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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उपे॑मसृक्षि वाज॒युर्व॑च॒स्यां चनो॑ दधीत ना॒द्यो गिरो॑ मे। अ॒पां नपा॑दाशु॒हेमा॑ कु॒वित्स सु॒पेश॑सस्करति॒ जोषि॑ष॒द्धि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ई॒म् । अ॒सृ॒क्षि॒ । वा॒ज॒ऽयुः । व॒च॒स्याम् । चनः॑ । द॒धी॒त॒ । ना॒द्यः । गिरः॑ । मे॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । आ॒शु॒ऽहेमा॑ । कु॒वित् । सः । सु॒ऽपेश॑सः । क॒र॒ति॒ । जोषि॑षत् । हि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपेमसृक्षि वाजयुर्वचस्यां चनो दधीत नाद्यो गिरो मे। अपां नपादाशुहेमा कुवित्स सुपेशसस्करति जोषिषद्धि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। ईम्। असृक्षि। वाजऽयुः। वचस्याम्। चनः। दधीत। नाद्यः। गिरः। मे। अपाम्। नपात्। आशुऽहेमा। कुवित्। सः। सुऽपेशसः। करति। जोषिषत्। हि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽग्निविषयमाह।

    अन्वयः

    यो वाजयुर्वचस्यामुपेमसृक्षि चनो दधीत योऽपांनपान्नाद्य आशुहेमा कुविन्मे गिरस्सम्बन्ध्यस्ति स हि सुपेशसस्करति जोषिषच्च ॥१॥

    पदार्थः

    (उप) समीपे (ईम्) जलम् (असृक्षि) सृजति (वाजयुः) य आत्मनो वाजमिच्छुः (वचस्याम्) वचसि उदके भवाम् (चनः) अन्नम् (दधीत) (नाद्यः) नदितुं योग्यः (गिरः) वाण्याः (मे) मम (अपाम्) जलानाम् (नपात्) न पतति सः (आशुहेमा) सद्यो वर्द्धकः (कुवित्) बहुः। कुविदिति बहुना० निघं० ३। १। (सः) (सुपेशसः) सु-शोभनं पेशो रूपं येषान्तान् (करति) कुर्य्यात् (जोषिषत्) जुषेत सेवेत। व्यत्ययेन परस्मैपदम् (हि) खलु ॥१॥

    भावार्थः

    यः सूर्य्यो जलमाकृष्य वर्षयित्वा नदीर्वाहयत्यन्नान्युत्पादयति तदशनेन प्राणिनः स्वरूपवतः करोति स सर्वैर्युक्त्या सेवनीयः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पन्द्रह चा वाले पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    जो (वाजयुः) अपने को विज्ञान और अन्नादिकों की इच्छा करनेवाला (वचस्याम्) जल में हुई क्रिया का वा (उप,ईम्) समीप में जल को (असृक्षि) सिद्ध करता है और (चनः) चणकादि अन्न को (दधीत) धारण करे वा जो (अपान्नपात्) जलों के बीच न गिरनेवाला (नाद्यः) अव्यक्त शब्द करने को योग्य तथा (आशुहेमा) शीघ्र बढ़नेवाली (कुवित्) बहु प्रकार की क्रिया और (मे) मेरी (गिरः) वाणी का सम्बन्ध करनेवाला व्यवहार है (सः,हि) वही (सुपेशसः) सुन्दर रूपवालों को (करति) करे और (जोषिषत्) उन्हें सेवे ॥१॥

    भावार्थ

    जो सूर्य जल को खींच और वर्षा कर नदियों को बहाता और अन्नों को उत्पन्न करता, जिसके खाने से प्राणियों को स्वरूपवान् करता है, वह सबको युक्ति के साथ सेवन करने योग्य है ॥१॥

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    विषय

    शक्ति रक्षण के साधन व फल

    पदार्थ

    १. (वाजयुः) = शक्ति की कामना वाला मैं (ईम्) = निश्चय से (वचस्याम्) = स्तुति को (उप असृक्षि) = उपासना के साथ करनेवाला होता हूँ। 'वाजयुः' शब्द में प्रत्यय का अंश 'प्रार्थना' के भाव को व्यक्त करता है, 'वचस्याम्' शब्द 'स्तुतिवाचक' है । 'उप' उपासना का संकेत करता है । इस प्रकार यहाँ 'प्रार्थना - स्तुति - उपासना' का समन्वय हो जाता है । २. (नाद्यः) = उत्तम स्तुति के योग्य वह प्रभु अथवा स्तोताओं में निवास करनेवाला वह प्रभु (मे) = मेरे लिए (चनः) = अन्न को तथा (गिरः) = ज्ञानवाणियों को दधीत धारण करे। प्रभुकृपा से मैं अन्न का सेवन करनेवाला बनूँ और ज्ञानवाणियों को अपनाऊँ। ३. (अपां न पात्) = शक्तियों को न नष्ट होने देनेवाला (आशुहेमा) = शीघ्रता से कार्यों में प्रवृत्त होनेवाला (सः) = वह अपने को तपस्या द्वारा (कुवित्) = खूब (सुपेशसः) = उत्तम आकृति व अवयवोंवाला (करति) = करता है । (हि) = निश्चय से (जोषिषत्) = वह हमें प्रीतिपूर्वक कार्यों का सेवन करानेवाला होता है। प्रस्तुत मन्त्र में यह कहा गया है कि [क] प्रभु की उपासना से उसके गुणों को देखकर उन गुणों द्वारा प्रभु का स्तवन करना और उन गुणों के धारण से अपने को शक्तियुक्त करना ही योग है- प्रभु की शक्ति से अपने को शक्तिसम्पन्न करना । [ख] इस योग के लिए अन्न का सेवन करना तथा ज्ञानवाणियों को अपनाना आवश्यक है [ग] योगी का जीवन चार बातोंवाला होता है [१] ब्रह्मचर्य-शक्ति को यह नहीं गिरने देता [२] गृहस्थ में शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला बनता है [३] वानप्रस्थ में अपने को तप व स्वाध्याय द्वारा फिर से उत्तम आकृतिवाला बनाता है [४] संन्यास में स्वयं कार्य करता हुआ लोगों को क्रियामय जीवन की प्रेरणा देता है [जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्]।

