ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता स॒वाय॑ शश्वत्त॒मं तद॑पा॒ वह्नि॑रस्थात्। नू॒नं दे॒वेभ्यो॒ वि हि धाति॒ रत्न॒मथाभ॑जद्वी॒तिहो॑त्रं स्व॒स्तौ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । स॒वाय॑ । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । तत्ऽअ॑पाः । वह्निः॑ । अ॒स्था॒त् । नू॒नम् । दे॒वेभ्यः॑ । वि । हि । धाति॑ । रत्न॑म् । अथ॑ । अ॒भ॒ज॒त् । वी॒तिऽहो॑त्रम् । स्व॒स्तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात्। नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नमथाभजद्वीतिहोत्रं स्वस्तौ॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। स्यः। देवः। सविता। सवाय। शश्वत्ऽतमम्। तत्ऽअपाः। वह्निः। अस्थात्। नूनम्। देवेभ्यः। वि। हि। धाति। रत्नम्। अथ। अभजत्। वीतिऽहोत्रम्। स्वस्तौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविषयमाह।
अन्वयः
यो वह्निस्तदपाः सविता देवो जगदीश्वरः सवाय शश्वत्तमं देवेभ्यो नूनमुदस्थात्। उ स्यो हि रत्नं विधाति अथ स्वस्तौ वीतिहोत्रं जगदभजत् ॥१॥
पदार्थः
(उत्) (उ) (स्यः) सः (देवः) (सविता) सकलजगदुत्पादकः (सवाय) उत्पादनाय (शश्वत्तमम्) अनादिस्वरूपमनुत्पन्नं कारणम् (तदपाः) तदपः कर्म यस्य सः (वह्निः) वोढा (अस्थात्) तिष्ठति (नूनम्) निश्चितम् (देवेभ्यः) क्रीडमानेभ्यो जीवेभ्यः (वि) (हि) किल (धाति) दधाति (रत्नम्) रमणीयं जगत् (अथ) आनन्तर्ये (आ) (अभजत्) सेवते (वीतिहोत्रम्) गृहीतेश्वरव्याप्ति (स्वस्तौ) सुखे ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या यदनादि त्रिगुणात्मकं प्रकृतिस्वरूपं जगत्कारणमस्ति तस्मादेव सर्वं जगदुत्पाद्य यो धरति तस्मात्सर्वे जीवाः स्वं स्वं शरीरं कर्मफलं च सेवन्ते यदीदं जगदीश्वरो नोत्पादयेत्तर्हि कोऽपि जीवः शरीरादि प्राप्तुं न शक्नुयात् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अड़तीसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
जो (वह्निः) पहुँचनेवाला (तदपाः) जिसका पहचानना ही कर्म है (सविता) सकल जगत् का उत्पादनकर्त्ता (देवः) देदीप्यमान जगदीश्वर (सवाय) उत्पन्न करने के लिये (शश्वत्तमम्) अनादिस्वरूप अनुत्पन्न कारण को (देवेभ्यः) क्रीडा करते हुये जीवों से (नूनम्) निश्चित (उदस्थात्) उपस्थित होता है (उ) और (स्यः) वह (हि) ही (रत्नम्) रमणीय जगत् को (वि,धाति) विधान करता है (अथ) इसके अनन्तर (स्वस्तौ) सुख के निमित्त (वीतिहोत्रम्) ग्रहण की ईश्वर की व्याप्ति में अपनी व्याप्ति जिसमें ऐसे जगत् को (अभजत्) सेवता है ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो अनादि त्रिगुणात्मक प्रकृतिस्वरूप जगत् का कारण है, उसी से सब जगत् को उत्पन्न कर जो धारण कर रहा है, उससे सब जीव निज-निज शरीर और कर्म को सेवते हैं, जो इस जगत् को जगदीश्वर न उत्पादन करे तो कोई भी जीव शरीरादि न पा सके ॥१॥
विषय
सूर्योदय
पदार्थ
१. (स्यः) = वह (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = प्रेरक [षू प्रेरणे] सूर्य (उ) = निश्चय से (उत् अस्थात्) = ऊपर स्थित हुआ है-उदित हुआ है। यह सूर्य (शश्वत्तमम्) = सदा से (तद् अपा:) = इस प्रेरणात्मक कार्य को करनेवाला है। (वह्निः) = यह सूर्य सबका वोढा है-धारक है । सब लोकों का केन्द्र होता हुआ सबका धारण कर रहा है। इसी से जगत् का नाम ही 'सौर जगत्' (Solar System) हो गया है। २. (नूनं हि) = निश्चय से ही (देवेभ्यः) = क्रीडा की वृत्ति से कर्म करनेवालों के लिए यह सूर्य (रत्नं विधाति) = रमणीय वस्तुओं को विशेष रूप से धारण करता है । (अथ) = और (वीतिहोत्रम्) = 'कान्त यज्ञ को' – सुन्दर यज्ञोंवाले पुरुष को (स्वस्तौ) = कल्याण में (आभजत्) = सर्वथा भागी बनाता है। सूर्योदय होते ही देववृत्ति का बन करके हमें उत्तम यज्ञ आदि कर्मों में प्रवृत्त होना है। यही रत्नों की प्राप्ति व कल्याण का मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ– सूर्य उदित होता है- हमें कर्मों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है। हमें चाहिए कि देववृत्ति के बनकर सुन्दर यज्ञों में प्रवृत्त हो जाएँ । यही रमणीय वस्तुओं व कल्याण प्राप्ति का मार्ग है।
