ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
ऋषिः - देवश्रवा देववातश्च भारती
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
निर्म॑थितः॒ सुधि॑त॒ आ स॒धस्थे॒ युवा॑ क॒विर॑ध्व॒रस्य॑ प्रणे॒ता। जूर्य॑त्स्व॒ग्निर॒जरो॒ वने॒ष्वत्रा॑ दधे अ॒मृतं॑ जा॒तवे॑दाः॥
स्वर सहित पद पाठनिःऽम॑थितः । सुऽधि॑तः । आ । स॒धऽस्थे॑ । युवा॑ । क॒विः । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्र॒ऽने॒ता । जूर्य॑त्ऽसु । अ॒ग्निः । अ॒जरः॑ । वने॑षु । अत्र॑ । द॒धे॒ । अ॒मृत॑म् । जा॒तऽवे॑दाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्मथितः सुधित आ सधस्थे युवा कविरध्वरस्य प्रणेता। जूर्यत्स्वग्निरजरो वनेष्वत्रा दधे अमृतं जातवेदाः॥
स्वर रहित पद पाठनिःऽमथितः। सुऽधितः। आ। सधऽस्थे। युवा। कविः। अध्वरस्य। प्रऽनेता। जूर्यत्ऽसु। अग्निः। अजरः। वनेषु। अत्र। दधे। अमृतम्। जातऽवेदाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निद्वाराशिल्पविद्योपदिश्यते।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्सधस्थे निर्मथितः सुधितो युवा कविः प्रणेताऽजरो जातवेदा अग्निर्जूर्यत्सु वनेष्वध्वरस्या दधेऽत्रामृतं च स सर्वोपायैर्वेदितव्यः ॥१॥
पदार्थः
(निर्मथितः) नितरां विलोडितः (सुधितः) सुष्ठु धृतः (आ) (सधस्थे) समानस्थाने (युवा) विभाजकः (कविः) क्रान्तदर्शनः (अध्वरस्य) अहिंसामयस्य शिल्पव्यवहारस्य (प्रणेता) प्रेरकः (जूर्यत्सु) वेगवत्सु (अग्निः) पावकः (अजरः) नित्यः (वनेषु) रश्मिषु (अत्र) अस्मिन्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (दधे) दधाति (अमृतम्) उदकम् (जातवेदाः) जातानि वेदांसि धनानि यस्मात्सः ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्याः कलायन्त्रादियुक्तेषु यानेषु नितरां विलोडितश्चालितोऽग्निः सर्वेभ्यो यानानि वेगेन गमयतीति वित्त ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले तेईसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से अग्नि के द्वारा शिल्पविद्या का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सधस्थे) तुल्य स्थान में (निर्मथितः) अत्यन्त मथा अर्थात् प्रदीप्त किया गया (सुधितः) उत्तम प्रकार धारित (युवा) विभागकर्त्ता (कविः) उत्तम दर्शन सहित (प्रणेता) प्रेरणाकारक (अजरः) नित्य (जातवेदाः) धनों की उत्पत्ति करनेवाला (अग्निः) अग्नि (जूर्यत्सु) वेगयुक्त (वनेषु) किरणों में (अध्वरस्य) अहिंसारूप शिल्पव्यवहार को (आदधे) धारण करता है (अत्र) इस शिल्पविद्या में (अमृतम्) जल को भी धारण करता, वह अग्नि सम्पूर्ण उपायों से जानने योग्य है ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! कलायन्त्र आदिकों से युक्त वाहनों में अत्यन्त मथित होकर चलाया गया अग्नि सकल जनों के लिये वाहनों को वेगपूर्वक चलाता है, यह जानना चाहिये ॥१॥
विषय
अमृतत्त्व का धारण
पदार्थ
[१] (अत्रा) = यहाँ इस संसार में (जातवेदा:) = वे सर्वज्ञ प्रभु (वनेषु) = उपासकों में (अमृतम्) = अमृतत्त्व को (दधे) = धारण करते हैं। उपासकों को प्रभु जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठाकर अमरता प्राप्त कराते हैं। वे प्रभु जो कि (जूर्यत्सु अजर:) = [विनश्यत्सु अविनश्यन्तम्] जीर्ण होनेवाले पदार्थों में अजर हैं-कभी जीर्ण होनेवाले नहीं। (अग्नि:) = अग्रणी हैं, सब से अग्र स्थान में स्थित हैं, हमें उन्नतिपथ पर ले चलते हैं । [२] ये हमें उन्नतिपथ पर तब ले चलते हैं, जब कि (निर्मथितः) = ज्ञान व श्रद्धा रूप अरणियों की रगड़ द्वारा प्रकट किए जाते हैं। 'ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत्' ध्यानरूप रगड़ द्वारा प्रभु का मन्थन होता है। इस रगड़ द्वारा ही वे प्रभु (सधस्थे) = जीव व प्रभु के साथ-साथ ठहरने के स्थान हृदय में (आसुधित:) = सर्वथा उत्तमता से स्थापित होते हैं। हृदयस्थ होकर ये प्रभु ‘युवा’=हमें बुराइयों से पृथक् करनेवाले तथा अच्छाइयों से मिलानेवाले हैं। बुराइयों से दूर करने के लिए ही (कविः) ='कौति सर्वाः विद्याः' सब ज्ञानों को देनेवाले हैं और ज्ञान देकर (अध्वरस्य प्रणेता) = यज्ञों का प्रणयन करनेवाले हैं- प्रभु हमें यज्ञों के मार्ग पर ले चलते हैं। ये यज्ञ ही हमारे अमृतत्त्व का कारण बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- अजर प्रभु उपासकों को भी अजर बनाते हैं।
