ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
अ॒स्माकं॑ मित्रावरुणावतं॒ रथ॑मादि॒त्यै रु॒द्रैर्वसु॑भिः सचा॒भुवा॑। प्र यद्वयो॒ न पप्त॒न्वस्म॑न॒स्परि॑ श्रव॒स्यवो॒ हृषी॑वन्तो वन॒र्षदः॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । अ॒व॒त॒म् । रथ॑म् । आ॒दि॒त्यैः । रु॒द्रैः । वसु॑ऽभिः । स॒चा॒ऽभुवा॑ । प्र । यत् । वयः॑ । न । पप्त॑न् । वस्म॑नः । परि॑ । श्र॒व॒स्यवः॑ । हृषी॑वन्तः । व॒न॒ऽसदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकं मित्रावरुणावतं रथमादित्यै रुद्रैर्वसुभिः सचाभुवा। प्र यद्वयो न पप्तन्वस्मनस्परि श्रवस्यवो हृषीवन्तो वनर्षदः॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम्। मित्रावरुणा। अवतम्। रथम्। आदित्यैः। रुद्रैः। वसुऽभिः। सचाऽभुवा। प्र। यत्। वयः। न। पप्तन्। वस्मनः। परि। श्रवस्यवः। हृषीवन्तः। वनःऽसदः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविषयमाह।
अन्वयः
हे सचाभुवा मित्रावरुणा यथा युवामादित्यै रुद्रैर्वसुभिर्निर्मितमस्माकं रथमासाद्य प्रावतं तथा यद्वस्मनः श्रवस्यवो हृषीवन्तो वनर्षदो वयो न परिपप्तन् ॥१॥
पदार्थः
(अस्माकम्) (मित्रावरुणा) राजप्रजाजनौ (अवतम्) गच्छतम् (रथम्) यानम् (आदित्यैः) मासैरिव वर्त्तमानैः पूर्णविद्यैः (रुद्रैः) प्राणवद्बलिष्ठैः (वसुभिः) भूम्न्यादिवद्गुणाढ्यैर्जनैः (सचाभुवा) सचेन गुणसमवायेन सह भवन्तौ (प्र) (यत्) ये (वयः) पक्षिणः (न) इव (पप्तन्) पतेयुः (वस्मनः) निवसन्तः (परि) (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छवः (हृषीवन्तः) बहुहर्षयुक्ताः (वनर्षदः) ये वने सीदन्ति ते। अत्र वाच्छन्दसीति रेफागमः ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषामनुकरणं कृत्वा विमानादीनि यानानि रचयित्वा पक्षिवदन्तरिक्षादिमार्गेषु सुखेन गमनाऽगमने कार्ये ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इकतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में शिल्पविद्या का विषय कहते हैं।
पदार्थ
हे (सचाभुवा) गुणसम्बन्ध के साथ हुए (मित्रावरुणा) राजप्रजा पुरुषो ! जैसे तुम लोग (आदित्यैः) महीनों के तुल्य वर्त्तमान पूर्ण विद्वान् (रुद्रैः) प्राण के तुल्य बलवान् (वसुभिः) भूमि आदि के तुल्य गुणयुक्त जनों ने बनाये (अस्माकम्) हमारे (रथम्) रथ पर चढ़के (प्र,अवतम्) अच्छे प्रकार चलो तथा (यत्) जो (वस्मनः) वसते हुये (श्रवस्यवः) अपने को अन्न चाहनेवाले (हृषीवन्तः) बहुत आनन्दयुक्त (वनर्षदः) वन में रहनेवाले (वयः,न) पक्षियों के तुल्य सब ओर से (परि,पप्तन्) उड़े ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों का अनुकरण करके विमानादि यान बना के पक्षी के तुल्य अन्तरिक्षादि मार्गों में सुख से गमनागमन किया करें ॥१॥
विषय
मित्रावरुणा
पदार्थ
१. हे (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण-प्राण और अपान अथवा स्नेह व निर्देषता के देवताओ! आप (अस्माकम्) = हमारे (रथम्) = शरीररूप रथ को (अवतम्) = रक्षित करो। प्राणायाम से तो शरीर का रक्षण होता ही है। प्रेम व निर्देषता की भावनाएँ भी दीर्घजीवन का कारण बनती हैं। हे मित्रावरुणौ ! आप (आदित्यैः रुद्रैः वसुभिः) = आदित्यों, रुद्रों और वसुओं के (सच भुवा) = साथ मिलकर होनेवाले हो, अर्थात् प्रेम व निर्देषता के होने पर आदित्यों, रुद्रों और वसुओं का हमारे में निवास होता है। 