ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
प्रा॒ता रथो॒ नवो॑ योजि॒ सस्नि॒श्चतु॑र्युगस्त्रिक॒शः स॒प्तर॑श्मिः। दशा॑रित्रो मनु॒ष्यः॑ स्व॒र्षाः स इ॒ष्टिभि॑र्म॒तिभी॒ रंह्यो॑ भूत्॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तरिति॑ । रथः॑ । नवः॑ । यो॒जि॒ । सस्निः॑ । चतुः॑ऽयुगः । त्रिऽक॒शः । स॒प्तऽर॑श्मिः । दश॑ऽअरित्रः । म॒नु॒ष्यः॑ । स्वः॒ऽसाः । सः । इ॒ष्टिऽभिः॑ । म॒तिऽभिः॑ । रंह्यः॑ । भू॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राता रथो नवो योजि सस्निश्चतुर्युगस्त्रिकशः सप्तरश्मिः। दशारित्रो मनुष्यः स्वर्षाः स इष्टिभिर्मतिभी रंह्यो भूत्॥
स्वर रहित पद पाठप्रातरिति। रथः। नवः। योजि। सस्निः। चतुःऽयुगः। त्रिऽकशः। सप्तऽरश्मिः। दशऽअरित्रः। मनुष्यः। स्वःऽसाः। सः। इष्टिऽभिः। मतिऽभिः। रंह्यः। भूत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यानविषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वन् शिल्पिभिर्यो दशारित्रः सस्निश्चतुर्युगस्त्रिकशः सप्तरश्मिर्नवो रथस्स्वर्षा मनुष्यश्च प्रातर्योजि स इष्टिभिर्मतिभी रंह्यो भूत् ॥१॥
पदार्थः
(प्रातः) प्रभाते (रथः) गमनसाधनं यानम् (नवः) नवीनः (योजि) अयोजि (सस्निः) शेते यस्मिन् सः (चतुर्युगः) यश्चतुर्षु युज्यते सः (त्रिकशः) त्रिधा कशा गमनानि गमनसाधनानि वा यस्मिन् (सप्तरश्मिः) सप्तविधा रश्मयः किरणा यस्य सः (दशारित्रः) दश अरित्राणि स्तम्भनसाधनानि यस्मिन् सः (मनुष्यः) मननशीलः (स्वर्षाः) स्वः सुखं सुनोति येन सः (इष्टिभिः) सङ्गताभिः (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (रंह्यः) गमयितुं योग्यः (भूत्) भवति ॥१॥
भावार्थः
ये मनुष्या ईदृग्यानेन यातुमायातुमिच्छेयुस्तेऽव्याहतगतयः स्युः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब नव चावाले अठारहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में यान विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् शिल्पियों से जो (दशारित्रः) दश अरित्रोंवाला अर्थात् जिसमें दश रुकावट के साधन हैं (सस्निः) और जिसमें सोते हैं (चतुर्युगः) जो चार स्थानों में जोड़ा जाता (त्रिकशः) तीन प्रकार के गमन वा गमन साधन जिसमें विद्यमान (सप्तरश्मिः) जिसकी सात प्रकार की किरणें (नव) ऐसा नवीन (रथः) रथ और (स्वर्षा) जिससे सुख उत्पन्न हो ऐसा और (मनुष्यः) विचारशील मनुष्य (प्रातः) प्रभात समय में (योजि) युक्त किया जाता (सः) वह (इष्टिभिः) संगत हुईं और प्राप्त हुईं (मतिभिः) प्रज्ञाओं से (रंह्यः) चलाने योग्य (भूत्) होता है ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य ऐसे यान से जाने-आने को चाहें, वे निर्विघ्न गतिवाले हों ॥१॥
विषय
नवीन रथ
पदार्थ
