ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋ॒तं दे॒वाय॑ कृण्व॒ते स॑वि॒त्र इन्द्रा॑याहि॒घ्ने न र॑मन्त॒ आपः॑। अह॑रहर्यात्य॒क्तुर॒पां किया॒त्या प्र॑थ॒मः सर्ग॑ आसाम्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । दे॒वाय॑ । कृ॒ण्व॒ते । स॒वि॒त्रे । इन्द्रा॑य । अ॒हि॒ऽघ्ने । न । र॒म॒न्ते॒ । आपः॑ । अहः॑ऽअहः । या॒ति॒ । अ॒क्तुः । अ॒पाम् । किय॑ति । आ । प्र॒थ॒मः । सर्गः॑ । आ॒सा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतं देवाय कृण्वते सवित्र इन्द्रायाहिघ्ने न रमन्त आपः। अहरहर्यात्यक्तुरपां कियात्या प्रथमः सर्ग आसाम्॥
स्वर रहित पद पाठऋतम्। देवाय। कृण्वते। सवित्रे। इन्द्राय। अहिऽघ्ने। न। रमन्ते। आपः। अहःऽअहः। याति। अक्तुः। अपाम्। कियति। आ। प्रथमः। सर्गः। आसाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वायुसूर्यविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या युष्माभिरृतं कृण्वते सवित्रेऽहिघ्न इन्द्राय देवाय य अहरहरापो न रमन्त आसामपां प्रथमः सर्गोऽक्तुः कियत्यायाति तं यूयं विजानीत ॥१॥
पदार्थः
(तम्) उदकम् (देवाय) दिव्यगुणाय (कृण्वते) कुर्वते (सवित्रे) सकलरसोत्पादकाय सूर्याय (इन्द्राय) परमैश्वर्यहेतवे (अहिघ्ने) योऽहिं मेघं हन्ति तस्मै (न) निषेधे (रमन्ते) (आपः) जलानि (अहरहः) प्रतिदिनम् (याति) प्राप्नोति (अक्तुः) व्यक्तीकर्त्तुः (अपाम्) जलानाम् (कियति)। अत्र संहियायामिति दीर्घः (आ) (प्रथमः) (सर्गः) उत्पत्तिः (आसाम्) अपाम् ॥१॥
भावार्थः
यथाऽन्तरिक्षस्थे वायौ जलमस्ति तथा सूर्ये न तिष्ठति सूर्यादेव वृष्टिद्वारा जलप्राकट्यं जायतेऽयमेवोपर्याकर्षति वर्षयति च जलस्यादिमा सृष्टिरग्नेरेव सकाशाज्जातेति वेदितव्यम् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तीसवें सूक्त का आरम्भ है , इसके प्रथम मन्त्र में वायु और सूर्य का विषय कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो तुमको (तम्) जल को उत्पन्न (कृण्वते) करते हुए (सवित्रे) समस्त रसों के उत्पादक (अहिघ्ने) मेघ को काटने सूक्ष्मकर गिरानेहारे (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के हेतु (देवाय) उत्तम गुणयुक्त सूर्य के लिये जो (अहरहः) प्रतिदिन (आपः) जल (न,रमन्ते) नहीं रमण करते अर्थात् सूर्य के आश्रय नहीं ठहरते (आसाम्) इन (अपाम्) जलों की (प्रथमः) पहली (सर्गः) उत्पत्ति (अक्तुः) प्रकटकर्त्ता सूर्य के सम्बन्ध से (कियति) कितने ही अवकाश में (आ,याति) अच्छे प्रकार प्राप्त होती है, उसको तुम जानो ॥१॥
भावार्थ
जैसे अन्तरिक्षस्थ वायु में जल ठहरता है, वैसे सूर्य में नहीं ठहरता, सूर्यमण्डल से ही वर्षा द्वारा जल की प्रकटता होती है और यही सूर्य जल को ऊपर खींचता और वर्षाता है। जल की प्रथम सृष्टि अग्नि से ही होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥१॥
विषय
प्रभु की ओर झुकाव कब ?
