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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथी कौशिकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं नो॑ य॒ज्ञम॒मृते॑षु धेही॒मा ह॒व्या जा॑तवेदो जुषस्व। स्तो॒काना॑मग्ने॒ मेद॑सो घृ॒तस्य॒ होतः॒ प्राशा॑न प्रथ॒मो नि॒षद्य॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । नः॒ । य॒ज्ञम् । अ॒मृते॑षु । धे॒हि॒ । ई॒मा । ह॒व्या । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । जु॒ष॒स्व॒ । स्तो॒काना॑म् । अ॒ग्ने॒ । मेद॑सः । घृ॒तस्य॑ । होत॒रिति॑ । प्र । अ॒शा॒न॒ । प्र॒थ॒मः । नि॒ऽसद्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं नो यज्ञममृतेषु धेहीमा हव्या जातवेदो जुषस्व। स्तोकानामग्ने मेदसो घृतस्य होतः प्राशान प्रथमो निषद्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। नः। यज्ञम्। अमृतेषु। धेहि। इमा। हव्या। जातऽवेदः। जुषस्व। स्तोकानाम्। अग्ने। मेदसः। घृतस्य। होतरिति। प्र। अशान। प्रथमः। निऽसद्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।

    अन्वयः

    हे जातवेदो मेदसो घृतस्य स्तोकानां होतरग्ने प्रथमस्त्वं निषद्य सुखं प्राशान न इमं यज्ञं जुषस्वेमा हव्या अमृतेषु धेहि ॥१॥

    पदार्थः

    (इमम्) (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) विद्वत्सत्कारसत्सङ्गशुभगुणदानाख्यम् (अमृतेषु) नाशरहितेषु पदार्थेषु (धेहि) (इमा) इमानि (हव्या) होतुं धर्मार्थकाममोक्षान्साधयितुमर्हाणि साधनानि (जातवेदः) जातविज्ञान (जुषस्व) सेवस्व (स्तोकानाम्) अल्पानां पदार्थानाम् (अग्ने) विद्वन् (मेदसः) स्निग्धस्य (घृतस्य) (होतः) दातः (प्र) (अशान) भुङ्क्ष्व (प्रथमः) आदिमः (निषद्य) ॥१॥

    भावार्थः

    यथान्नपानादीनां दाता अन्येषां प्रियो भवति तथैव विद्यासुशिक्षाधर्मज्ञानप्रापको जिज्ञासूनां प्रियो भवति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) संपूर्ण उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता ! (मेदसः) चिकने (घृतस्य) घृत और (स्तोकानाम्) छोटे पदार्थों के (होतः) दाता (अग्ने) विद्वान् पुरुष (प्रथमः) पूर्वकाल में वर्त्तमान आप (निषद्य) स्थित होकर (प्र) (अशान) सुख को भोगो (नः) हमलोगों के (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कार सत्संग शुभगुणों और दानरूप कर्म का (जुषस्व) सेवन कीजिये (इमा) इन (हव्या) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि के लिये योग्य साधनों को (अमृतेषु) नाशरहित पदार्थों में (धेहि) स्थापन करो ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे अन्न जल आदि का दाता पुरुष अन्य पुरुषों को प्रिय होता वैसे विद्या उत्तम शिक्षा और धर्म सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करानेवाला जन इन कर्मों को जानने की इच्छायुक्त पुरुषों का प्रिय होता है ॥१॥

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    विषय

    यज्ञ, हव्य व घृत

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (इमम्) = इस (नः यज्ञम्) = हमारे द्वारा प्रतिपादित किये गये यज्ञ को (अमृतेषु) = नीरोगताओं के निमित्त (धेहि) = धारण कर । यज्ञों को करते हुए अपने जीवन को नीरोग बना। हे (जातवेदः) = उत्पन्न हुआ है ज्ञान जिसमें ऐसा तू (इमा हव्या) = इन हव्य पदार्थों का जुषस्व प्रीतिपूर्वक सेवन कर । ज्ञानी पुरुष सदा पवित्र पदार्थों का ही सेवन करता है वह सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता है। [२] हे (अग्ने) = प्रगतिशील, (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाले जीव! तू (प्रथमः निषद्य) = सर्वप्रथम उपासना में स्थित होकर, अर्थात् प्रभुस्मरण के अनन्तर (घृतस्य) = घृत के (मेदसः) = मेदस्तत्त्व के (स्तोकान्) = कणों को प्राशान खानेवाला बन। भोजन में मेदस्तत्त्व [Fat] का होना भी आवश्यक है, परन्तु वह मेदस्तत्त्व घृत से ही प्राप्त किया जाए। इसे अधिक मात्र में न खाकर थोड़ा ही खाया जाए 'आज्यं तौलस्य प्राशान' । तेल से भी व चरबी से भी यह तत्त्व प्राप्त हो सकता है, परन्तु वह मनुष्य के लिये वाञ्छनीय नहीं । घृत से ही इस तत्त्व को लेना चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशील हों। हव्य-पदार्थों का ही सेवन करें। मेदस्तत्त्व को प्राप्त करने के लिए मितरूप में घृत का प्रयोग करें।