विषय
सविता नाम तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( स्यः देवः ) वह सब जगत् का प्रकाशक, ( सविता ) सूर्य के समान, सब जगत् का प्रेरक और उत्पादक, परमेश्वर (सवाय) संसार को उत्पन्न करने के लिये ही ( तत्-अपाः ) उस संसार के अपादान अव्यक्त सम्बन्धी तथा जगत्सम्बन्धी समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने, करने हारा और ( वह्निः ) जगत् को उठाने और धारण करने वाला होकर ( शश्वत्-तमं ) परम अन्नादि कारण प्रधान तत्व के भी ( उत् अस्थात् उ ) ऊपर अध्यक्ष रूप से स्थित है । वह ( देवेभ्यः ) क्रीड़ाशील जीवों के लिये ( रत्नम् ) रमण करने योग्य जगत् को ( विदधाति हि ) विरचता है। ( अथ ) और स्वयं ( वीतिहोत्रम् ) उस जगत् को अपनी व्याप्ति, कान्ति और रक्षा में स्वीकार करके ( स्वस्तौ ) सुख, कुशल क्षेम युक्त दशा में ( अभजत् ) रखता है। (२) उसी प्रकार सूर्य के समान तेजस्वी, कार्य भार का वहन करने वाला, उस कार्य को करने और जानने वाला होकर सदा ( सवाय उत् अस्थात् ) शासन करने के लिये सर्वोपरि विराजे । वह विद्वानों को रत्न, धन, दान करे, उत्तम कार्य करे, ( वीतिहोत्रं ) रक्षा द्वारा स्वीकार कर राष्ट्र के सुख, कुशल क्षेत्र के लिये सुख पूर्वक उसका सेवन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर, सूर्य व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो! जो अनादि त्रिगुणात्मक प्रकृतिस्वरूप जगाचे कारण आहे. त्यानेच सर्व जग उत्पन्न केलेले असून धारण करीत आहे. त्यामुळे सर्व जीव आपापले शरीर व कर्म यांचे सेवन करतात. जर या जगाला परमेश्वराने निर्माण केले नसते, तर कोणत्याही जीवाला शरीर इत्यादी मिळू शकले नसते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That self-refulgent lord Savita, creator and inspirer of the universe, omnipotent lord of action, holds, rules and sustains the universe and abides supreme over the eternal Prakrti. Indeed, he alone wields, orders and sustains the magnificent universe for the sake of living beings and carries on the sacred yajna of creation for the well-being of all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God is the creator and bearer of the world. He creates, sustains and dissolves the universe as the Supreme Being. It is His spontaneous work certainly, and He moves the eternal Primordial matter for the creation of the world for the benefit of the active and conscious souls. It is He who upholds the beautiful world and bestows happiness upon the creatures of the universe. which is pervaded by Him from all sides.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know that the eternal matter, consisting of three attributes (Satva, Rajas and tamas), is the material cause of the world. It is God Who by His infinite power upholds the universe and therefore all souls take on suitable bodies according to their deeds. If God would not have created the world (out of matter), no soul would have been able to assume the body.
Foot Notes
(शश्वत्तमम् ) अना दिस्वरुपम् अनुत्पन्नं कारणम् । = Eternal un-born matter-the material cause of the universe. (बह्निः ) बोढ़ा | बह्निः is from बह-प्रापणे | Hence the meaning is of bearing or upholding.= Bearer or upholder of the world. (देवेभ्य:) क्रीडमानेभ्यो जीवेभ्यः। = For the active and playing conscious souls. (रत्नम् ) रमणीयं जगत् = Beautiful world. (वीतिहोत्रम् ) गृहीतेश्वर ब्याप्ति: = Pervaded by God.
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