ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - ऋषभः
अग्ने॑ दि॒वः सू॒नुर॑सि॒ प्रचे॑ता॒स्तना॑ पृथि॒व्या उ॒त वि॒श्ववे॑दाः। ऋध॑ग्दे॒वाँ इ॒ह य॑जा चिकित्वः॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । दि॒वः । सू॒नुः । अ॒सि॒ । प्रऽचे॑ताः । तना॑ । पृ॒थि॒व्याः । उ॒त । वि॒श्वऽवे॑दाः । ऋध॑क् । दे॒वान् । इ॒ह । य॒ज॒ । चि॒कि॒त्वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने दिवः सूनुरसि प्रचेतास्तना पृथिव्या उत विश्ववेदाः। ऋधग्देवाँ इह यजा चिकित्वः॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। दिवः। सूनुः। असि। प्रऽचेताः। तना। पृथिव्याः। उत। विश्वऽवेदाः। ऋधक्। देवान्। इह। यज। चिकित्वः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्याग्निदृष्टान्तेन विद्वत्कृत्यमाह।
अन्वयः
हे चिकित्वोऽग्ने ! यथा दिवः सूनुः सूर्य्य इव प्रचेताः पृथिव्यास्तना उत विश्ववेदा असि स त्वमिह देवानृधग्यज ॥१॥
पदार्थः
(अग्ने) विद्वन् (दिवः) विद्युतः (सूनुः) सूर्य्यः (असि) (प्रचेताः) प्रकृष्टज्ञानयुक्तो विज्ञापको वा (तना) विस्तारकः (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (उत) अपि (विश्ववेदाः) यो विश्वं धनं विन्दति सः (ऋधक्) स्वीकारे (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (इह) अस्मिन्संसारे (यज) सङ्गमय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चिकित्वः) विज्ञानवन् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यस्सर्वेषां मूर्त्तिमद्द्रव्याणां प्रकाशकोऽस्ति तथा विद्वांसो विद्वत्प्रियाश्चेह सर्वेषामात्मनां प्रकाशका भवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले पच्चीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से सूर्यरूप अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों का कर्त्तव्य कहते हैं।
पदार्थ
हे (चिकित्वः) विज्ञानवान् (अग्ने) विद्वन् ! पुरुष जैसे (दिवः) बिजुली से (सूनुः) सूर्य्य के समान तेजस्वी (प्रचेताः) उत्तम विज्ञानयुक्त वा विज्ञानदाता (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के (तना) विस्तारक (उत) और भी (विश्ववेदाः) धनदाता (असि) हो वह आप (इह) इस संसार में (देवान्) विद्वान् वा उत्तम गुणों को (ऋधक्) स्वीकार करने में (यज) संयुक्त कीजिये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य संपूर्ण स्वरूपवाले द्रव्यों का प्रकाशक है, वैसे विद्वान् और विद्वानों से प्रेमकारी पुरुष इस संसार में सर्वजनों के आत्माओं के प्रकाशक होते हैं ॥१॥
विषय
दिवः सूनुः-पृथिव्याः तना
पदार्थ
[१] (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो! आप (दिवः सूनुः) = प्रकाश के पुञ्ज [पुतले व पुञ्ज] होंप्रकाश ही प्रकाश हो । (प्रचेता) = हमें प्रकृष्ट चेतना प्राप्त करानेवाले हो । (पृथिव्याः तना) = पृथिवी के तनय हैं- पृथिवी के पुत्र । दृढ़ता के पुञ्ज आप हैं [पृथिवी दृढ़ता या शक्ति विस्तार का प्रतीक है] (उत) = और (विश्ववेदाः) = सम्पूर्ण धनोंवाले हैं। आप मुझे भी 'ज्ञान का प्रकाश, शरीर में दृढ़ता तथा धन' प्राप्त कराते हैं। शरीर की दृढ़ता से मेरे में कार्य करने की शक्ति होती है, ज्ञान के प्रकाश में मैं मार्ग से भटकता नहीं तथा धन उन सब साधनों को जुटाने में मुझे क्षम करते हैं, जिनसे कि मैं उस उस कार्य को सिद्ध कर पाता हूँ। (२) हे चिकित्व:- हमारे सब रोगों की चिकित्सा करनेवाले प्रभो! आप इह इस जीवन में ऋधक्-पृथक्-पृथक्, उस उस स्थान में देवान् देवों को यजा= संगत करिए। चक्षु में सूर्य का निवास हो, नासिका में वायु का, मुख में अग्नि का, मन में चन्द्रमा का, पाँवों में पृथिवी का और इसी प्रकार मस्तिष्क में आकाश का । सब के सब देव मेरे शरीर में स्थित हों। इन देवों की अनुकूलता से मुझे पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त हो । भावार्थ- प्रभु मुझे 'ज्ञान, दृढ़ता व धन' प्राप्त कराएँ । मेरे शरीर में सब देवों का निवास हो ।
विषय
उत्तम सेनापति।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! तू (प्रचेताः) उत्तम ज्ञान और चित्त से युक्त और (विश्ववेदाः) सब प्रकार के धनों और ज्ञानों का स्वामी होकर (दिवः सूनुः असि) प्रकाश के प्रवर्त्तक सूर्य के समान-ज्ञान-प्रकाश का प्रवर्त्तक और (दिवः सूनुः) ज्ञान प्रकाशयुक्त आचार्य के पुत्र के समान (दिवः सूनुः) विजय कामना वाली सेना का सञ्चालक है। तू (पृथिव्याः तनः) पृथिवी के समान विशाल गुणों वाला, माता का पुत्र वा (पृथिव्याः तनाः) पृथिवी राज्य को विस्तार करने वाला हो। हे (चिकित्वः) ज्ञानवन् ! तू (इह) यहां, इस लोक में, (देवाः) सब धनैश्वर्य व सुख की कामन करने वाले पुरुषों को (यजः) ज्ञान सत्संग आदि उत्तम गुण ऐश्वर्यादि प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १, २, ३, ४ अग्निः। ५ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः- ९, निचृद्नुष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३, ४, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य सर्व स्वरूप द्रव्याचा प्रकाशक आहे तसे विद्वान व विद्वानांना प्रेम करणारे पुरुष या जगात सर्व लोकांच्या आत्म्याचे प्रकाशक आहेत. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, brilliant lord of knowledge, you are a child of the light of heaven, wide awake and universally aware, future of the extensive earth, scholar of world knowledge. Master of encyclopaedic learning, bring together the eminent and generous scholars of the world and distinctively serve and develop each one of the gifts of nature.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons are illustrated with sun and fire.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person or instructor ! you are like the sun or electricity, and endowed with deep knowledge, you know the objects of the earth and firmament and diffuse that knowledge. So unite the truthful and learned persons of divine virtues agreeably and harmoniously.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun is the illuminator of all visible objects, in the same manner, the enlightened persons or their admirers illuminate the souls of all with their wisdom and knowledge.
Translator's Notes
Prof. Wilson has translated into English as "Agni, who Omniscient and the discriminator (of acts) and thou art intelligent." Griffith has rendered into English as "Agni, who knowest all things, thou sage." Taking such epithets into consideration, Rishi Dayananda has taken Agni rightly in the sense of an enlightened person blessed with deep knowledge.
Foot Notes
(प्रचेता:) प्रकृष्टज्ञानयुक्तो विज्ञापको वा। = Blessed with deep knowledge, instructor. (दिव:)विद्युतः। = Of electricity of energy. (ऋक् ) स्वीकारे = Acceptably, agreeably or harmoniously.
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