ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग॑च्छदु॒ विप्र॑तमः सखी॒यन्नसू॑दयत्सु॒कृते॒ गर्भ॒मद्रिः॑। स॒सान॒ मर्यो॒ युव॑भिर्मख॒स्यन्नथा॑भव॒दङ्गि॑राः स॒द्यो अर्च॑न्॥
स्वर सहित पद पाठअग॑च्छत् । ऊँ॒ इति॑ । विप्र॑ऽतमः । स॒खि॒ऽयन् । असू॑दयत् । सु॒ऽकृते॑ । गर्भ॑म् । अद्रिः॑ । स॒सान॑ । मर्यः॑ । युव॑ऽभिः । म॒ख॒स्यन् । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । अङ्गि॑राः । स॒द्यः । अर्च॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अगच्छदु विप्रतमः सखीयन्नसूदयत्सुकृते गर्भमद्रिः। ससान मर्यो युवभिर्मखस्यन्नथाभवदङ्गिराः सद्यो अर्चन्॥
स्वर रहित पद पाठअगच्छत्। ऊँ इति। विप्रऽतमः। सखिऽयन्। असूदयत्। सुऽकृते। गर्भम्। अद्रिः। ससान। मर्यः। युवऽभिः। मखस्यन्। अथ। अभवत्। अङ्गिराः। सद्यः। अर्चन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कः पुमान् सुखदो भवतीत्याह।
अन्वयः
यो मर्यो युवभिः सह वर्त्तमानो सखीयन् मखस्यन्नथाङ्गिराः सद्योऽर्चन् विप्रतमस्तां भार्य्यामगच्छत् सोऽद्रिर्गर्भमिव सुकृतेऽभवत् सत्याऽसत्ये ससान उ दुष्कृतमसूदयत् ॥७॥
पदार्थः
(अगच्छत्) प्राप्नुयात् (उ) वितर्के (विप्रतमः) अतिशयेन मेधावी (सखीयन्) आत्मनः सखायमिच्छन् (असूदयत्) सूदयत् क्षरयेत् (सुकृते) सुष्ठु कृतेऽनुष्ठिते (गर्भम्) गर्भमिव वर्त्तमानं जलसमुदायम् (अद्रिः) मेघः (ससान) सनति विभजति (मर्य्यः) मनुष्यः (युवभिः) प्राप्तयुवाऽवस्थैः (मखस्यन्) आत्मनो मखं यज्ञमिच्छन् (अथ) आनन्तर्ये (अभवत्) भवेत् (अङ्गिराः) अङ्गेषु रसवद्वर्त्तमानः (सद्यः) शीघ्रम् (अर्चन्) सत्कुर्वन् ॥७॥
भावार्थः
यो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे सङ्गृह्य युवा सन् स्वतुल्यया कन्यया सह सुहृद्भावं प्रीतिं प्राप्य तां सत्कुर्वन्नुपयच्छेत्स मेघाज्जगदिव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन पुरुष सुख देनेवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (मर्य्यः) मनुष्य (युवभिः) युवावस्थापन्न पुरुषों के सहित वर्त्तमान (सखीयन्) मित्र को चाहता वा (मखस्यन्) आत्मसम्बन्धी यज्ञ करने की इच्छा करता हुआ (अथ) उसके अनन्तर (अङ्गिराः) शरीरों में रस के सदृश वर्त्तमान (सद्यः) शीघ्र (अर्चन्) सत्कार करता हुआ (विप्रतमः) अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष उस स्त्री के समीप (अगच्छत्) प्राप्त होवे वह पुरुष (अद्रिः) मेघ जैसे (गर्भम्) गर्भ को वैसे (सुकृते) उत्तम कर्म के करने में उद्यत (अभवत्) होवे तथा सत्यासत्य का (ससान) विभाग करता है (उ) और भी निकृष्ट कर्म को (असूदयत्) नाश करे ॥७॥
भावार्थ
जो ब्रह्मचर्य्य से विद्या और उत्तम शिक्षा को ग्रहण करके युवा पुरुष अपने तुल्य कन्या के साथ सुहृद्भाव और प्रीति को प्राप्त हो के उसको सत्कार करता हुआ विवाहै, वह पुरुष जैसे मेघ से संसार सुख को प्राप्त होता है, वैसे सुख को प्राप्त होवे ॥७॥
विषय
प्रभु का मित्र कौन ?
