ । शुष्माः॑ । यत् । अ॒स्य॒ । प्र॒त्नऽथा॑ । उ॒त्ऽईर॑ते । विश्वा॑ । यत् । गो॒त्रा । सह॑सा । परि॑ऽवृता । मदे॑ । सोम॑स्य । दृं॒हि॒तानि॑ । ऐर॑यत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदस्मै नव्यमङ्गिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते। विश्वा यद्गोत्रा सहसा परीवृता मदे सोमस्य दृंहितान्यैरयत्॥
स्वर रहित पद पाठतत्। अस्मै। नव्यम्। अङ्गिरस्वत्। अर्चत। शुष्माः। यत्। अस्य। प्रत्नऽथा। उत्ऽईरते। विश्वा। यत्। गोत्रा। सहसा। परिऽवृता। मदे। सोमस्य। दृंहितानि। ऐरयत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यगुणानाह।
अन्वयः
हे विद्वांसोऽस्य सोमस्य यद्यानि प्रत्नथा शुष्मा विश्वा गोत्रा परीवृता सहसा दृंहितान्युदीरते तन्नव्यमस्मा अङ्गिरस्वद्यूयमर्चत यन्मदे प्रभवति तद्य ऐरयत्तं स्वरूपतो विजानीत ॥१॥
पदार्थः
(तत्) (अस्मै) (नव्यम्) नवमेव स्वरूपम् (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरसा प्राणेन तुल्यम् (अर्चत) सत्कुरुत (शुष्मा) शुष्माणि शोषकाणि बलानि (यत्) यानि (अस्य) सूर्यस्य (प्रत्नथा) प्रत्नं पुरातनमिव (उदीरते) उत्कृष्टतया कम्पयन्ति (विश्वा) विश्वानि (यत्) यानि (गोत्रा) गोत्राणि (सहसा) बलेन (परीवृता) परितः सर्वतो वर्त्तन्ते यानि तानि (मदे) आनन्दाय (सोमस्य) ओषधिगणस्य (दृंहितानि) धृतानि वर्द्धितानि वा (ऐरयत्) कम्पयति ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या येन जगदीश्वरेण सर्वेषां भूगोलानां धारणाय सूर्यो निर्मितस्तं सदा ध्यायत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब नव चावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य के गुणों का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
हे विद्वानो (अस्य) इस सूर्यमण्डल सम्बन्धी (सोमस्य) ओषधि गण के (यत्) जो (प्रत्नथा) पुरातन पदार्थ के समान (शुष्मा) दूसरों को शुष्क करनेवाले (विश्वा) और समस्त (गोत्रा) गोत्र जो कि (परीवृता) सब ओर से वर्त्तमान वे (महता) बल के साथ (दृंहितानि) धारण किये वा बढ़े हुए (उदीरते) उत्कर्षता से दूसरे पदार्थों को कम्पन दिलाते हैं (तत्) वह (नव्यम्) नवीन कर्म (अस्मै) इसके लिये (अङ्गिरस्वत्) प्राण के तुल्य तुम लोग (अर्चत) सत्कृत करो (यत्) जो (मदे) आनन्द के लिये उत्तमता से होता है उसको जो (ऐरयत्) कम्पाता कार्य में लाता है, उसको तुम स्वरूप से जानो ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने समस्त भूगोलों के धारण करने को सूर्यमण्डल बनाया है, उसका सदा ध्यान किया करो ॥१॥
विषय
उपासना से शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ
१. (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (तद्) = उस (नव्यं) = [नु स्तुतौ] स्तुतिवचन को अर्चत पूजित करो जो कि (अंगिरस्वत्) = अंगिरस्वाला है- तुम्हें अंग-प्रत्यंग में रसमय बनानेवाला है। हम प्रभु का स्तवन करते हैं तो यह स्तवन हमें शक्ति प्राप्त कराता है। इस स्तवन द्वारा हमारा प्रत्येक अंग रसमय बनता है । (यद्) = क्योंकि (अस्य) = इस उपासक के (शुष्मा) = शत्रुशोषक बल (प्रत्नथा) = पहले की तरह उदीरते उद्गत होते हैं। जब जीवन प्रभु की उपासना से दूर होता है तभी जीवन में शक्तियों का ह्रास होने लगता है। प्रभु की उपासना अंग-प्रत्यंग को सुदृढ़, सजीव व सरस बना देती है। २. (विश्वा) = सब (यद् गोत्रा) = इन्द्रियरूप गौवों का समूह (परीवृता) = वासनारूप वृत्र से आवृत हुआहुआ है, उसे (सोमस्य मदे) = सोम के उल्लास में सहसा बल से दूंहितानि दृढ़ीभूत हुए को (ऐरयत्) = यह कार्यों में प्रेरित करता है। वासना से मुक्त करके- इन्द्रियों को स्वाधीन करके यह उन्हें अपने-अपने कार्य में व्याप्त करता है। इस प्रकार ये इन्द्रियाँ बड़ी दृढ़शक्तिशाली बनती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के उपासन से इन्द्रियाँ आसुरभावों से मुक्त होकर शक्तिशाली बनती हैं और सक्षम होती हैं ।