'आदित्य' द्युलोक के देवता हैं—'रुद्र' अन्तरिक्षलोक के तथा 'वसु' पृथिवीलोक के । शरीर में ये 'मस्तिष्क, हृदय व स्थूलशरीर' के देव हैं। प्रेम व निर्देषता के होने पर शरीर में इन सबका निवास होता है। यही 'दिव्य जीवन' है । २. (यद्) = जब इस प्रकार का जीवन हम बना पाते हैं तो (श्रवस्यवः) = उत्तम ज्ञान की कामनावाले होते हुए, (हृषीवन्तः) = हृदय में प्रसन्न मनोवृत्तिवाले तथा (वनर्षदः) = शरीररूप गृह में निवास करनेवाले अर्थात् स्वस्थ शरीरवाले होते हुए (वस्मन: परि) = इन शरीररूप निवासस्थानों से ऊपर इस प्रकार (प्रपप्तन्) = उड़ जाएँ (न) = जैसे कि (वय:) = पक्षी घोंसले से उड़ जाते हैं। हम शरीरों से ऊपर, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठकर मुक्त हो सकें।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान की साधना से हम जीवन को दिव्य बनाएँ । 'ज्ञानी प्रसादयुक्त स्वस्थ' जीवन बिताकर मोक्ष के अधिकारी हों ।
विषय
श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) मित्र ! और हे वरुण ! मरण से बचाने वाले और श्रेष्ठ पुरुषो ! ( आदित्यैः ) आदित्य के समान तेजस्वी ४८ वर्षों तक ब्रह्मचारी, ( रुद्रैः ) दुष्टों को रुलाने वाले, ३६ वर्ष के ब्रह्मचारी और ( वसुभिः ) २४ वर्ष के ब्रह्मचारी, विद्वान् पुरुषों सहित ( सचाभुवा ) सदा साथ रहनेवाले आप दोनों ( अस्माकं ) हमारे ( रथं ) रमणसाधन यानों और देहों की ( अवतम् ) रक्षा कीजिये । ( यत् ) जो या जिनसे ( श्रवस्यवः ) अन्न और यश के इच्छुक ( हृषीवन्तः ) हर्ष के अभिलाषी, और ( वनर्षदः ) जलों पर बिहार करने वाले प्रजागण ( वयः न ) पक्षियों के समान ( वस्मनः ) गृहों के भी ऊपर ( परि पप्तन् ) वेग से उड़ा करें, जाया आया करें । या ( वस्मनः ) गृह निवासी प्रजागण ( परिपप्तन् ) जाया आया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वान व विदुषी स्त्रियांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांचे अनुकरण करून विमान इत्यादी याने तयार करून पक्ष्यांप्रमाणे अंतरिक्षमार्गात सुखाने गमनागमन करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Mitra and Varuna, brilliant light and life breath of the universe, friendly ruler and vibrant people of the world, vested with innate virtues, working with Adityas, scholars brilliant as yearly phases of the sun, Rudras, forces of strength vital as life breath, and Vasus, people generous as mother earth, come with all these, programme, protect, impel, drive and guide our chariot by which we, in search of food for knowledge and fame, joyous and inspired, rested in our sylvan home, may fly like birds flying freely from their nest.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of crafts is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O closely associated by virtues Mitra and Varuna (the State officials and their subjects)! the technologists of high medium and average grades should ride on our chariot/conveyance and travel nicely therein. These crafts (air) should fly like the birds, which inhabit in the forests and then fly happily in search of food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The technologists should manufacture the aircrafts matching the birds for their travels.
Foot Notes
(मित्रावरुणा ) राजप्रजाजनौ। = The State officials and their subjects. (आदित्यैः) मासैरिव वर्त्तमानेः पूर्ण विद्यैः = There are the three stages of 48, 36 and 24 years of age for learning with the observance of celibacy. ( रुद्रैः) प्राणवद् बलिष्ठैः = Associated by the virtues. (श्रवस्यः) आत्मनः श्रवोऽन्न मिच्छवः = In search of food. (वनर्षदः ) ये वने सीदन्ति ते । अत्र वाच्छन्दसीति रेफागमः = Living in the forests.
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