विषय
अरणियों से अग्निवत् विवाद द्वारा सभाभवन में शास्त्र का सत्य निर्णय प्राप्त करना।
भावार्थ
(निर्मथितः) दो अरणियों के बीच में मथन करने से प्रकट होने वाला अग्नि जिस प्रकार (सधस्थे) यजमान के यज्ञ गृह में (सुधितः सन् अमृतं आदधे) उत्तम रीति से स्थापित होकर अमृत अर्थात् न नाश होने वाले सदा जागृत रूप को धारण करता है उसी प्रकार (सधस्थे) एकत्र सभासदों के विराजने के स्थान, सभाभवन में (निर्मथितः) विशेष, आलोड़न किये हुए ज्ञान सार को जानने वाला, शास्त्रज्ञ विद्वान् (सुधितः) उत्तम रीति से स्थापित होकर (अमृतम्) अमर, अविनाशी, सत्यमा स्थायी पद को (आधे) धारण करे। वह (युवा) बलवान् युवावस्थासम्पन्न, दानैश्वर्यों का विभाजक, (कविः) क्रान्तदर्शी, बुद्धिमान् (अध्वरस्य) नाशरहित एवं अहिंसामय प्रजापालनादि यज्ञ को (प्रणेता) उत्तम मार्ग से ले चलने हारा हो। वह (अग्निः) अग्रणी नायक, अग्नि के समान तेजस्वी होकर (जूर्यत्सु) स्वयं भस्म हो जाने वाले (वनेषु) वनों में या काष्ठों में अग्नि के समान, (जूर्यत्सु) वेगवान् (वनेषु) किरणों में (अजरः) अविनश्वर सूर्य के समान, वा (वनेषु अग्निः) जलों में विद्युत् के समान स्वयं (अजरः) जीवन की हानि न करता हुआ (अत्र) इस राष्ट्र में (जातवेदः) ज्ञान, ऐश्वर्य से युक्त होकर (अमृतं) सन्तति को गृहस्थ के समान (अमृतं) अमृत, यश, अन्नादि समृद्धि और राष्ट्र के स्थायी दीर्घ जीवन को (आधे) स्थापित करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
देवश्रवा देववातश्च भारतावृषी॥ अग्निर्देवता पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वान माणसांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
हे माणसांनो! कलायंत्र इत्यादींनी युक्त वाहनांमध्ये अत्यंत मंथन (प्रदीप्त) करून निघालेला अग्नी सर्व लोकांसाठी वाहनांना वेगाने चालवितो, हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Well produced by friction, well kindled and well managed in the home of yajna, Agni, jataveda, treasure house of wealth, youthful and unaging, catalytic creative light, leader of yajna, visionary maker, may, we pray, on the velocity of light rays, bear and bring nectar-like vitality and energy and sustain our yajnic programme of love and creative production.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The science and technology of Agni (energy) is taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That Agni (fire energy) should be known by all means, which is kindled at the levelled place with the fire-wood sticks, or otherwise duly placed (harnessed) in the machines etc. It disjoints the things, which are seen even from a distance, is impeller, imperishable and bringer of much wealth (when properly utilized). In its speedy rays uphold various technical dealings, and it plays amidst consuming forests. This fire upholds water (for accomplishing various works).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should know that fire (energy) when it is used in the vehicles with various machines, and in this way it is generated which helps in driving and moving of the vehicles speedily.
Foot Notes
(अध्वरस्य) अहिंसामयस्य शिल्पव्यवहारस्य | (अध्वरस्य ) ध्वराते हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध: ( N.R.T. 1, 8) = Of the technical non-violent dealing. (अमृतम् ) उदकम् । अमृतमिति उदकनाम । ( N. G. 1, 12) = Water. (जातवेदा:) जातानि वेदांसि धनानि यस्मात्स: । (जातवेदाः) वेद इति धननाम । (N. G. 2, 10 ) = The source of wealth.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal