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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - कपिञ्जलइवेन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कनि॑क्रदज्ज॒नुषं॑ प्रब्रुवा॒ण इय॑र्ति॒ वाच॑मरि॒तेव॒ नाव॑म्। सु॒म॒ङ्गल॑श्च शकुने॒ भवा॑सि॒ मा त्वा॒ का चि॑दभि॒भा विश्व्या॑ विदत्॥
स्वर सहित पद पाठकनि॑क्रदत् । ज॒नुष॑म् । प्र॒ऽब्रु॒वा॒णः । इय॑र्ति । वाच॑म् । अ॒रि॒ताऽइ॑व । नाव॑म् । सु॒ऽम॒ङ्गलः॑ । च॒ । श॒कु॒ने॒ । भवा॑सि । मा । त्वा॒ । का । चि॒त् । अ॒भि॒ऽभा । विश्व्या॑ । वि॒द॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाण इयर्ति वाचमरितेव नावम्। सुमङ्गलश्च शकुने भवासि मा त्वा का चिदभिभा विश्व्या विदत्॥
स्वर रहित पद पाठकनिक्रदत्। जनुषम्। प्रऽब्रुवाणः। इयर्ति। वाचम्। अरिताऽइव। नावम्। सुऽमङ्गलः। च। शकुने। भवासि। मा। त्वा। का। चित्। अभिऽभा। विश्व्या। विदत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपदेशकगुणानाह।
अन्वयः
हे शकुने शक्तिमन् कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाणोऽरितेवं वाचं नावं चेयर्त्ति तथा सुमङ्गलो भवासि काचिद्विश्व्या अभिभा त्वामाविदत् ॥१॥
पदार्थः
(कनिक्रदत्) भृशं शब्दायमानः (जनुषम्) प्रसिद्धाम् (प्रब्रुवाणः) प्रकृष्टतया वदन् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (वाचम्) (अरितवे) यथा अरितानि (नावम्) (सुमङ्गलः) सुमङ्गलशब्दः (च) (शकुने) शकुनिवद्वर्त्तमान (भवासि) भवेः (मा) (त्वा) त्वाम् (का) (चित्) अपि (अभिभा) अभितः कान्तिः (विश्व्याः) विश्वस्मिन्भवा (विदत्) प्राप्नुयात् ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। य उपदेशको यथाऽरित्राणि नावं प्राप्नुवन्ति तथा सर्वान्मनुष्यानुपदेशाय प्राप्नोत्युपदिशन् पक्षिवद्भ्रमति तस्मै सुमङ्गलाचाराय कश्चित्प्रभाभङ्गो न स्यादेतदर्थं राज्ञोपदेशकानां रक्षा विधेया ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तीन चावाले बयालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में उपदेशक के गुणों को कहते हैं।
पदार्थ
हे (शकुने) पक्षी के तुल्य वर्त्तमान शक्तिमान् पुरुष (कनिक्रदत्) निरन्तर शब्दायमान उपदेशक (जनुषम्) प्रसिद्ध विद्या को (प्रब्रुवाणः) प्रकृष्टता से कहता हुआ (अरितेव) पहुँचे हुए पदार्थों के समान (वाचम्) वाणी (च) और (नावम्) नाव को (इयर्त्ति) प्राप्त होता वैसे (सुमङ्गलः) सुमङ्गल शब्दयुक्त (भवासि) होते हो (का,चित्) कोई भी (विश्व्याः) इस संसार में हुई (अभिभा) सब ओर से जो कान्ति है वह (त्वा) तुझे (मा) मत (विदत्) प्राप्त हो अर्थात् किसी दूसरे का तेज आपके आगे प्रबल न हो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो उपदेशक जैसे बल्ली नाव को पहुँचाती है, वैसे सब मनुष्यों को उपदेश के लिये प्राप्त होता वा उपदेश करता हुआ पक्षी के समान भ्रमता है, उस सुमङ्गलाचरण करनेवाले के लिये कोई कान्ति भङ्ग न हो, इसलिये राजा को उपदेशकों की रक्षा करनी चाहिये ॥१॥
विषय
आदर्श परिव्राजक
पदार्थ
१. (कनिक्रदत्) = प्रभु का निरन्तर आह्वान करता हुआ, (जनुषं प्रब्रुवाण:) = इस संसार में जन्म लेनेवाले इन मानवों को (प्रब्रुवाणः) = प्रकर्षेण धर्म का उपदेश करता हुआ यह (वाचम् इयर्ति) = वाणी को प्रेरित करता है। परिव्राजक की प्रथम विशेषता यही है कि [क] वह निरन्तर प्रभु के नाम का जप करता है । [ख] फिर, यह लोगों को सत्य का उपदेश देता है [ग] उपदेश के लिए ही यह वाणी का प्रयोग करता है-अन्यथा मौन रहता है। यह वाणी का प्रयोग ऐसे करता है, (इव) = जैसे कि (अरिता) = चप्पू चलानेवाला [Darsman] (नावम्) = नाव का प्रयोग करता है। नाव द्वारा वह लोगों को नदी के पार करता है, इसी प्रकार यह वाणीरूप नाव द्वारा लोगों को पाप समुद्र में डूबने से बचाता है। २. हे शकुने शक्तिशालिन् संन्यासिन्! तू लोगों के लिए इन सदुपदेशों से (सुमंगलः भवासि) = उत्तम कल्याण करनेवाला होता है। (च) और तू इस बात का पूरा ध्यान करना कि (त्वा) = तुझे (काचित्) = कोई भी (विश्व्या) = सब दिशाओं में होनेवाला–अथवा सबके अन्दर आ जानेवाला (अभिभा) = अभिभव-वासनाओं से होनेवाला तिरस्कार (मा विदत्) = मत प्राप्त हो । तुझे कोई भी वासना कभी आक्रान्त न कर ले। इन्हें छोड़कर ही तू संन्यस्त हुआ है। वासनाएँ ही नहीं छुटी तो संन्यास क्या? और वासनाओं में फंसे हुए पुरुष से दिए जानेवाले उपदेश का प्रभाव भी क्या होना ?
