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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अग्ने॒ सह॑स्व॒ पृत॑ना अ॒भिमा॑ती॒रपा॑स्य। दु॒ष्टर॒स्तर॒न्नरा॑ती॒र्वर्चो॑ धा य॒ज्ञवा॑हसे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । सह॑स्व । पृत॑नाः । अ॒भिऽमा॑तीः । अप॑ । अ॒स्य॒ । दु॒स्तरः॑ । तर॑न् । अरा॑तीः । वर्चः॑ । धाः॒ । य॒ज्ञऽवा॑हसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने सहस्व पृतना अभिमातीरपास्य। दुष्टरस्तरन्नरातीर्वर्चो धा यज्ञवाहसे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। सहस्व। पृतनाः। अभिऽमातीः। अप। अस्य। दुस्तरः। तरन्। अरातीः। वर्चः। धाः। यज्ञऽवाहसे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्मविषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं पृतनाः सहस्व अभिमातीरपास्य। दुष्टरस्त्वमरातीस्तरन् यज्ञवाहसे वर्चो धाः ॥१॥

    पदार्थः

    (अग्ने) वह्निवद्दुष्टानां दाहक (सहस्व) अभिभव तिरस्कुरु। सह अभिभव इत्यस्य प्रयोगः। (पृतनाः) शत्रुसेनाः (अभिमातीः) अभिमानयुक्तान् दुष्टान् विघ्नकारिणः (अप) (अस्य) दूरी कुरु (दुष्टरः) दुःखेन तरितुमुल्लङ्घयितुं जेतुं योग्यः (तरन्) उल्लङ्घयन् (अरातीः) शत्रून् (वर्चः) अन्नम्। वर्च इति अन्नना०। निघं० २। ७। (धाः) धेहि (यज्ञवाहसे) यज्ञस्य प्रापकाय ॥१॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैः स्वप्रजासेना बलवतीः कृत्वा दुष्टाञ्छत्रून्निवार्य्य प्रजावर्द्धनाय धनविद्योन्नतिः सततं कर्तव्या ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से राजधर्मविषय का उपदेश करते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य दुष्टजनों के दाहकर्ता वीर पुरुष ! आप (पृतनाः) शत्रुओं की सेनाओं का (सहस्व) तिरस्कार करो (अभिमातीः) अभिमानयुक्त विघ्नकारी दुष्टों को (अपास्य) दूर करो (दुष्टरः) कठिनता से उल्लङ्घन करने योग्य आप और (अरातीः) शत्रुओं को (तरन्) उल्लङ्घन करते हुए (यज्ञवाहसे) यज्ञ के प्राप्त करानेवाले के लिये (वर्चः) अन्न को (धाः) धारण कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि अपनी प्रजा और सेनाओं को बलयुक्त कर और दुष्ट शत्रुओं को राज्य से पृथक् करके प्रजा की वृद्धि के लिये धन और विद्या की निरन्तर उन्नति करें ॥१॥

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    विषय

    शत्रु-मर्षण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (पृतना:) = हमारे पर आक्रमण करनेवाले शत्रुसैन्यों को (सहस्व) = [षह मर्षणे] कुचलनेवाले होइये । इन शत्रुसैन्यों को हम अपनी शक्ति से सम्भवतः न जीत पाएँगे। आपकी शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर ही हम इनका विजय कर पाएँगे। इस विजय के उपरान्त उत्पन्न हो जानेवाली (अभिमाती:) = अभिमान की भावनाओं को (अपास्य) = हमारे से दूर करिए। इन काम-क्रोध आदि के विजय का कहीं हम गर्व न कर बैठें। [२] हे (दुष्टर:) = 'शत्रुओं से जिन आपकी शक्ति तैरी नहीं जा सकती' ऐसे आप ! (अरातीः) = इन सब शत्रुओं को (तरन्) = तैरते हुए, अर्थात् इन्हें संग्राम में पराजित करते हुए यज्ञवाहसे यज्ञशील पुरुष के लिए (वर्चः) = शक्ति को (धाः) = धारण करिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। प्रभुकृपा से हम कभी अभिमान के शिकार न हों। प्रभु ही हमें शक्ति देते हैं कि हम यज्ञात्मक कर्मों को कर सकें।

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    विषय

    वीर नायक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! नायक ! तू (अभिमातीः) आक्रमण करके हत्या करने वाले और अभिमान से पूर्ण, विघ्नकारी (पृतनाः) शत्रुसेनाओं को (अप-अस्य) दूर कर और (सहस्व) उनको पराजित कर। तू स्वयं (दुःस्तरः) शत्रुओं द्वारा विशाल सागर के समान दुस्तर या अलंध्य होकर और (अरातीः) कर न देने वाले शत्रुओं को (तरन्) साधता, पराजित करता हुआ (यज्ञ-वाहसे) तुझ से मित्रभाव, सत्संग, कर आदि देकर राजा प्रजा का सा सम्बन्ध करने वाले प्रजागण के उपकार के लिये तू (वर्चः) तेज, बल (धाः) धारण कर, उसको अन्न समृद्धि प्रदान कर (२) अध्यात्म में—परमेश्वर या विद्वान् (अभिमातीः पृतनाः) मनुष्य की अहंकारवृत्तियां दूर करे और (अरातीः) अदानशीलता वा लोभवृत्तियों को हटाकर (यज्ञवाहसे) उपास्य प्रभु या आत्मा को प्राप्त करने के लिये तेज को धारण करे करावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ निचृद्गायत्री। ३, ४, ५ गायत्री॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, राजा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी आपली प्रजा व सेना बलयुक्त करून दुष्ट शत्रूंना राज्यापासून पृथक करून प्रजेच्या वृद्धीसाठी धन व विद्येची निरंतर उन्नती करावी. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, fiery hero of the light of life, defeat the enemy force, throw off the insidious opponents. Unconquerable you are, cross over depression and adversities, rise and bring light and lustre to the sustainer and promoter of yajnic well-being.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O burner (smasher) of the wicked like the fire repel hostile hosts, and drive away all haughty wicked persons. O insuperable ! surprising all foes, give food to the initiators/performers of this non-violent sacrifice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the officers and workers of the State to make their armies strong to keep away their wicked enemy, and enhance wealth and knowledge constantly for their advancement.

    Foot Notes

    (अभिमाती:) अभिमानयुक्तान् दुष्टान् विघ्नकारिणः ।: (Stph. 3, 9, 4, 9, and 5, 2, 4, 16) = Haughty wicked persons putting obstacles in the performance of noble works. (वर्च:) अन्नम् वर्च इत्यित्रनाम (N.G. 2/7) = Food.

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