विषय
परमेश्वरोपासना का उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( यत् ) (अस्य) इस सूर्य के ( सोमस्य ) उत्पादक प्रेरक शक्ति के अंश ही ( प्रत्नथा ) ओषधिगण के पूर्व मूल कन्दलों के समान पहले से ही वर्त्तमान रहते हुए पुनः ( उद् ईरते ) उदय को प्राप्त होते हैं, प्रकट होते हैं । और ( यत् ) जो भी ( विश्वा ) समस्त ( गोत्रा ) गोत्र, अर्थात् नाना बीज, परमात्मा के उत्पादक शक्ति के अंकुर जो बीजों के समान गौ, अर्थात् भूमि में सुरक्षित रहते हैं वे जब ( सहसा ) एक साथ ही ( परीवृता ) अंकुर रूप में परिवर्तित होकर, ( दृंहितानि ) बाद में और भी पुष्ट हो जाते हैं उन सब को वह परमेश्रर (मदे) आनन्द विकास के लिये ही ( सोमस्य ) जगत् के उत्पादक सामर्थ्य या जगत् के हर्ष के लिये ही ( ऐरयत् ) बढ़ाता, प्रेरित करता और व्यक्त जगत् को बड़े बड़े कार्यों के रूप में संचालित करता है । इस लिये ( अस्मै ) उस परमेश्वर के ( तत् ) उस सामर्थ्य को ( अङ्गिरस्वत् ) प्राण, जीवन, या ओषधि अग्नि या सूर्य के समान ( नव्यम् ) स्तुति या वर्णन योग्य जान कर ( अर्चत ) उसको स्वीकार और उपासना करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ६ विराड् जगती । २, ४ निचृ ज्जगती । ३,७ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराने संपूर्ण भूगोल धारण करण्यासाठी सूर्यमंडळ निर्माण केलेले आहे, त्याचे सदैव स्मरण करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Offer homage of praise in worship to this adorable lord Indra, light of the world, like the breath of life, since his powers operate in life as of old and eternally and who in his ecstasy of soma-yaga of creation, with a stroke of his omnipotence, opened forth and activated all the clouds of dark energies which lay asleep all round during the night of the universe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the sun are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! this solar system ripens the medicinal plants, as well as the wood of other trees. The wooden posts and planks make powerful enclosure of the farms and dwellings which prevent and frighten the lifters. In order to make a breakthrough in the new ventures, you should take due note of solar energy, for its proper utilization therein. You should therefore, realize and apply its significance in proper perspective.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! God has created a powerful solar system controlling the whole universe. You should, therefore, take full note about it.
Foot Notes
(नव्यम्) नवमेव स्वरूपम् |= New undertaking or project. (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरसा प्राणेन तुल्यम् । = Endearing like vital life. (शुष्मा) शुष्माणि शोषकाणि बलानि = The powers which dry. (प्रत्नथा ) प्रत्नं पुरातनमिव = The old one. ( उदीरते) उत्कृष्टतथा कम्पयन्ति = Frighten or trembling. (गोत्ना) गोवाणि = Enclosure to keep animals particularly the cows. (परीवृता ) परित: सर्वतो वत्तंन्ते यानि तानि = Enclosing from all sides. (दुहितानि) घृतानि वर्द्धितानि वा = Held or extending.
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