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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒यम॒ग्निः सु॒वीर्य॒स्येशे॑ म॒हः सौभ॑गस्य। रा॒य ई॑शे स्वप॒त्यस्य॒ गोम॑त॒ ईशे॑ वृत्र॒हथा॑नाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒ग्निः । सु॒ऽवीर्य॑स्य । ईशे॑ । म॒हः । सौभ॑गस्य । रा॒यः । ई॒शे॒ । सु॒ऽअ॒अप॒त्यस्य॑ । गोऽम॑तः । ईशे॑ । वृ॒त्र॒ऽहथा॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निः सुवीर्यस्येशे महः सौभगस्य। राय ईशे स्वपत्यस्य गोमत ईशे वृत्रहथानाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। अग्निः। सुऽवीर्यस्य। ईशे। महः। सौभगस्य। रायः। ईशे। सुऽअपत्यस्य। गोऽमतः। ईशे। वृत्रऽहथानाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽग्निगुणानाह।

    अन्वयः

    यथा वृत्रहथानां मध्येऽयमग्निर्महः सुवीर्यस्येशे सौभगस्य राय ईशे गोमतः स्वपत्यस्येशे तथाऽहमेतेषामेनस ईशे ॥१॥

    पदार्थः

    (अयम्) (अग्निः) अग्निरिव वर्त्तमानो राजा (सुवीर्य्यस्य) सुष्ठुबलस्य (ईशे) ईष्टे (महः) महतः (सौभगस्य) श्रेष्ठैश्वर्य्यस्य (रायः) (ईशे) (स्वपत्यस्य) शोभनान्यपत्यानि यस्य तस्य (गोतमः) शोभना वाग् पृथिव्यादयो वा विद्यन्ते यस्य तस्य (ईशे) ईष्टे। अत्र सर्वत्रैकपक्षे लोपस्त आत्मनेष्विति तलोपोऽन्यत्रोत्तमपुरुषस्यैकवचनम् (वृत्रहथानाम्) वृत्रा मेघा इव वर्त्तमानाः शत्रवो हथा हता यैस्तेषाम् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथा सुसाधितेनाग्निनोत्तमं बलं महदैश्वर्य्यमुत्तमान्यपत्यानि च लब्ध्वा शत्रून् विनाशयन्ति तथैव मनुष्याः सुपुरुषार्थेनोत्तमं सैन्यमतुलमैश्वर्य्यं शरीरात्मबलयुक्तान् सन्तानान् प्राप्य शत्रुवद्दोषान् घ्नन्तु ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के गुणों को कहते हैं।

    पदार्थ

    जैसे (वृत्रहथानाम्) मेघ के सदृश वर्त्तमान शत्रुओं के हननकारियों के मध्य में (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि के सदृश प्रकाशमान राजा (महः) श्रेष्ठ (सुवीर्य्यस्य) उत्तम बल का (ईशे) स्वामी तथा (सौभगस्य) श्रेष्ठ ऐश्वर्यभाव और (रायः) धन का (ईशे) स्वामी है (गोमतः) उत्तम वाणी तथा पृथिवी आदि युक्त पुरुष का स्वामी है (स्वपत्यस्य) उत्तम सन्तान युक्त पुरुष का स्वामी है, वैसे ही मैं इन पुरुषों के मध्य में दोष का (ईशे) स्वामी हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग जैसे उत्तम प्रकार होम तथा यन्त्र आदि से सिद्ध किये हुए अग्नि से उत्तम बल श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य और उत्तम सन्तानों को प्राप्त होके शत्रु लोगों का नाश करते, वैसे ही मनुष्य लोगों को चाहिये कि उत्तम पुरुषार्थ से उत्तम सेना अतुल ऐश्वर्य्य शरीर आत्मा बल से युक्त सन्तानों को प्राप्त होकर शत्रुओं के समान क्रोध आदि दोषों को त्यागें ॥१॥

