Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 9 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि होता॑ होतृ॒षद॑ने॒ विदा॑नस्त्वे॒षो दी॑दि॒वाँ अ॑सदत्सु॒दक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒र्वसि॑ष्ठः सहस्रंभ॒रः शुचि॑जिह्वो अ॒ग्निः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । होता॑ । हो॒तृ॒ऽसद॑ने । विदा॑नः । त्वे॒षः । दी॒दि॒ऽवान् । अ॒स॒द॒त् । सु॒ऽदक्षः॑ । अद॑ब्धऽव्रतप्रमतिः । वसि॑ष्ठः । स॒ह॒स्र॒म्ऽभ॒रः । शुचि॑ऽजिह्वः । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि होता होतृषदने विदानस्त्वेषो दीदिवाँ असदत्सुदक्षः। अदब्धव्रतप्रमतिर्वसिष्ठः सहस्रंभरः शुचिजिह्वो अग्निः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। होता। होतृऽसदने। विदानः। त्वेषः। दीदिऽवान्। असदत्। सुऽदक्षः। अदब्धऽव्रतप्रमतिः। वसिष्ठः। सहस्रम्ऽभरः। शुचिऽजिह्वः। अग्निः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निविषयकानि विद्वत्कर्माण्याह।

    अन्वयः

    विद्वद्भिर्यो होतृषदने होता विदानस्त्वेषो दीदिवान् सुदक्षोऽदब्धव्रतप्रमतिर्वसिष्ठः शुचिजिह्वः सहस्रम्भरोऽग्निर्न्यसदत्स सदा कार्येषु सम्प्रयोक्तव्यः ॥१॥

    पदार्थः

    (नि) नितराम् (होता) ग्रहीता (होतृषदने) होतॄणां सदने याने वेद्यां वा (विदानः) विद्यमानः (त्वेषः) दीप्तियुक्तः (दीदिवान्) देदीप्यमानः (असदत्) सीदति (सुदक्षः) सुष्ठु दक्षो बलं यस्मात् सः (अदब्धव्रतप्रमतिः) अदब्धेनाहिंसितेन व्रतेन शीलेन प्रमतिः प्रज्ञानं यस्य सः (वसिष्ठः) अतिशयेन वासयिता (सहस्रम्भरा) सहस्रस्य जगतो धर्त्ता पोषको वा (शुचिजिह्वः) शुचिः पवित्रा जिह्वा यस्मात् सः (अग्निः) विद्युदादिकार्यकारणस्य स्वरूपः ॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः कार्येषु भास्वरं नित्यगुणकर्मस्वभावं पवित्रकारकं सकलधर्त्तारं वह्निं यथावत् प्रयुञ्जते तेऽनष्टसुखा भवन्ति ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब द्वितीय मण्डल में छठे अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषयक विद्वानों के कर्मों को कहते हैं।

    पदार्थ

    विद्वानों को जो, (होतृषदने) ग्रहीता जनों के रथ वा वेदी में, (होता) ग्रहण करनेहारा, (विदानः) विद्यमान, (त्वेषः) दीप्तियुक्त, (दीदिवान्) बार-बार प्रकाशित होता हुआ, (सुदक्षः) सुन्दर जिससे बल प्रसिद्ध होता, (अदब्धव्रतप्रमतिः) नहीं नष्ट हुए शील से जिसका ज्ञान होता, (वसिष्ठः) जो अतीव निवास करानेहारा, (शुचिजिह्वः) और जिससे जिह्वा पवित्र होती वह, (सहस्रम्भरः) सहस्रों जगत् का धारण और पोषण करनेवाला, (अग्निः) बिजुली आदि कार्य-कारणस्वरूप अग्नि, (नि,असदत्) निरन्तर स्थिर होता है, उसका प्रयोग सदा कार्यों में अच्छे प्रकार करने योग्य है ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य कार्यों में प्रदीप्त नित्य गुणकर्मस्वभावयुक्त पवित्र करनेवाले सकल पदार्थों के धारणकर्त्ता अग्नि को यथावत् प्रयुक्त करते हैं, वे अविनाशी सुखवाले होते हैं ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सहस्त्रभरः शुचिजिह्वो