भावार्थ
भावार्थ - परिव्राजक [क] सदा प्रभुस्मरण करनेवाला हो [ख] सत्योपदेश के लिए ही वाणी का प्रयोग करे [ग] लोगों को भवसागर में डूबने से बचानेवाला मल्लाह बने [घ] स्वयं शक्तिशाली होता हुआ वासनाओं में न फंसे। ऐसा संन्यासी ही लोककल्याण कर पाता है।
विषय
शकुनि, श्येन, शकुन्त, आदि का रहस्य ।
भावार्थ
हे ( शकुने ) शक्तिशालिन् ! विद्या प्रदान करने में समर्थ वा पक्षी के समान निःसंशय होकर दूर २ तक भ्रमण करनेहारे ! विद्वन् ! या पक्षी के समान आकाशवत् सर्वोपरि मार्ग से जाने में समर्थ ! हे शान्तिदायक! अपने और दूसरों को ऊपर उठाने में, उपदेश करने और शत्रु का नाश करने में समर्थ ! ( अरिता इव नावम् ) अरित्र अर्थात् चप्पू जिस प्रकार नाव को आगे बढ़ाते हैं अथवा ( अरिता इव नावम् ) ‘अरिता’ गति देनेवाला कैवट जिस प्रकार नाव को चलाता है, उसी प्रकार आप भी ( कनिक्रदत् ) उपदेश करते हुए, या आज्ञा प्रदान करते हुए ( प्र-बुवाणः ) अधीन शिष्यों के प्रति विद्या का प्रवचन या अध्यापन करते हुए ( जनुषम् ) शिष्य को विद्या में उत्पन्न या निष्णात करने वाली, उसको विद्या-सम्बन्ध से नया जन्म देनेवाली या ज्ञान उत्पन्न करने वाली ( वाचम् ) वाणी का ( इयर्त्ति ) प्रदान करें । और आप ( सुमंगलः च ) शुभ मंगलजनक, कल्याणकारी, उत्तम उपदेश देने वाले, पाप के नाशक, मुख आदि अंग के समान प्रिय ( भवासि ) होवो । ( काचित् ) कोई भी किसी प्रकार का भी ( अभिभाः ) तिरस्कार ( विश्व्या ) सर्व सामान्य से आने वाला ( त्वा माविदत् ) तुझे प्राप्त न हो । ( २ ) परमेश्वर और आत्मा के पक्ष में—परमेश्वर ही हमारी अर्थज्ञापक वाणी को प्रकट करता है, एवं वेद का उपदेश करता है, वह शक्तिमान् शान्तिदायक होने से शकुन है । पापनाशक कल्याणजनक होने से सुमंगल है । कोई भी ‘अभिभा’ तिरस्कार या ज्योतिः अग्नि आदि उस तक नहीं पहुंचते। वह सबसे परे और ऊंचा है। आत्मा ( जनुषं कनिक्रदत् ) जन्म को लेता है। वाणी बोलता है, अंग देह के समान या उससे युक्त होने से ‘सुमङ्गल’ है। कोई बाहरी ज्योति या नाशकारी शक्ति या आवरण उस तक नहीं पहुंचता ।
टिप्पणी
‘शकुनिः’—शक्नोत्युन्नेतुमात्मानम्, शक्नोति नदितुम् इति वा, शक्नोति तकितुम् सर्वतः शंकरोस्त्विति वा, शक्नोते र्वा । ‘मङ्गलः’—मंगलं गिरतेः, गृणात्यर्थे, गिरत्यर्थान् इति वा, मङ्गल मङ्गवत् । मज्जयति पापमिति नैरुक्ताः । मां गच्छत्विति वा ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ कपिञ्जल इवेन्द्रो देवता॥ छन्द:—१, २, ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात उपदेशकाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वल्हे नावेला पलीकडे पोचवितात तसा उपदेशक सर्व माणसांना उपदेश करतो व पक्ष्याप्रमाणे भ्रमण करतो. त्या चांगले आचरण करणाऱ्याचे तेज नष्ट होऊ नये यासाठी राजाने उपदेशकाचे रक्षण केले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Speaking loud and bold, addressing humanity, you take the Word forward like a mariner who takes his vessel forward on the waters. O master of the Word, flying like the eagle, you are the harbinger of good fortune. No superior force from any quarter whatsoever would approach you to disturb your mission.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a preacher are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty preacher ! you are going out everywhere like a bird as a steersman sends out his boat; so you send your voice out repeatedly preaching and telling about the illustrious Vedic knowledge. You are most auspicious and benevolent. May not calamity fall upon you from any side in the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There are similes in the mantra. The preacher of truth who goes to all people for preaching as a steersman goes to a boat and who wanders from place to place like a bird in the sky, such a benevolent holy man of the noblest character should be protected well by the authorities of the State, so that his valuable life may not be endangered.
Foot Notes
(शकुने) शकुनि वद् वर्तमान। = Mighty and active like a bird. (जनुषम्)प्रसिद्धाम् वाचम् = Illustrious or renowned Vedic Speech. (कनिक्रदत् ) भृशं शब्दायमानः । = Speaking aloud repeatedly or preaching. At several places, the Vedas are termed as दैविवाचम् (Divine Speech) , though it was always kept in writing too in the script. Another term of the Vedic contents is fa meaning which is heared. As the speech is heard, and not read, it was called at Divine Speech. Ed.
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