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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    धा॒रा॒व॒रा म॒रुतो॑ धृ॒ष्ण्वो॑जसो मृ॒गा न भी॒मास्तवि॑षीभिर॒र्चिनः॑। अ॒ग्नयो॒ न शु॑शुचा॒ना ऋ॑जी॒षिणो॒ भृमिं॒ धम॑न्तो॒ अप॒ गा अ॑वृण्वत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धा॒रा॒व॒राः । म॒रुतः॑ । घृ॒ष्णुऽओ॑जसः । मृ॒गाः । न । भी॒माः । तवि॑षीभिः । अ॒र्चिनः॑ । अ॒ग्नयः॑ । न । शु॒शु॒चा॒नाः । ऋ॒जी॒षिणः॑ । भृमि॑म् । धम॑न्तः । अप॑ । गाः । अ॒वृ॒ण्व॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धारावरा मरुतो धृष्ण्वोजसो मृगा न भीमास्तविषीभिरर्चिनः। अग्नयो न शुशुचाना ऋजीषिणो भृमिं धमन्तो अप गा अवृण्वत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धारावराः। मरुतः। घृष्णुऽओजसः। मृगाः। न। भीमाः। तविषीभिः। अर्चिनः। अग्नयः। न। शुशुचानाः। ऋजीषिणः। भृमिम्। धमन्तः। अप। गाः। अवृण्वत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो धारावरा मरुतो भीमा मृगाः न धृष्ण्वोजसः शुशुचाना अग्नयो न तविषीभिरर्चिन चीषिणो भृमिमपधमन्तो भवन्तो गा अवृण्वत ॥१॥

    पदार्थः

    (धारावराः) धारासु शिक्षितासु वाणीष्ववरा अर्वाचीना येषान्ते (मरुतः) मरणधर्मयुक्ताः (धृष्ण्वोजसः) धृष्णु धृष्टमोजो येषान्ते (मृगाः) मृगेन्द्राः सिंहाः (न) इव (भीमाः) दुष्टान् प्रति भयंकराः (तविषीभिः) बलयुक्ताभिः सेनाभिः (अर्चिनः) सत्कर्त्तारः (अग्नयः) पावकाः (न) इव (शुशुचानाः) शुद्धाः शोधका वा (जीषिणः) कोमलस्वभावाः (भृमिम्) अनवस्थाम् (धमन्तः) दूरीकुर्वन्तः (अप) (गाः) सुशिक्षिता वाचः (अवृण्वत) स्वीकुर्वन्तु ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या पावकवत्पवित्रा जलवत्कोमलाः सिंहवत्पराक्रमिणो वायुवद्बलिष्ठा भूत्वाऽन्यायं निवर्त्तयेयुस्तेऽखिलं सुखमाप्नुयुः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पन्द्रह चावाले चौंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के विषय का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वानो (धारावराः) धाराप्रवाह शिक्षित वाणियों के बीच न्यून जिनकी वाणी (मरुतः) वे मरणधर्मयुक्त (भीमाः) दुष्टों के प्रति भयंकर (मृगाः) सिंहों के (न) समान (धृष्ण्वोजसः) पराक्रम को धारण किये हुए (शुशुचानाः) शुद्ध वा शोधनेवाले (अग्नयः) पावक अग्नियों के (न) समान (तविषीभिः) बलयुक्त सेनाओं से (अर्चिनः) सत्कार करनेवाले (जीषिणः) कोमल स्वभावी मनुष्य (भृमिम्) अनवस्था को (अप,धमन्तः) दूर करते हुए आप (गाः) सुशिक्षित वाणियों को (अवृण्वत) स्वीकार करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य पावक के समान पवित्र, जल के समान कोमल, सिंह के समान पराक्रम करनेवाले, वायु के समान बलिष्ठ होकर अन्याय को निवृत्त करें, वे समस्त सुखको प्राप्त हों ॥१॥

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    विषय

    मरुतः [प्राण]