१. (प्रातः) = प्रतिदिन प्रातः काल (रथः) = यह शरीररूप रथ (योजि) = इन्द्रियाश्वों से युक्त किया जाता है। यह रथ (नवः) = प्रतिदिन नवीन है। रात्रि को इसकी मरम्मत होकर यह प्रातः फिर से शक्तिसम्पन्न, दृढ़ व नया का नया हो जाता है-इसमें जीर्णता नहीं आती। (सस्निः) = यह शुद्ध होता है, इसकी मैल प्रतिदिन दूर कर दी जाती है । मैल ही तो इसको जीर्ण करने का कारण होती है। इस प्रकार यह निर्मलरथ (चतुर्युग:) = चार युगोंवाला होता है-चार युगों तक चलनेवाला—'ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास' रूप सब मञ्जिलों को पूरा करनेवाला बनता है। (त्रिकश:) = [कश गतिशासनयोः] ज्ञान, कर्म व भक्ति इन तीन मार्गों में गतिवाला होता है । (सप्तरश्मिः) = सात छन्दों से युक्त वेदवाणी से प्रकाश की किरणों को प्राप्त करनेवाला यह रथ है अथवा 'कर्णाविमौ नासिके चक्षुणी मुखम्' इन सात ऋषियों की प्रकाशरश्मियों वाला होता है। २. (दशारित्रः) = यह दश इन्द्रिय रूप दश अरियोंवाला है [अरित्रं = A part of a carriage] ये दश अरित्र इसकी गति का साधन बनते हैं [ऋ गतौ] । (मनुष्यः) = विचारशील पुरुष का यह हित करनेवाला है। उसे (स्वर्षाः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को प्राप्त कराता है। ३. यह शरीर रूप रथ (इष्टिभिः) = यज्ञों से तथा (मतिभिः) = बुद्धियों से रंह्यः = तीव्र गति के योग्य भूत् होता है। यदि मनुष्य यज्ञों व स्वाध्याय में प्रवृत्त रहे तो यह रथ सदा तीव्र गतिवाला बना रहता है।
भावार्थ
भावार्थ - यह शरीर रूप रथ इसीलिए प्राप्त कराया गया है कि हम यज्ञों व स्वाध्याय में प्रवृत्त रहकर प्रभु को प्राप्त करनेवाले हों।
विषय
सूर्यवत् जीवात्मा का वर्णन-परमेश्वर वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( नवः रथः ) नया, उत्तम, अद्भुत प्रकार का रथ ( योजि ) ऐसा जोड़कर बनाया जाय जो ( सस्निः ) सब सुखों का देने वाला, जिसमें अच्छी प्रकार लेटते सोते भी रह सकें, ( चतुर्युगः ) जिसमें घोड़े के जोड़ने के चार स्थान हों, ( त्रिकशः ) तेज़, मध्यम और मन्द तीनों प्रकारों की गति से चलने वाला, तीनों गतियों पर शासन या वश करने के यन्त्र से युक्त हो, ( सप्तरश्मिः ) उसको वश करने की सात रस्सियां या घोड़े के मुख में लगने वाली रासों के समान सात वश करने के साधन लगे हों, या उसमें सात चमकने के दीपक हों । जिसमें ( दशारित्रः ) दश थामने और चलाने के यन्त्र हों, ( स्वर्षाः ) सुख का देने वाला हो ऐसा रथ जिस प्रकार ( इष्टिभिः ) शक्ति देने वाली या साथ जुड़ी ( मतिभिः ) स्तम्भ करने वाली मुट्ठियों से ( प्रातः ) प्रभात में, ( रंह्यः ) वेग से चलाने योग्य होता है उसी प्रकार ( मनुष्य ) यह मनुष्य भी रथ के समान ही ( प्रातः ) प्रभात काल में ( इष्टिभिः ) इच्छाओं से और ( मतिभिः) भजन क्रियाओं से अर्थात् ज्ञान पूर्वक मनःप्रेरणाओं से ( रंह्यः ) रमण करने योग्य ( भूत् ) होता है। वह ( रथः ) रमणकारी और रसरूप होने से ‘रथ’ है । ( नवः) सदा नित्य होने से ‘नव’ है । (सस्निः) शुद्ध, संगदोष से रहित, (चतुर्युगः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों में संलगन रहता है । अथवा चारों वेदों से संदेह समाधान करने वाला या चारों अन्त करणों से युक्त हो वह ( त्रिकशः ) तीनों वेद वाणियों को धारण करने हारा, मन वाणी काय तीनों पर शासन करने वाला, ( सप्तरश्मिः ) भूर्धागत सात प्राणों से सात रश्मि वाला है । ( दशारित्रः ) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दश उसके नाव में लगे चप्पुओं के समान जीवन यात्रा करने में साधन है ( सः ) वह मनुष्य का आत्मा, ( स्वर्षाः ) परम सुख का अभिलाषी होकर ( इष्टिभिः मतिभिः ) यज्ञादि साधनों और उत्तम विचार योग्य बुद्धियों से (रंह्यः भूत् ) प्राप्त होता है । परमात्मा पक्ष में— परमात्मा रस रूप एवं रमण योग्य होने से ‘रथ’ है । स्तुति योग्य और अद्भुत होने से ‘नव’ है। शुद्ध होने से ‘सस्नि’ है । अन्तःकरण चतुष्टय से समाहित हो कर जानने योग्य होने से ‘चतुर्युग’ है, तीनों लोकों पर शासक होने से या वैखरी या वेदत्रयी तीनों प्रकार की वाणियों को धारने हारा होने से ‘त्रिकश’ है सप्तलोकों का शासक होने से ‘सप्तरश्मि’ है । दशों दिशाओं को स्वामी के समान त्राण करनेवाला होने से ‘दशारित्र’ है । वह सुख देने वाला होने से ‘स्वर्ष’ है । वह यज्ञों और उत्तम मननों द्वारा ( रंह्यः ) प्राप्त करने योग्य है । वही ( योजि ) योगभ्यास द्वारा एकाग्रचित्त से प्राप्त किया और ध्यान किया जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
येथे यान, पदार्थ, ईश्वर, विद्वान व उपदेशकाच्या बोधाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
माणसे अशा वाहनांनी जाऊ इच्छितात ज्या गतिमान वाहनांद्वारे निर्विघ्नपणे जाता-येता यावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the latest new chariot be harnessed this morning, winsome, bountiful and strongly structured, four powered, three geared, seven steered, with ten propellers, manmade chariot for humanity, self- generative for power which may be navigable with inbuilt intelligence, controlled and monitored by men.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Knowledge about the transport and conveyances is imparted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun has ten spokes inserted in the axle. It is jointed at four points with a three-type resources for its movements and has got seven-types of rays. It is always new and fresh like a chariot or conveyance. It brings happiness. O learned technologists! those wise person who associate themselves with that sun-chariot at the dawn, they acquire genius and wisdom to run it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The person who travel in the aforesaid transport, their travels are always eventless.
Foot Notes
(प्रातः) प्रभाते 1=2n the dawn. (रथ:) गमनसाधनं यानम् = Means of transport and conveyance. (योजि) अयोजि = Is jointed. (सस्निः) शेते यस्मिन् स: = Inserted in the axle. (चतुर्युगः) यश्चतुर्षु युज्यते सः । = One which is divided into four YUGAS (specified periods) (त्निकश:) त्निधा कशा गमनानि गमनसाधनानि वा यस्मिन् = Three types of movements and transport. (सप्तरश्मिः) सप्तविधा रश्मयः किरणा यस्य सः । = Seven types of rays. (दशा रित्नः ) दश अरित्राणि स्तम्भन् साधनानि यस्मिन् = A group of ten spokes. (मनुष्य:) मननशील:।= Intelligent. (स्वर्षा:) स्वः सुखं सुनोति येन सः । = Creators of happiness. (इष्टिभिः) सङ्गताभिः = Accompanying. (रंह्य:) गमयितुं योग्यः = Worthy of moving.
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