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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - आदित्याः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मा गिर॑ आदि॒त्येभ्यो॑ घृ॒तस्नूः॑ स॒नाद्राज॑भ्यो जु॒ह्वा॑ जुहोमि। शृ॒णोतु॑ मि॒त्रो अ॑र्य॒मा भगो॑ नस्तुविजा॒तो वरु॑णो॒ दक्षो॒ अंशः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । गिरः॑ । आ॒दि॒त्येभ्यः॑ । घृ॒तऽस्नूः॑ । स॒नात् । राज॑ऽभ्यः । जु॒ह्वा॑ । जु॒हो॒मि॒ । शृ॒णोतु॑ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । भगः॑ । नः॒ । तु॒वि॒ऽजा॒तः । वरु॑णः । दक्षः॑ । अंशः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा गिर आदित्येभ्यो घृतस्नूः सनाद्राजभ्यो जुह्वा जुहोमि। शृणोतु मित्रो अर्यमा भगो नस्तुविजातो वरुणो दक्षो अंशः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः। गिरः। आदित्येभ्यः। घृतऽस्नूः। सनात्। राजऽभ्यः। जुह्वा। जुहोमि। शृणोतु। मित्रः। अर्यमा। भगः। नः। तुविऽजातः। वरुणः। दक्षः। अंशः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजजनाः कीदृशाः स्युरित्याह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथाहमादित्येभ्य इव राजभ्यो या इमा घृतस्नूर्गिरो जुह्वा जुहोमि ता नो गिरः स मित्रोऽर्य्यमा भगस्तुविजातो वरुणो दक्षोंऽशो भवान् सनात् शृणोतु ॥१॥

    पदार्थः

    (इमाः) (गिरः) संस्कृता वाणीः (आदित्येभ्यः) मासेभ्यः (घृतस्नूः) या घृतमुदकं स्नन्ति शोधयन्ति ताः (सनात्) सदा (राजभ्यः) (जुह्वा) जिह्वया साधनेन (जुहोमि) (शृणोतु) (मित्रः) सखा (अर्य्यमा) न्यायेशः (भगः) सेवनीयः (नः) अस्माकम् (तुविजातः) बलादिगुणैः प्रसिद्धः (वरुणः) श्रेष्ठः (दक्षः) चतुरः (अंशः) दुष्टानां सम्यग् घातकः ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आदित्यवद्वर्त्तमाना राजानस्तत्सभासदश्च प्रजाजनानां सुखदुःखान्विता निवेदिता वाचः श्रुत्वा न्यायं कुर्वन्ति ते राज्यं वर्द्धयितुं शक्नुवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सत्ताईसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में राजपुरुष कैसे हों, इस विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वान् जैसे मैं (आदित्येभ्यः) महीनों के तुल्य (राजभ्यः) राजपुरुषों के लिये जिन (इमाः) इन प्रत्यक्ष (घृतस्नूः) घृत को शुद्ध करानेवाली (गिरः) शुद्ध की हुई सत्यवाणियों को (जुह्वा) जिह्वारूप साधन से (जुहोमि) होम करता अर्थात् निवेदन करता हूँ उन (नः) हमारी वाणियों को यह (मित्रः) मित्र बुद्धि (भगः) सेवने योग्य (तुविजातः) बलादि गुणों से प्रसिद्ध (वरुणः) श्रेष्ठ (दक्षः) चतुर (अंशः) दुष्टों के सम्यक् विनाशक (अर्यमा) न्यायाधीश आप (सनात्) सदैव (शृणोतु) सुनिये ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य्य के तुल्य तेजस्वी राजा लोग और उनके सभासद् प्रजाजनों की सुख-दुःख युक्त निवेदन की वाणियों को सुन के न्याय करते वे राज्य बढ़ाने को समर्थ होते हैं ॥१॥

