ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - गाथी कौशिकः
देवता - पुरीष्या अग्नयः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यं सो अ॒ग्निर्यस्मि॒न्त्सोम॒मिन्द्रः॑ सु॒तं द॒धे ज॒ठरे॑ वावशा॒नः। स॒ह॒स्रिणं॒ वाज॒मत्यं॒ न सप्तिं॑ सस॒वान्त्सन्त्स्तू॑यसे जातवेदः॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । सः । अ॒ग्निः । यस्मि॑न् । सोम॑म् । इन्द्रः॑ । सु॒तम् । द॒धे । ज॒ठरे॑ । वा॒व॒शा॒नः । स॒ह॒स्रिण॑म् । वाज॑म् । अत्य॑म् । न । सप्ति॑म् । स॒स॒वान् । सन् । स्तू॒य॒से॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः। सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेदः॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। सः। अग्निः। यस्मिन्। सोमम्। इन्द्रः। सुतम्। दधे। जठरे। वावशानः। सहस्रिणम्। वाजम्। अत्यम्। न। सप्तिम्। ससवान्। सन्। स्तूयसे। जातऽवेदः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निगुणमाह।
अन्वयः
हे जातवेदो ! यस्मिन्नयमग्निः सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं दधे तस्मिन् वावशान इन्द्रो भवान् जठरे सुतं सोमन्दधे स त्वं ससवान् सन् स्तूयसे ॥१॥
पदार्थः
(अयम्) (सः) (अग्निः) विद्युत् (यस्मिन्) (सोमम्) पदार्थसमूहम् (इन्द्रः) जीवः (सुतम्) निष्पन्नम् (दधे) धरति (जठरे) उदराग्नौ (वावशानः) भृशं कामयमानः (सहस्रिणम्) असङ्ख्यं बलं विद्यते यस्मिँस्तम् (वाजम्) वेगम् (अत्यम्) व्यापकं शीघ्रगामिनं वायुम् (न) इव (सप्तिम्) अग्न्याख्यमश्वम् (ससवान्) संभाजकः (सन्) (स्तूयसे) (जातवेदः) जातविद्य ॥१॥
भावार्थः
यदि मनुष्या विद्ययाग्निं चालयेयुस्तर्ह्ययं सहस्राणामश्वानां बलन्धरति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से अग्नि के गुणवर्णन विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे (जातवेदः) उत्तम विद्याधारी ! (यस्मिन्) जिसमें (अयम्) यह (अग्निः) बिजुली (सहस्रिणम्) असङ्ख्य पराक्रमयुक्त (वाजम्) वेग और (अत्यम्) व्यापक शीघ्र चलनेवाले वायु के (न) तुल्य (सप्तिम्) अग्निनामक अश्व को (दधे) धारण करता है उसमें (वावशानः) अत्यन्त कामना करनेवाला (इन्द्रः) जीवात्मा आप (जठरे) पेट की अग्नि में (सुतम्) उत्पन्न (सोमम्) पदार्थों के समूह के धारणकर्त्ता आप (ससवान्) विभागकारक (सन्) होकर (स्तूयसे) स्तुति करने योग्य हो ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या से अग्नि को चलावें, तो यह अग्नि हज़ारों घोड़ों के बल को धारण करता है ॥१॥
विषय
सोमरक्षण से शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (सः) = वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु हैं, (यस्मिन्) = जिनकी प्राप्ति के निमित्त (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष, (वावशानः) = प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामना करता हुआ, सुतं सोमम् उत्पन्न हुए-हुए सोम को जठरे दधे-अपने उदर में ही धारण करता है। सोम को नष्ट न होने देकर उसे शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करता है। यह रक्षित सोम इसकी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। दीप्त ज्ञानानि से यह प्रभु का दर्शन करता है। एवं इस सोमरक्षण से उस सोम (=प्रभु) की प्राप्ति होती है । (२) हे जातवेदः - सर्वज्ञ प्रभो! आप इस सोमरक्षक को अत्यं न सप्तिम्-सततगामी अश्व के समान सहस्त्रिणं वाजम्-सहस्र गुणित शक्ति ससवान् प्राप्त कराते हुए स्तूयसे स्तुति किए जाते हो । प्रभु का उपासक विषयों में न फँसकर सोम का रक्षण कर पाता है। इस सोमरक्षण से उसे शक्ति प्राप्त होती है। इस शक्तिरक्षण के लिए वह प्रभु का स्तवन करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से ही सोम (प्रभु) का दर्शन होता है। इस सोमरक्षक को प्रभु सहस्रगुणित शक्ति प्राप्त कराते हैं ।
विषय
अग्नि विद्युत्, ज्ञानप्रद आचार्य गुरु का शिष्य को उपदेश।