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    विषय

    यज्ञ का संस्थापक अग्नि विद्वान्।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) प्रसिद्ध बुद्धि और ऐश्वर्य वाले विद्वन् ! तू (इमं यज्ञम्) इस परस्पर दानप्रतिदान, पूजा सत्कार, सत्संग व्यवहार आदि उत्तम कामों को (नः) हमारे बीच (अमृतेषु) न मरने हारे दीर्घजीवी, वृद्ध जनों और युवा पुत्रों में (धेहि) स्थापित कर। (इमा) ये (हव्या) ग्रहण करने योग्य अन्न, ज्ञान, ऐश्वर्य और सद्गुणों को धर्मार्थ काम मोक्षादि के साधक साधनों को (जुषस्व) सेवन कर। हे (अग्ने) तेजस्विन् ! हे (होतः) सबके दातः ! (अग्ने) प्रतापिन् ! ज्ञानवन् ! (प्रथमः) सबसे प्रथम (घृतस्य मेदसः) घृत के समान स्नेहयुक्त चीकने पदार्थ द्वारा बने (स्तोकानां) थोड़ी २ मात्रा में स्थित पदार्थों का तू (निषध) आदरपूर्वक बैठकर (प्र अशान) उत्तम रीति से भोजन कर। (२) इसी प्रकार सबसे श्रेष्ठ राजा (निषद्य) सिंहासन पर विराज कर (स्तोकानां) अपने से अल्पशक्ति वाले प्रजाओं और सामन्तों के बीच में विराज कर (मेदसः घृतस्य) प्रजाओं के स्नेह और तेज का (प्राशान) अच्छी प्रकार उत्तम रीति से उपभोग करे। वह इस प्रजा पालन रूप यज्ञ को ‘अमृत’ अर्थात् उत्साही स्थायी पुरुषों पर स्थापित करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौशिको गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप्। २, ३ अनुष्टुप्। ५ विराट् बृहती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व माणसांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    जसा अन्न, जल इत्यादींचा दाता इतरांना प्रिय वाटतो तसे विद्या, उत्तम शिक्षण व धर्मासंबंधी ज्ञान प्राप्त करविणारा जिज्ञासूंना प्रिय वाटतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, accept this yajnic performance of our knowledge, action and meditation, charity and social action, take it high up and establish it among the immortals. O lord omniscient of all in existence, take and taste these offerings of ours and bless us. First, foremost and most excellent lord of knowledge, Agni, seated on the vedi, chief yajaka and generous giver, taste of the fragrance of the delicacies, ghrta and oils offered into the fire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A man's duties are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! you are blessed with wisdom. You are giver of greasy substances ghee and other small articles. Place our Yajna (in the form of honor to "absolutely truthful and learned men, association with the righteous and donation to good virtuous etc.) among the regular items of life make it immortal or imperishable. Accept and apply these means for the attainment of four cardinal objects of human life-Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of the noble desire) and Moksha (emancipation). Be seated comfortably here. You are the first and the foremost among the learned persons and partake of this food consisting of ghee and other nutritious substances.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the giver of the articles of food and drink etc. becomes popular, in the same manner, the communication of knowledge, wisdom, good education, and Dharma becomes popular among the seekers after truth.

    Foot Notes

    (यज्ञम्) विद्वत्सत्कारात्सङ्गशुभगुणदानाख्यम् । = Yajna in the form of the honor shown to the enlightened persons, association of the righteous persons and gift of articles etc. to good virtuous. (हव्या) होतुं धर्मार्थकाममोक्षान्साधयतुमर्हाणि साधनानि । The means for the accomplishment of Dharma, Artha, Kama and Moksha. (मेदसः ) स्निग्धस्य। = Of the greasy.

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