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    विषय

    सुवीर्य, धन व ज्ञान

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह (अग्नि:) = प्रगतिशील जीव (सुवीर्यस्य ईशे) = उत्तम शक्ति का ईश बनता है। सात्त्विक भोजन के सेवन से इसमें सात्त्विक शक्ति उत्पन्न होती है, इस शक्ति का यह औरों के रक्षण में ही विनियोग करता है और इस प्रकार यह (महः सौभगस्य) = महान् सौभाग्य का-यश का ईश बन जाता है। यह सुवीर्य इसके सौभग का कारण बनता है। बल के साथ यश का मेल हो जाता है। [२] यह अग्नि (रायः ईशे) = धन का स्वामी बनता है। उस धन का स्वामी बनता है, जिसे कि यह 'रा दाने' दान देनेवाला होता है। इस दान के कारण ही यह धन ('स्वपत्यस्य') = उत्तम सन्तानवाला होता है ' श्रदस्मै वचसे नरो दधातन यदाशीर्दा दम्पती नाममश्नुतः'। दान देनेवाली पतिपत्नियों के सन्तान उत्तम ही होते हैं। 'स्वपत्यस्य' का अर्थ न पतन के हेतुभूत यह भी है । 'अग्नि' उस धन का स्वामी बनता है, जो धन उसके पतन का कारण नहीं बनता। इस धन द्वारा वह उत्त्थान के साधनों को ही जुटाता है। [३] (गोमतः ईशे) = यह गोमानों का ईश बनता है 'गाव: वेदवाच: ' वेदवाणियों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ बनता है और इसीलिए (वृत्रहथानाम्) = वृत्र के मारनेवालों में भी अग्रणी होता है। ज्ञान द्वारा यह वासना [वृत्र] का संहार करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– 'अग्नि' = प्रगतिशील वह है जो कि रक्षण में विनियुक्त होनेवाले यशस्वी बल का ईश बनता है, धनों को दान देता हुआ उन्हें पतन का कारण नहीं बनने देता और ज्ञान की वाणियों को ग्रहण करता हुआ वासनाओं का विनाश करता है।

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    विषय

    स्वामी, ईश्वर, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अयम्) यह (अग्निः) ज्ञानी पुरुष और अग्रणी नायक, राजा (सुवीर्यस्य) उत्तम वीर्य, बल का (ईशे) स्वामी हो, (महः सौभगस्य) बड़े भारी उत्तम कल्याणजनक, सुखप्रद ऐश्वर्य का (ईशे) स्वामी हो। वह (सु-अपत्यस्य) उत्तम सन्तानों और (गोमतः) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न (रायः) धनैश्वर्य का (ईशे) स्वामी हो और वह (वृत्र-हथानां) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों के हनन, नाश करने वाले वीर पुरुषों का भी (ईशे) स्वामी हो। (२) परमेश्वर उत्तम बल, बड़े सौभाग्य, आवरक अज्ञानों के नाशक ज्ञानों का और (गोमतः रायः) वेद वाणी से युक्त पारलौकिक विभूति का भी स्वामी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कीलः कात्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५ भुरिगनुष्टुप। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ३ निचृद् बृहती। ४ भुरिग् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे जशी उत्तम प्रकारे होम व यंत्र इत्यादींनी सिद्ध केलेल्या अग्नीने उत्तम बल, श्रेष्ठ ऐश्वर्य व उत्तम संतानांना प्राप्त करून शत्रूंचा नाश करतात, तसेच माणसांनी उत्तम पुरुषार्थाने उत्तम सेना, अतुल ऐश्वर्य, शरीर, आत्मा बलाने युक्त संताने प्राप्त करून क्रोध इत्यादी दोषांचा शत्रूंप्रमाणे त्याग करावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, the ruler, rules strength and power, heroes and warriors of the world, rules the greatness and grandeur of good fortune, rules the wealth of nations, rules the families blest with children of noble character, rules the master of cows, land, and knowledge and language, and rules and controls those who destroy the darkness of ignorance and hoarders of wealth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni (fire and king) are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Among the slayers of the foes, this Agni (a ruler) shining like the fire, is the master of great strength, prosperity and wealth and is blessed with noble progeny, good lands and admirable speech. Let me be the successful controller of all sinful tendencies, never allowing them to overcome me.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men acquire great strength, prosperity and noble progeny by the proper use of the fire. In the same manner, they should obtain with good industriousness and army, incomparable wealth and progeny endowed with physical and spiritual power. With it, they can slay their enemies and remove evils.

    Foot Notes

    (अग्नि ) अग्निरिव वर्त्तमानो राजा । = A ruler resplendent like the fire. (गोमत:) शोभना वाक् पृथिव्यादयो वा विद्यन्ते यस्य तस्य गोमलः | गौरिति वाङ्नाम (N. G. 1, 11) गौरिति पृथिवीनाम ( N. G. 1, 11) = Of the wealth consisting of noble speech and good lands. (वृत्रह्थानाम् ) वृत्रा मेधा इव वर्त्तमानाः शत्रवो हथा हता यस्तेषाम् वृत्त इति मेघनाम (N. G. 1, 19) = Those who have slain their enemies like the clouds.

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