भावार्थ
(अयं) यह (सः) वह (अग्निः) अग्नि या विद्युत् हैं (यस्मिन्) जिस में (इन्द्रः) सबको प्रदीप्त करने वाला विद्वान् पुरुष (वावशानः) इच्छा करता हुआ, (जठरे) यन्त्र के मध्य में (सुतं) उत्पन्न (सोमं) प्रेरक बल को उदर में जल वा अन्न के समान (दधे) स्थापित करता है। इस प्रकार वह (अत्यं न सप्तिम्) वेगवान् अश्व के तुल्य (अत्यं) निरन्तर जाने वाले (सप्तिम्) गतिशील (सहस्रिणं वाजं) सहस्रगुण वेग या बल को (दधे) धारण करता है। हे (जातवेदः) ज्ञानवन् ! मतिमन् ! तू उस वेग वा बल को (ससवान्) अच्छी प्रकार यन्त्र के अन्य २ भागों में विभक्त करता हुआ ही (स्तूयसे) स्तुति करने योग्य है। अथवा वह अग्नि ही इस प्रकार प्रबल वेग धारण करने से (स्तूयसे) उपदेश देने योग्य है। (२) (अयं सः अग्निः) यह ही वह ज्ञानवान् आचार्य है (यस्मिन् जठरे) जठर या उदर के समान जिसमें वह आचार्य स्वयं (रुद्रः) ज्ञान का धारक होकर (वावशानः) शिष्य की कामना करता हुआ (सोमं सुतं) शिष्य को पुत्र के समान (दुधे) धारण करता है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः तं रात्रीस्तिस्त्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमुपसंयन्ति देवाः॥ अथर्व० कां० ११॥ स० ५॥ १ ॥ हे (जातवेदः अत्यं न सप्ति ससवान्) वेगवान् अश्व सैन्य का धारण करने वाले नायक के समान तू भी (सहस्त्रिणं वाजं) सहस्रों प्रकार के ज्ञान को (ससवान् सत्) अन्यों में विभक्त या प्रदान करता हुआ ही (स्तूयसे) स्तुति किया जाता है। (३) यह वही अग्नि प्रभु है जो स्वयं (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् होकर अपने भीतर उत्पन्न संसार को धारण करता है। वह सहस्रों ऐश्वर्यो का देने हारा, व्यापक प्रभु ही स्तुति करने योग्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथी ऋषिः॥ पुरीष्या अग्नयो देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २, ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ निचृत् पंक्तिः। ४ विराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
जी माणसे विद्येने अग्नीचा उपयोग करतात तेव्हा तो अग्नी हजारो घोड्यांचे बळ धारण करतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This is that Agni, vital electric energy, in which Indra, lord of power and passion, thirsting for the joy of living, concentrates soma, essence of peace, power and joy, distilled and placed in the heat of the stomach, navel of the body system. O Jataveda, vital fire of energy present in everything that is born in the world of existence, holding and sharing a thousandfold power, moving and reaching anywhere like a tempestuous horse, you are loved and adored everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The properties of Agni electricity are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! after knowing the properties of all objects, this is the Agni/electricity in which God has placed a speedy fire like the mightiest wind. Desiring to have the proper use of that Agni / fire electricity, you o soul ! put in your belly various articles of food. You are admired by all, when you distribute the articles among the needy or deserving persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men drive or utilize this Agni electricity, it has the power of a thousand of horses. (Still the power is measured with horse in the scientific parlance. Ed.)
Foot Notes
(सोमम् ) पदार्थसमूहम् । = The host of articles.(अत्यम्) व्यापकं शीघ्रगामिनं वायुम् । = Quick going wind. (सप्तिम् ) अग्न्याख्यमश्वम् । (सप्तिम् ) सप्तिरिति अश्वनाम (N.G. 1, 14 ) = The horse in the form of fire.
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