    पदार्थ

    १. यह मानव शरीर 'होतृषदन' कहा गया है। इसमें 'सप्तहोतृक-यज्ञ' निरन्तर चलता है'कर्णाविमौ नासिके चक्षुषी मुखम्'='दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' ये सात होता हैं — इन सात होताओंवाला यज्ञ यहाँ मन के द्वारा चलाया जा रहा है। ये सात होता ही 'सप्तर्षि' हैं – कान 'गोतम-भरद्वाज' हैं, आँखे 'विश्वामित्र-जमदग्नि' हैं, नासिका 'वसिष्ठ-कश्यप' हैं, वाक् 'अत्रि' है । इस (होतृषदने) = होतृषदन में वह सर्वमहान् (होता) = हमारे जीवनयज्ञों को चलानेवाले प्रभु-सब कुछ देनेवाले प्रभु (नि असदत्) = निश्चय से आसीन होते हैं। वे प्रभु (विदान:) = सर्वज्ञ हैं, (त्वेष:) = तेज़ से दीप्त हैं, (दीदिवान्) = ज्ञानज्योति से जगमगा रहे हैं । (सुदक्षः) = प्रवृद्ध बलवाले हैं। २. वे प्रभु (अदब्धव्रतप्रमतिः) = न नष्ट व्रतों व प्रकृष्ट बुद्धिवाले हैं। प्रभु के (व्रत) = नियम अटूट हैं- वे प्रभु बुद्धिपूर्वक इन नियमों को बनाते हैं, अतः ये नियम पूर्ण हैं और अपरिवर्तनीय हैं । (वसिष्ठः) = वे सबको अधिक से अधिक उत्तम निवास देनेवाले हैं। वे वसुओं में श्रेष्ठ हैं। (सहस्त्रम्भरः) = [सहस्रं = सर्वम्] सबका भरण करनेवाले हैं। (शुचिजिह्वः) = पूर्ण पवित्र वाणीवाले हैं— उनसे सृष्टि के आरम्भ में उच्चरित यह वेदवाणी भी निर्दोष है । इसके द्वारा ही वे (अग्नि:) = हमें निरन्तर आगे ले चलनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारे जीवनयज्ञ को चलाते हैं। वे ही ज्ञान देकर हमें शुभ मार्ग पर आगे ले चलते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञाग्निवत् उत्तमाधिकारी सभापति और सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( होतृसदने होता ) होता आदि ऋत्विजों के बैठने के स्थान, वेदि में ( होता ) चरु आदि का ग्रहण करने वाला अग्नि जिस प्रकार ( दीदिवान् ) प्रकाशित होकर विराजता है उसी प्रकार ( होतृसदने ) शासन के अधिकार देने और लेनेवाले विद्वानों के विराजने के स्थान, सभाभवन में ( होता ) सब राज्यभार को स्वीकार करने वाला के ( अग्निः ) ज्ञानी और तेजस्वी, अग्रणी नायक पुरुष ( विदानः ) विद्वान् ( त्वेषः ) तेजस्वी, ( दीदिवान् ) प्रकाश करता हुआ, ( सुदक्षः ) उत्तम बल से युक्त कार्यकुशल, ( अदब्ध-व्रतप्रमतिः ) अपने कर्त्तव्य कर्मों और उत्तम शील, आचार के नाश न होने से उत्तम बुद्धि और ज्ञान से युक्त सदाचारी, उत्तम मननशील, ( वसिष्ठः ) राष्ट्र वासियों में सब से श्रेष्ठ और अन्यों को सुख से बसाने वाला, ( सहस्रम्भरः ) सहस्रों का भरण पोषण करने में समर्थ, ( शुचिजिह्नः ) पवित्र, सत्य वाणी बोलने हारा, होकर वेदी में होता या अग्नि के समान (असदत् ) मुख्य आसन पर विराजे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २ पङ्क्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नीप्रमाणे विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

    भावार्थ

    जी माणसे कार्यात दीप्तिमान, नित्यगुणकर्मस्वभावाने पवित्र, संपूर्ण पदार्थ धारण करणाऱ्या अग्नीला कार्यामध्ये यथायोग्य प्रयुक्त करतात, ती अविनाशी सुख भोगतात. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, life and knowledge, ever sits and abides as the chief of life’s evolution, invoking the divine powers, receiving, consuming and creating, and giving the wherewithal for life’s evolution. Let him sit in the home of the host of yajna, in and around the vedi, in the chariot, in the car, in the house of science and industry, wherever the yajna is carried on in nature and human society. He is fully knowledgeable and ever present, shining, radiating and illuminating the people around with knowledge, best creator of haven and home for peace and comfort, bearing a thousand forms of wealth and power, crystalline pure and bright of the rays of light and tongues of fire for the Word of knowledge and passion for action. Such is Agni, radiant and flaming, burning and blazing, devouring, creating, ever blessing.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The actions of fire-like scholars are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The scholar should know the nature and properties of energy (Agni), and should take the optimum use of its knowledge. The power or energy holds the transport and conveyances, and is also existent in the Holy Pits. ( यज्ञकुंड ) It provides brilliance and illumination and is very powerful. It helps in providing accommodation, in the use of good speech and holds and supports thousands of such works in the universe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The scholars are well aware of the potentialities and uses of the energy. It provides source of happiness in various ways and they always achieve an extreme delight.

    Foot Notes

    ( होतृषदने) होतॄणां दातॄणां सदने याने वेद्यां वा । = Which holds the transport and conveyances and the Holy Pits. (विदानः) विद्यमानः = Existent. (सुदक्ष:) सुष्ठु दक्षो बलं यस्मात् स: = The source from which the substantial and skilled power is drawn. (अदब्धव्रतप्रमतिः) अदब्धेनाहिंसि तेन व्रतेन शीलेन प्रमति: प्रज्ञानं यस्य सः = The knowledge of which is learnt with eternal nature. (वसिष्ठः) अतिशयेन वासयिता = Excellent in fairly rehabilitating masses (सहस्रम्भरा) सहस्रस्य जातो धर्ता पोषको वा । = One who holds and protects thousands of worlds in the universe.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top