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    विषय

    मित्र आदि देवों का धारण

    पदार्थ

    १. आदित्य ही देव हैं। ये सदा अच्छाइयों को ग्रहण करनेवाले हैं 'आदानात्' । अच्छाइयों को ग्रहण करने के कारण ही ये देव बने हैं। ये देव ज्ञान से दीप्त होने के कारण यहाँ 'राजभ्यः' इस प्रकार कहे गये हैं 'राज़ दीसौ'। मैं (राजभ्यः) = इन चमकनेवाले (आदित्येभ्यः) = देवों के लिएइन देवों को प्राप्त करने के लिए (इमा:) = इन (घृतस्नूः) = ज्ञानदीप्ति का स्रवण करनेवाली (गिरः) = वाणियों को (सनात्) = सदा (जुह्वा) = वाणी से (जुहोमि) = [करोमि - सा०] सदा अपने अन्दर आहुत करता हूँ । इन ज्ञानवाणियों द्वारा मैं दिव्य गुणों को अपने में धारण करता हूँ । २. [क] (मित्रः) = मित्र (नः) = हमारी प्रार्थना (शृणोतु) = सुने । 'प्रमीतेस्त्रायकः' प्रमीति से बचानेवाला मित्र है- मैं अपने को रोगों व पापों से बचानेवाला बनूँ । [ख] (अर्यमाः) ='अरीन् यच्छति' काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का नियमन करनेवाला सुने, अर्थात् मैं भी काम-क्रोध-लोभ का नियमन करनेवाला बनूँ। [ग] (भगः) = भजनीय ऐश्वर्य मेरी प्रार्थना को सुने। मैं भजनीय ऐश्वर्य का प्राप्त करनेवाला होऊँ । [घ] (तुविजातः) = महान् विकासवाला मेरी वाणी को सुने। मैं अधिक से अधिक विकासवाला बनूँ। [ङ] (वरुणः) = पाप से निवारण करनेवाला देव मेरी प्रार्थना सुने। मैं पाप से अपने को बचाता हुआ वरुण बनूँ। [च] (दक्षः) = सब कार्यों को कुशलता से करने में समर्थ 'दक्ष' मेरी वाणी को सुने। मैं भी कार्यकुशल 'दक्ष' बनूँ। [छ] (अंश:) = अंश मेरी प्रार्थना सुने। धनों को बांटकर खानेवाला 'अंश' ही मैं बन पाँऊ । [अंश् to divide]।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं ज्ञान प्राप्त करता हुआ नियमन करनेवाला, भजनीय ऐश्वर्यवाला, महान् विकासवाला, पाप से अपना निवारण करनेवाला, कार्यकुशल, बाँटकर खानेवाला बनूँ ।

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    विषय

    विद्वान् राष्ट्र के नाना शासक जनों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( आदित्येभ्यः राजभ्यः जुह्वा घृतस्नूः इव ) प्रकाशमान सूर्य की किरणों के लिये जिस प्रकार ‘जुहू’ नाम चमसे द्वारा घृत चुआने परिणाम में जल वर्षाने वाली आहुति दी जाती है उसी प्रकार मैं ( इमाः ) इन ( घृतस्नूः ) तेजोमय ज्ञान और बल वीर्य को प्रदान करने वाली ( गिरः ) वेद वाणियों का ( राजभ्यः ) तेज से चमकने वाले ( आदित्येभ्यः ) रस को किरणों के समान लेने वाले उत्तम विद्यार्थियों के लिये उत्तम सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषों वा राजाओं के लिये ( जुह्वा ) वाणी द्वारा ( जुहोमि ) कथन करता हूं । इन शिक्षाप्रद वाणियों, आज्ञाओं को ( मित्रः ) स्नेही मित्र, प्रजा को मरने से बचाने वाला राजा और वैद्य, ( अर्यमा ) शत्रुओं को बांधने वाला, स्वामी के तुल्य शासक न्यायकारी, ( भगः ) ऐश्वर्यवान् आप्तजन, ( नः ) हम में से ( तुविजातः ) बहुत से गुणों में प्रसिद्ध, ( वरुणः ) व्यवहार कुशल, क्रियावान्, और ( अंशः ) शत्रुनाशक इनमें से प्रत्येक ( नः शृणोतु ) हमारे निवेदन, कार्य व्यवहार आदि का श्रवण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ आदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असलेले राजे व त्यांचे सभासद प्रजेच्या सुख-दुःखाचे निवेदन ऐकून न्याय करतात ते राज्य वाढविण्यास समर्थ असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I offer these words of worship and prayer, adoration and admiration, sprinkled with the showers of ghrta from above dedicated to the Adityas, cosmic stars and children of Mother Infinity, self-refulgent like the sun in the zodiacs of his galactic round. I offer these words as ever with the ladle of love and whispers of faith into the fire of light and life. May the Adityas listen: Mitra, friend and darling companion of life, Aryama, lord of justice and dispensation, Bhaga, lord of glory and majesty, Tuvijata, lord manifest in power and splendour, Varuna, lord of light supreme of our choice, Daksha, lord of dexterity in the art of creation, and Ansha, divine reflection of Infinity in the world of existence, all for us all our own.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of State officials are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! I always (throughout the year) make my submissions to the State officials in direct, pure, truthful (and sweet too) language, emerging out of my tongue. Let that friendly, worthy, powerful, excellent and wise judge, who annihilates severely the criminals, listen to our submissions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. The State officials who are powerful like sun and who hear to the petitions of the people regarding their agonies and pleasures, they always prove capable to expend their territories.

    Foot Notes

    (गिर:) संस्कृता वाणीः = Submissions in selective language. (घृतस्नूः) या घृतमुदकं स्वन्ति शोधयन्ति ताः = Purifying. (स्नात् ) सदा = Always. (जुह्वा) जिह्वया साधनेन = With the tongue. ( अर्य्यंमा ) न्यायेश: = Master of justice. (तुविजात:) बलादिगुणैः प्रसिद्धः = Reputed for his powerfulness. (अंश:) दुष्टानां सम्यग् घातकः = One who punishes the wickeds well.

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