पदार्थ
[१] (विप्रतमः) = ज्ञानी पुरुष (उ) = निश्चय से (सखीयन्) = प्रभु से मित्रता की कामना करता हुआ सखा प्रभु को अपनाना चाहता हुआ (अगच्छत्) = गति करता है। इसके सब कार्य इस दृष्टिकोण से होते हैं कि यह प्रभु को प्रीणित कर सके। [२] (अद्रिः) = [one who adores] यह प्रभु का है। पूजन करनेवाला (सुकृते) = उत्तम कर्मों के होने पर [कृतं कर्म] (गर्भम्) = उस सबके अन्दर निवास करनेवाले प्रभु को (असूदयत्) = अपने अन्दर प्रेरित करता है, अर्थात् यह प्रभु को अपने अन्दर देखने के लिए यत्नशील होता है । [३] (मर्यः) = यह आसुरवृत्तियों को नष्ट करनेवाला मनुष्य (युवभिः) = अपने युवा सन्तानों के साथ (मखस्यन्) = यशों की कामना करता हुआ (ससान) = उस प्रभु का सम्भजन करता है। (अथ) = अब यह (अर्चन्) = प्रभु-पूजन करता हुआ (सद्यः) = शीघ्र ही (अंगिराः अभवत्) = अंगप्रत्यंग में रसवाला होता है। इसका शरीर सूखे काठ की तरह जीवनीशक्ति से शून्य नहीं हो जाता।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुमि की कामनावाला, [क] ज्ञान प्राप्त करता है, [ख] उत्तम कर्मों को करता है, [ग] सन्तानों के साथ यज्ञादि में प्रवृत्त होता है और [घ] अंग-प्रत्यंग में जीवनीशक्ति से परिपूर्ण होता है।
विषय
मेघ और रत्नगर्भ पाषाणवत् विद्वान् का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(विप्रतमः) सब से अधिक विद्वान् पुरुष (सखीयन्) सबको अपना मित्र बनाने की इच्छा करता हुआ (अगच्छत्) प्राप्त हो। और (अद्रिः गर्भम्) जिस प्रकार मेघ अपने गर्भ में स्थित जल को (सुकृते असूदयत्) शुभ अन्नोत्पत्ति के लिये दूसरों पर बरसा देता है और (अद्रिः गर्भम् सुकृते असूदयत्) जिस प्रकार पर्वत वा पाषाण खण्ड अपने भीतर के मणिमुक्ता, जल आदि पदार्थ उत्तम शिल्पी पुरुष के लाभ के लिये उत्पन्न कर देता है उसी प्रकार वह विद्वान् पुरुष भी (अद्रिः) मेघवत् उदार और पर्वत के समान अचल होकर भी (सुकृते) अन्यों के सुख उत्पन्न करने के लिये या (सुकृते) उत्तम धर्माचरण करने वाले शिष्य जन के उपकार के लिये (गर्भम्) अपने भीतर के ज्ञान को (असूदयत्) उत्तम जलों के समान प्रवाहित करे, ज्ञानस्रोत को बहादे। (मर्यः) उत्तम पुरुष (युवभिः) युवा, बलवान् पुरुषों सहित (मखस्यन्) ज्ञान यज्ञ का सम्पादन करता हुआ (ससान) ज्ञान का दान और विभाग करे। (अथ) और (अंगिराः) अग्नि के समान तेजस्वी होकर (सद्यः) शीघ्र ही (अर्चन्) अन्यों से पूजनीय (अभवद्) हो जावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो तरुण पुरुष ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या व उत्तम शिक्षण ग्रहण करून आपल्यासारख्याच स्त्रीबरोबर सुहृदभाव व प्रीतीने विवाह करतो तो पुरुष मेघ जसा जगाला सुखी करतो, तसे सुख प्राप्त करतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the man of knowledge and wisdom, inspired for action go forward with friends and comrades and break the cloud to bring down the held up showers of rain for the people of yajnic action. Let the man, himself desirous of yajna, share life and action with the youth and, always loving and respecting others, be one with them like the life-blood flowing in the nation’s veins.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of man, the giver of happiness is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The wisest man enjoying the company of the youthful persons, desirous of friendship and performing the Yajna (non-violent sacrifice) are dear like the sap in the organs in the body. He shows due respect to the approaches to a learned and virtuous lady (when united with her in wedlock). He shares with her in all good works like the water in the cloud, which is like an embryo. He distinguishes between truth and falsehood and drives away all evils.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A young man having acquired wisdom and good education by the observance of Brahmacharya, marries a girl matching him and treats her with love as a friend and duly respects her. He enjoys all happiness as the world gets delight from the clouds.
Foot Notes
(गर्भम्) गर्भमिव वर्तमानं जलसमुदायम्। = The store of water in the clouds lying like an embryo (ससान) सनति विभजति। = Divides or shares. (अङगिरा:) अङ्गेषु रसवर्तमानः । (अंगिरा) प्राणोवा अङ्गिरा (Stph 6, 1, 2, 28, 5, 2, 3, 4)= Being dear like the sap in the organs of the body. (मखस्यन्) आत्मनो मखं यज्ञम् इच्छन् । = Desirous of performing Yajnas.
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