    भावार्थ

    भावार्थ- शक्ति रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम सात्त्विक वानस्पतिक आहार करनेवाले हों और ज्ञानवाणियों में रुचिवाले हों। शक्तिरक्षण का परिणाम यह होगा कि हम उत्तम आकृतिवाले व स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाले होंगे।

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    विषय

    अन्नार्थी के समान ज्ञानार्थी को उपदेश । अपांनपात् का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( वाजयुः ) जो पुरुष अन्न को प्राप्त करना चाहता है वह जिस प्रकार ( वचस्याम् ईम् च उप असृक्षि ) जल को उत्पन्न और प्राप्त करने की क्रियाको करता और ( ईम् ) और जलको ( उप असर्जि ) उपाय द्वारा प्राप्त करता है और वह पुरुष (नाद्यः) नदी के जल को वश करके ही ( चनः-दधीत ) अन्न को पुष्ट करता और प्राप्त करता है । उसी प्रकार ( वाजयुः) ज्ञान और बल की इच्छा करने वाला पुरुष ( वचस्यां ) वचन, वेदवाणी, और गुरु प्रवचन के योग्य अध्ययन अध्यापन और ऊहापोह आदि क्रिया का ( उप असृक्षि ) अभ्यास करे । और वह ( नाद्यः ) उपदेष्टा करने वाले विद्या सम्पन्न गुरु का प्रिय हितैषी होकर ( मे ) मुझ उपदेशक, गुरु या परमेश्वर की ( गिरः ) वेद वाणियों के ( चनः ) उपदेश को ( दधीत ) धारण करे । ( अपां नपात् ) जिस प्रकार अन्नार्थी कृषक जलों को नहीं गिरने देता हुआ ( आशुहेमा ) शीघ्र क्रिया करता हुआ ( कुवित् ) बहुत वारों में ( सुपेशसः करत् ) अन्नादि की कृषि को और उत्तम बना लेता है, ( जोषिषत् हि ) उसका सेवन भी कर लेता है। उसी प्रकार ( अपां नपात् ) अपने प्राणों और वीर्यों को न पतित होने देने वाला वीर्यरक्षक ब्रह्मचारी होकर (आशुहेमा) शीघ्र ही ज्ञान और बल की वृद्धि करता हुआ ( कुवित् ) बहुत वारों में ( सुपेशसः ) उत्तम ज्ञान, शारीरीक बल ( करति ) प्राप्त करता है और ( जोषिषत् हि ) उसका वह उत्तम रीति से सेवन भी करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, मेघ, अपत्य, विवाह व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    जो सूर्य जल आकर्षित करून वृष्टी करवून नद्यांना प्रवाहित करतो, अन्न उत्पन्न करतो व त्याचे सेवन केल्यामुळे प्राणी सुंदर बनतात त्याचा सर्वांनी युक्तीने स्वीकार करावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Close to the waters in search of food, energy, vitality and fast speed of action, I create this song related to water energy and subsequent water wealth. May these holy words of mine, loud and bold, flowing like a stream, be delightful and bear fruit and fulfilment. May that divine energy bom of waters, instant and imperishable, be in accord with the holy voice and help us create many beautiful forms of life and various wealth for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of Agni (fire) is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    While seeking the knowledge of science and more production of food grains, one should discover the mystery of water. It helps in increased production of food grains like gram etc. The silent noiseless action created through hydro channeling generates varied activities. That power serves my beautiful ends and in my speech aids.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun draws moisture from the earth and then again makes clouds and rains. Because of it, the food grains are produced, which ultimately make eatables for all beings This power should be properly used by all.

    Foot Notes

    (असृक्षि) सृजति = Manufactures or produces. (वाजयु:) य आत्मनो वाजमिच्छुः = Desirous of knowledge of sciences and production of food grains. (वचस्याम् ) वचसि उदके भुवाम् । = Born from the hydro = water. (आशुहेमा) सद्यो वर्द्धकः = Growing quickly. (कुवित) बहुः । कुविदित बहुना । ( N. G. 3/1 ) = Plenty.

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