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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वाम॑ग्ने मनी॒षिणः॑ स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नाम्। दे॒वं मर्ता॑स इन्धते॒ सम॑ध्व॒रे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । म॒नी॒षिणः॑ । स॒म्ऽराज॑म् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । दे॒वम् । मर्ता॑सः । इ॒न्ध॒ते॒ । सम् । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने मनीषिणः सम्राजं चर्षणीनाम्। देवं मर्तास इन्धते समध्वरे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। मनीषिणः। सम्ऽराजम्। चर्षणीनाम्। देवम्। मर्तासः। इन्धते। सम्। अध्वरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरः किं करोतीत्याह।

    अन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर ! मनीषिणो मर्त्तासो यं चर्षणीनां सम्राजं देवं त्वामध्वरे समिन्धते तमेव वयमप्युपासीमहि ॥१॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) अग्निरिव वर्त्तमानं परमात्मानम् (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप (मनीषिणः) मनस ईषिणः। अत्र शकन्ध्वादिना पररूपम्। (सम्राजम्) सम्राडिव वर्त्तमानम् (चर्षणीनाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (देवम्) सर्वसुखदातारम् (मर्त्तासः) मनुष्याः (इन्धते) प्रकाशयन्ति (सम्) (अध्वरे) अहिंसनीये धर्म्ये व्यवहारे ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः सूर्य्यादिरूपेण सर्वं जगत्प्रकाश्योपकृत्याऽऽनन्दयति तथैव परमात्माऽन्तर्यामिरूपेण जिज्ञासूनां योगिनामात्मनो विशेषतः सामान्यतः सर्वेषां च प्रकाश्य जगत्स्थैरसङ्ख्यैः पदार्थैरुपकृत्याऽभ्युदयनिःश्रेयससुखदानेन सदैव सुखयति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब नौ ऋचावाले दशमें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) स्वयंप्रकाशरूप जगदीश्वर ! (मनीषिणः) मननशील (मर्त्तासः) मनुष्य जिन (चर्षणीनाम्) मनुष्यादि प्रजाओं के (सम्राजम्) सम्यक् न्यायाधीश राजा (देवम्) सब सुख देनेवाले (त्वाम्) आपको (अध्वरे) रक्षणीय धर्मयुक्त व्यवहार में (सम्, इन्धते) सम्यक् प्रकाशित करते हैं, उन्हीं आपकी हम भी उपासना करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि सूर्य्यादि रूप से सब जगत् को प्रकाशित और उपकृत कर आनन्दित करता है, वैसे ही परमात्मा अन्तर्यामी रूप से जिज्ञासु योगी लोगों के आत्माओं को विशेष और सामान्य से सबके आत्माओं को प्रकाशित कर और जगत् के असंख्य पदार्थों से उपकृत कर इस लोक-परलोक के सुख देने से सदैव सुखी करता है ॥१॥

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    विषय

    मनीषियों को प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (मनीषिणः मर्तासः) = बुद्धिमान् मनुष्य (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (त्वां समिन्धते) = आपको ही समिद्ध करते हैं आपका ही दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। प्रभु का दर्शन 'मनीषा' = बुद्धि से ही होता है 'दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'। [२] बुद्धिमान् पुरुष देखता है कि वे प्रभु ही (चर्षणीनां सम्राजम्) = श्रमशील पुरुषों के जीवनों को दीप्त करनेवाले हैं। (देवम्) = प्रकाशमय हैं, इन चर्षणियों को श्रमशील व्यक्तियों को प्रकाश प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- श्रमशील पुरुषों के जीवनों को दीप्त करनेवाले उस प्रकाशमय प्रभु का दर्शन मनीषी [बुद्धिमान्] ही कर पाते हैं।

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    विषय

    सम्राट्-अग्नि, परमेश्वर, राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान अपने ही तेज से चमकने वाले ! हे ज्ञानवन् ! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! (मनीषिणः) मन को वश करके सन्मार्ग पर चलाने हारे योगीजन एवं बुद्धिमान् (मर्त्तासः) पुरुष (चर्षणीनां) दर्शन करने वाले ज्ञानी पुरुषों और मनुष्य प्रजाओं के बीच (सम्राजं) अच्छी प्रकार चमकने वाले एवं सम्राट् के समान सबके ऊपर शासक (देवं) दानशील, तेजस्वी, विजिगीषु (त्वाम्) तुझको (अध्वरे) शत्रुओं द्वारा न नाश होने वाले दृढ़ राज्य पालन के कार्य एवं श्रेष्ठ यज्ञकर्म में (सम् इन्धते) अच्छी प्रकार प्रदीप्त वा प्रकाशित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५, ८ विराडुष्णिक्। ३ उष्णिक्। ४, ६, ७, ९ निचृदुष्णिक्। २ भुरिग् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, परमात्मा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी सूर्यरूपाने सर्व जगाला प्रकाशित व उपकृत करून आनंदित करतो तसेच परमात्मा अंतर्यामी रूपाने जिज्ञासू योगी लोकांच्या आत्म्यांना विशेष व सामान्यपणे सर्व आत्म्यांना प्रकाशित करून जगातील असंख्य पदार्थांनी उपकृत करून हा लोक व परलोक यांचे सुख देऊन सदैव सुखी करतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord self-refulgent, benign and majestic ruler supreme of the world and her children, thoughtful, reflective and meditative people light, raise and worship you in their yajnic programmes of love and non-violence in the service of humanity and the environment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The performance of God is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! you illuminate like Agni (fire or sun), We meditate upon and communicate with you whom men of self-control kindle or illuminate in Yajnas (non-violent sacrifices and other noble philanthropic deeds). You are sovereign of men and other beings and Giver of all happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Agni (in the form of the sun etc.) illuminates and makes happy all the world. In the same manner, God as In-dwelling spirit illuminates the souls of the YOGIS and in particular seek after truth and common men. Agni is benevolent to them by providing innumerable articles of the world and makes them delighted with mundane and spiritual happiness in the form of emancipation.

    Foot Notes

    (त्वाम् ) अग्निरिव वर्त्तमानं परमात्मानम् । अयमग्निंन्ब्रह्मा (Stph Brahamanu 9, 2, 1, 15) = To You-God who are like Agni and fire etc.) illuminator (अध्वरे) अहिंसनीये धर्म्ये व्यवहारे । अध्वर इति यज्ञनाम | ध्वरतिहिंसा कर्मा तत् प्रतिषेधः । (N.R.T. 1, 8) = In non violent and inviolable righteous dealing.

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