पदार्थ
१. (ऋतं कृण्वते) = सृष्टि के प्रारम्भ में अपने तीव्र तप से 'ऋत' को जन्म देनेवाले 'ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत' । देवाय ज्ञान से दीप्त सवित्रे प्रेरणा देनेवाले अथवा सृष्टि उत्पन्न करनेवाले (अहिघ्ने) = वासना को [वृत्र = अहि] विनष्ट करनेवाले (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (आपः) = प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (न रमन्ते) = रमण व क्रीड़ावाली नहीं होतीं। सामान्यतः मनुष्यों का झुकाव प्रभु की ओर नहीं होता। जैसे एक बच्चा खिलौने से खेलने में मस्त रहता है-माता को भूल जाता है। इसी प्रकार इस संसार के विषयों में बद्ध हुए हम प्रभु को भूल जाते हैं । २. (अहरहः) = प्रतिदिन (अक्तुः) = प्रकाश की किरण (याति) = मनुष्य को प्राप्त होती है। जैसे सूर्योदय होता है और सूर्य का प्रकाश सर्वत्र फैलता है। पर कितने ही कम वे व्यक्ति हैं जो कि सूर्य के प्रकाश का पूरा लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार प्रभु की प्रेरणा सभी के हृदयों में प्राप्त होती है, परन्तु विरले ही व्यक्ति उसे सुनते व उससे लाभ उठाते हैं। ३. (आसाम् अपाम्) = इन प्रजाओं का यह (प्रथमः सर्गः) = मुख्य निश्चय [सर्ग=Determination, Resolve] न जाने (कियात्या) = कितने समय में हो पाएगा। 'हमने संसार के विषयों में न उलझकर प्रभु को ही पाना है' मनुष्य का यह निश्चय सर्वोत्तम है। इस निश्चय के होने में समय लग ही जाता है। कई जन्म बीत जाते हैं 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्'। वही दिन सौभाग्य का होगा जिस दिन हम प्रभु को पाने का दृढ़ निश्चय कर
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का प्रकाश तो हमें सदा प्राप्त होता है, परन्तु हम उसको पाने के लिए कुछ कम उत्सुक होते हैं। यदि हमारा प्रभु की ओर झुकाव हुआ तो हम सचमुच सौभाग्यवाले होंगे।
विषय
प्राणियों के लिये सृष्टि रचना।
भावार्थ
( ऋतं कृण्वते ) जल को उत्पन्न करते हुए ( सवित्रे ) जलों के उत्पादक ( अहिघ्ने ) मेघ को छिन्न भिन्न करने वाले ( इन्द्राय ) सूर्य के लिये ( आपः ) ये जल ( न रमन्ते ) क्रीड़ाएं नहीं करते । ( अहरहः ) दिनों दिन (आसाम् ) इन (अपां ) जलों का ( प्रथमः ) सबसे प्रथम ( सर्गः ) प्रकट हुआ मेघ ( कियति ) भला कितने देश में ( आयाति ) आ जाता है यह विचारना चाहिये अर्थात् मेघ आदि का स्थान बहुत स्वल्प है। उत्पादक सूर्य बहुत दूर है। सूर्य के स्वार्थ के लिये ये मेधादि नहीं उत्पन्न होते प्रत्युत प्राणियों के उपकार के ही लिये होते हैं । उसी प्रकार ( ऋतं ) सत्यज्ञान वेद और इस ऋत, सत्य जगत् के ( कृण्वते ) प्रकट करने वाले ( सवित्रे ) सर्वोत्पादक ( अहिघ्ने ) प्रकृति के व्यापक स्वरूप में परमाणु २ में आघात या स्पन्द उत्पन्न करने वाले ( इन्द्राय ) परमेश्वर के स्वार्थ के लिये ( आपः ) ये समस्त प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु सृष्टि रूप होकर ( न रमन्ते ) क्रीड़ा नहीं कर रहे हैं । ( आसां ) इन ( अपां ) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं का ( प्रथमः सर्गः ) प्रथम सर्ग, प्रथम विकार जो ( अहरहः ) प्रतिदिन ( याति ) विकृत होता चला जा रहा है वह ( आ कियति ) भला कितने थोड़े स्थान में परिमित है यह जीवों के लिये है । ( २ ) इसी प्रकार ( ऋतं ) ऐश्वर्य या राज्यव्यवस्था, नियमादि उत्पन्न करने वाले शत्रुसंहारकारी राजा के लिये ( आपः ) प्रजाएं नहीं क्रीड़ा करतीं। उन प्रजाओं का प्रथम उत्तम सर्ग, उत्तम अंश भला कितने स्थान में है। बहुत में है। वह सबको नहीं भोग सकता । उसका यह सब व्यवस्था आदि कार्य अपने स्वार्थ के लिये नहीं, प्रत्युत प्रजोपकार के लिये ही है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात स्त्री-पुरुष, राजा-प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जसे अंतरिक्षातील वायूत जल असते, तसे ते सूर्यात नसते. सूर्यमंडलापासूनच वृष्टी जलरूपाने प्रकट होते. सूर्य जलाला वर आकर्षित करतो आणि वृष्टी करवितो. जलाची प्रथम उत्पत्ती अग्नीनेच होते हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The streams of the existential flow of divine action stop not, nor do they play for fun, for the creator of waters and the executor of laws, self-refulgent Savita, the sun who inspires Prakrti with life, nor for Indra who breaks the clouds for rain. The light of his actions radiates continuously day by day. When did the first flow of these actions of creation originate? (Let us know.)
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