    पदार्थ

    १. (मरुतः) = प्राण (गाः) = इन्द्रियों को (अप अवृण्वत) = विषयों से पृथक् करके वासनाजनित अन्धकार के आवरण से दूर करते हैं। प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के दोष दूर होते हैं। 'प्राणायामैर्दहेद्दोषान्' । ये प्राण (धारावराः) = अपनी धारणात्मक शक्ति से सब रोगों का निवारण करनेवाले हैं [धारया वारयितारः] (धृष्णु ओजसः) = ये शत्रुओं के धर्षक बलवाले हैं- काम-क्रोध-लोभ को नष्ट करनेवाले हैं। (मृगाः न) = सिंहों के समान (भीमाः) = शत्रुओं के लिए भयङ्कर हैं । (तविषीभिः) = बलों के द्वारा-शक्तियों को स्थिर करने के द्वारा (अर्चिनः) = प्रभु का पूजन करनेवाले हैं। [नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः]। शक्तियों को स्थिर करके हम प्रभु का अर्चन करते हैं । २. ये प्राण (अग्नयः न) = अग्नियों की तरह (शुशुचाना:) = खूब दीप्त हैं। वस्तुतः प्राणसाधना द्वारा ज्ञानाग्नि का दीपन होता है। प्राणायाम से रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती हैं- ये रेतः कण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं। (ऋजीषिणः) = ये प्राण पिष्ट का पाचन करनेवाले हैं। दाँतों से पिष्ट होकर जो भोजन पेट में पहुँचता है, उसका उदर में पाक होने में ये सहायक होते हैं। 'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्' । (भृमिं धमन्तः) = भटकानेवाली लोभवृत्ति को संतप्त करके दूर करनेवाले हैं। इस प्रकार प्राणसाधना शरीर, मन व बुद्धि सबको बड़ा सुन्दर बनानेवाली है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणों के महत्त्व को समझकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। इससे हमारा मस्तिष्क, मन व शरीर सब ठीक होंगे।

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    विषय

    मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मरुतः ) वायु गण ( धारावराः ) मेघ की जल धारा को आवृत करते हैं उसी प्रकार वीर और विद्वान् भी ( धारावराः ) धार अर्थात् वाणी को धारण करने वाले या वाणियों की प्राप्ति के लिये अपने अधीन ‘अवर’ अर्थात् नव शिष्यों को धारण करने वाले और वीर पुरुष ‘धारा’ स्वामी, नायक की आज्ञा के अधीन रहने वाले हों । ( धृष्णु-ओजसः ) प्रबल वायुओं के समान ही परपक्ष को घर्षण या पराजय करने वाले, तेज और पराक्रम वाले हों, वे ( मृगा न भीमाः ) सिहों के समान भयंकर, (तविषीभिः) बलवती बुद्धियों, शक्तियों और सेनाओं सहित ( अर्चिनः ) सबका आदर सत्कार करने वाले ( अग्नयः न ) अग्नियों के समान ( शुशुचानाः ) दीप्तियुक्त हों । ( ऋजीषिणः ) वायु जिस प्रकार जलों के सहित होते हैं उसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी ( ऋजीषिणः ) ऋजु अर्थात् धर्मानुकूल सन्मार्ग पर स्वयं चलने और अन्यों को चलाने हारे, ज्ञानजल को धारण करने वाले हों, ( भूमिं धमन्तः ) वायु गण जिस प्रकार मेघ को वेग से दूर ले जाते हुए ( गा: अप अवृण्वत ) सूर्य रश्मियों को प्रकट करते हैं उसी प्रकार विद्वान जन भी ( भृमिं ) भ्रम या संशय रूप मेघ को ( धमन्तः ) दूर करते हुए, ( गाः ) नाना वाणियों को ( अप अवृण्वत ) प्रकट करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व वायूच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे पावकाप्रमाणे (अग्नीप्रमाणे) पवित्र, जलाप्रमाणे कोमल, सिंहाप्रमाणे पराक्रमी, वायूप्रमाणे बलवान बनून अन्याय निवारण करतात, ती संपूर्ण सुख प्राप्त करतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maruts, pioneers of humanity on top of the wave, sharp as razor’s edge and vibrant as the winds, irresistible with might and majesty, terrible as the tiger, bright with light and culture, blazing as flames of fire, soft and sophisticated at heart and fond of soma to the last drop, blow off the whirlwinds of time and circumstance and open out the light and language of Divinity for the progress of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned persons is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you seldom speak when action is called for. Though mortal, but you are ferocious and valorous towards the wickeds like a lion. You are tender by nature, but otherwise, treat the enemies with powerful army like the fire, which testifies between good and bad. By removing the suspense from the minds, you accept our polished language (prayers).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    One who is testifier or purifier like fire, tender like water and valorous like a lion, he like wind gets strong. He finishes injustice and achieves happiness.

    Foot Notes

    (धारावरा:) धारासु शिक्षितासु वाणीष्ववरा अर्वाचीना येषान्ते । = One who seldom speaks at the moment of action. (मरुतः) मरणधर्मयुक्ताः । = Mortals. (घृष्ण्वोजस:) धष्णु धृष्टमोजो येषान्ते । = Valorous and ferocious. (मृगा: ) मृगेन्द्रा: सिंहाः। = Lion. (तविषिभिः) बल्युक्ताभिःसेनाभिः। = Powerful armies. (ऋजिषिण:) कोमलस्वभावाः। = of tender nature.

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