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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॑ जु॒षस्व॑ नो ह॒विः पु॑रो॒ळाशं॑ जातवेदः। प्रा॒तः॒सा॒वे धि॑यावसो॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । जु॒षस्व॑ । नः॒ । ह॒विः । पु॒रो॒ळाश॑म् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । प्रा॒तः॒ऽसा॒वे । धि॒या॒व॒सो॒ इति॑ धियाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने जुषस्व नो हविः पुरोळाशं जातवेदः। प्रातःसावे धियावसो॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। जुषस्व। नः। हविः। पुरोळाशम्। जातऽवेदः। प्रातःऽसावे। धियावसो इति धियाऽवसो॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निविद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे धियावसो जातवेदोऽग्ने यथाऽग्निः प्रातःसावे नो हविः पुरोडाशं सेवते तथैव तत् त्वं जुषस्व ॥१॥

    पदार्थः

    (अग्ने) वह्निरिव वर्त्तमान (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (हविः) अत्तुं योग्यम् (पुरोडाशम्) संस्कृतान्नविशेषम् (जातवेदः) जातप्रज्ञान (प्रातःसावे) प्रातःसवने (धियावसो) यो धिया प्रज्ञया सुकर्मणा वा वासयति तत्सम्बुद्धौ ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा प्रातरग्निहोत्रादिषु वेद्यां निहितोऽग्निर्घृतादिकं संसेव्यान्तरिक्षे प्रसार्य सुखयति तथैव ब्रह्मचर्ये प्रवृत्ता विद्यार्थिनो विद्याविनयौ सङ्गृह्य जगति प्रसार्य सर्वान् सुखयेयुः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले अट्ठाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से अग्नि और विद्वानों का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे (धियावसो) उत्तम बुद्धि वा उत्तम गुणों के प्रचारकर्त्ता (जातवेदः) सकल उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष ! जैसे अग्नि (प्रातःसावे) प्रातःकाल के अग्निहोत्र आदि कर्म में (नः) हमारे (हविः) भक्षण करने योग्य (पुरोडाशम्) मन्त्रों से संस्कारयुक्त अन्न विशेष का सेवन करते हैं, वैसे इसका आप (जुषस्व) सेवन करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि कर्मों में वेदी में स्थापित किया गया अग्नि घृत आदि का सेवन तथा उसको अन्तरिक्ष में फैलाय के जनों को सुख देता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य्यधर्म्म में वर्त्तमान विद्यार्थी जन विद्या और विनय का ग्रहण कर संसार में उनका प्रचार करके सकल जनों को सुख देवें ॥१॥

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    विषय

    हवि+पुरोडाश

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारा (हविः) = यह दानपूर्वक अदन (जुषस्व) = आपके लिए प्रीतिकर हो [जुष्-take delight in]। जैसे पुत्र को पढ़ने में व्यस्त देखकर पिता को प्रसन्नता होती है, इसी प्रकार हमारा यह यज्ञशेष का सेवन आपके लिये प्रीतिकर हो। हमें यज्ञमग्न देखकर आपको हम प्रिय लगें । यह यज्ञशेष का सेवन ही तो उन्नति का मार्ग है। [२] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ- सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान देनेवाले प्रभो! आप (पुरोडाशम्) = [पुर: दाश्यते] हमारे इस वेदाध्ययन-ज्ञानप्राप्ति को देखकर प्रसन्न होइये। सृष्टि के प्रारम्भ में यह वेदज्ञान दिया गया है। इससे इसका नाम 'पुरोडाश' पड़ गया है। यह पुरोडाश आपको प्रसन्न करे। हम प्रतिदिन प्रात: इसका अध्ययन करें। हमारे जीवन का प्रातः काल, अर्थात् प्रथम २४ वर्ष तो इसके अध्ययन में ही व्यतीत हों । हे (धियावसो) = बुद्धिपूर्वक कर्मों से वसुओं को धनों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! आपकी कृपा व प्रेरणा से (प्रातःसावे) = इस जीवन के प्रातः सवन में हम 'हवि' और 'पुरोडाश्' का ही ध्यान करें, दानपूर्वक अदन करनेवाले, यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें और सृष्टि के आरम्भ में आपसे दिये गये इस वेदज्ञान को अपनाएँ। हमारे ये दोनों काम आप के लिए प्रिय हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जीवन के प्रातः सवन में यज्ञशेष का सेवन व वेदाध्ययन करते हुए प्रभु के प्रिय हों।

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    विषय

    अग्नि शिष्य का कर्त्तव्य वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! हे (जातवेदः) उत्तम विज्ञान को प्राप्त करने हारे ! हे (धियावसो) ज्ञान और उत्तम कर्म या व्रताचरण का पालन करते हुए, अपने अधीन शिष्यों को बसाने वाले आचार्य एवं आचार्य के अधीन स्वयं बसने वाले शिष्य ! (प्रातःसावे) प्रातःकल यज्ञकाल में जिस प्रकार (नः पुरोडाशं हविः) हमारे पुरोडाश को अग्नि अग्निहोत्र काल में लेता है उसी प्रकार तू भी (प्रातःसावे) प्रभात के तुल्य जीवन के प्रथम काल, ब्रह्मचर्य आश्रम में (नः) हमारे (हविः) ग्रहण करने योग्य अन्न के समान ही उपदेशयोग्य (पुरोडाशम्) आगे सन्मुस्त्र बैठे शिष्य को देने योग्य ज्ञान को (जुषस्व) प्रेम से ग्रहण कर अन्यों को ग्रहण करा। (२) कर्म और बुद्धि से वसु धनैश्वर्य का दाता, गृहीता वा कर्मानुसार, प्रज्ञानुसार धन देने वाला स्वामी ‘धियावसु’ है। वह आदरपूर्वक दिये गये अन्न, कर आदि को स्वीकार करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ गायत्री। २, ६ निचृद्गायत्री। ३ स्वराडुष्णिक्। ४ त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे प्रातःकाळी अग्निहोत्रात स्थापन केलेला अग्नी घृत इत्यादींचे सेवन करून त्याला अंतरिक्षात पसरवितो व लोकांना सुख देतो, तसेच ब्रह्मचर्य धर्मात असलेल्या विद्यार्थ्यांनी विद्या व विनय संग्रहित करून त्याचा जगात प्रचार करून सगळ्या लोकांना सुख द्यावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of universal knowledge, wisdom and vision, inspiration for the refinement, expansion and elevation of intelligence, pray accept our homage of delicious food and fragrance in the morning session of yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni (fire) and enlightened persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned wise person you make the people to dwell with wisdom and good actions, and shine like the fire. As the fire accepts the oblations of PURODĀSHA (a kind of cake with butter, and well-cooked food), so you should also take it with pleasure at the morning session of the Yajna.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the fire placed at the altar of Yajna in morning takes ghee (clarified butter) etc. and it extends and expands it to the firmament and thus makes all happy. In the same manner, the Brahmacharis should make all happy by acquiring knowledge and cultivating humility and spreading them far and wide.

    Foot Notes

    (जातवेद:) जातप्रज्ञान। =Highly learned person. (धियावसो) योधियाप्रज्ञया सुकर्मणा वा वासयति तत्सम्बुद्धौ | धीरिति कर्मनाम (N.G. 2,1)। = Making others to dwell with wisdom and good action.

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