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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रः॑ पू॒र्भिदाति॑र॒द्दास॑म॒र्कैर्वि॒दद्व॑सु॒र्दय॑मानो॒ वि शत्रू॑न्। ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा॑ वावृधा॒नो भूरि॑दात्र॒ आपृ॑ण॒द्रोद॑सी उ॒भे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । पूः॒ऽभित् । आ । अ॒ति॒र॒त् । दास॑म् । अ॒र्कैः । वि॒दत्ऽव॑सुः । दय॑मानः । वि । शत्रू॑न् । ब्रह्म॑ऽजूतः । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒धा॒नः । भूरि॑ऽदात्रः । आ । अ॒पृ॒ण॒त् । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः पूर्भिदातिरद्दासमर्कैर्विदद्वसुर्दयमानो वि शत्रून्। ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्र आपृणद्रोदसी उभे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। पूःऽभित्। आ। अतिरत्। दासम्। अर्कैः। विदत्ऽवसुः। दयमानः। वि। शत्रून्। ब्रह्मऽजूतः। तन्वा। ववृधानः। भूरिऽदात्रः। आ। अपृणत्। रोदसी इति। उभे इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे राजपुरुष ! यथा सूर्य उभे रोदसी आपृणत्तथा विदद्वसुर्ब्रह्मजूतो दासं दयमानस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्रः पूर्भिदिन्द्रो भवानर्कैः शत्रून् व्यातिरत् ॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (पूर्भित्) पुरां भेत्ता (आ) (अतिरत्) उल्लङ्घयतु (दासम्) दातुं योग्यम् (अर्कैः) अर्चनीयैर्मन्त्रैर्विचारैः (विदद्वसुः) विदन्ति वसूनि येन सः (दयमानः) कृपालुः सन् (वि) (शत्रून्) (ब्रह्मजूतः) धनानि प्राप्तः (तन्वा) शरीरेण (वावृधानः) वर्धमानः (भूरिदात्रः) भूरि बहुविधं दात्रं दानं यस्य सः (आ) (अपृणत्) प्रपूरयेत् (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव विद्याविनयौ (उभे) ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः स्वकीयैः किरणैर्भूम्यन्तरिक्षे पूर्त्वाऽन्धकारं जयति तथैवाप्तैः सह कृतैर्विचारैः शत्रून् जयेत्सर्वदा शरीरात्मबलं वर्धयित्वा श्रेष्ठान् सत्कृत्य दुष्टान् पराभवेत् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले ३४ चौतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से सूर्य के गुणों का उपदेश करते हैं।

    पदार्थ

    हे राजपुरुष ! जैसे सूर्य्य (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के तुल्य विद्या और विनय को (आ) (अपृणत्) पूर्ण करै वैसे (विदद्वसुः) धनों से संपन्न (ब्रह्मजूतः) धनों को प्राप्त (दासम्) देने योग्य पर (दयमानः) कृपालु (तन्वा) शरीर से (वावृधानः) वृद्धि को प्राप्त होते हुए (भूरिदात्रः) अनेक प्रकार के दान देने (पूर्भित्) शत्रुओं के नगरों को तोड़ने और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के रखनेवाले आप (अर्कैः) आदर करने योग्य विचारों से (शत्रून्) शत्रुओं का (वि, आ, अतिरत्) उल्लङ्घन करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अपने किरणों से भूमि और अन्तरिक्ष को पूर्ण करके अन्धकार को जीतता है, वैसे ही श्रेष्ठ और ऐक्यमत युक्त विचारों से शत्रुओं को जीतै तथा सब काल में शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाये और श्रेष्ठ पुरुषों को सत्कार करके दुष्ट जनों का अपमान करैं ॥१॥

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    विषय

    'पूर्भित्' इन्द्र

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय धीर (पूर्भित्) = असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाला होता है। 'काम' ने इन्द्रियों में अपने दुर्ग को बनाया है, 'क्रोध' ने मन में तथा 'लोभ' ने बुद्धि में । इन्द्र इन तीनों दुर्गों का विदारण करके असुरों की पुरियों का ध्वंस कर डालता है। यह (दासम्) = [दसु उपक्षये] हमारा उपक्षय करनेवाली इस वासनावृत्ति को (अर्कैः) = प्रभु की उपासनाओं द्वारा (आतिरत्) = हिंसित करता है। जहाँ प्रभु, वहाँ इस वासना का स्थान नहीं रहता। यह काम का विध्वंस करके (विदद्वसुः) = सब निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त करनेवाला बनता है। (शत्रून् विदयमानः) = काम आदि व रोग आदि सब शत्रुओं को यह हिंसित करता है। [२] शत्रुओं को हिंसित करके यह (ब्रह्मजूतः) = उस प्रभु से प्रेरित होता है। अन्धकार के विनाश से यह अन्त:प्रेरणा को सुन पाता है। इस प्रेरणा के अनुसार चलता हुआ यह तन्वा अपने शरीर से (वावृधान:) = निरन्तर बढ़ता हुआ होता है। इसकी सब शक्तियों का ठीक प्रकार से विकास होता है। (भूरिदात्र:) = [दात्रं - लवन साधनं आयुधं] यह अत्यन्त ही शत्रु-संहारक अस्त्रोंवाला होता है। अथवा अत्यन्त [दात्रं दानं] दान देनेवाला होता है। दान ही वस्तुतः बुराईयों को विध्वस्त करनेवाला आयुध है । [३] सब बुराइयों को दूर करके यह (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को मस्तिष्क व शरीर को (आ अपृणत्) = सर्वतः तृप्त करता है। उनकी कमियों को दूर करके इनका पूरण करता है। शरीर को स्वस्थ, मस्तिष्क को दीप्त बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर, वासनाओं का विध्वंस करते हुए, शरीर व मस्तिष्क को शक्ति व दीप्ति से युक्त करें।

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    विषय

    वीर राजा के कर्त्तव्य। शत्रु नाश, स्वपक्षपोषण, प्रजा पालन ।

    भावार्थ

    (पूर्भिद्) शत्रुनगरों को तोड़ने हारा (इन्द्रः) शत्रुनाशक सेनापति सूर्य के समान तेजस्वी होकर (अर्कैः) किरणों से अन्धकार के समान अपने अर्चनीय आदर योग्य उत्तम २ मन्त्रणाओं से (दासम्) अपने सेवक को (अतिरत्) बढ़ावे और (अर्कैः दासम् अतिरत्) तेजों से प्रजा के नाश करने वाले शत्रु का नाश करे। वह (विदद्वसुः) बसने वाली प्रजाओं से बसे राष्ट्र और ऐश्वर्य को प्राप्त करके (दयमानः) प्रजा पर दया, रक्षा करता हुआ और (शत्रून् दयमानः) अपने राष्ट्र बल का नाश करने वाले शत्रु जनों का नाश करता हुआ, (ब्रह्मजूतः) ब्राह्मण वर्ग और धनों से युक्त होकर (तन्वा) अपने शरीर और विस्तृत राष्ट्र बल से (वावृधानः) बढ़ता हुआ (भूरिदात्रः) बहुत अधिक दानशील और शत्रुनाशक होकर (उभे रोदसी) दोनों लोकों को सूर्य के समान स्वपक्ष और परपक्ष दोनों का (आ अपृणात्) पालन करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सूर्य, विद्युत, वीर, राज्य, राजाची सेना व प्रजेचे गुणवर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या किरणांनी भूमी व अंतरिक्षातील अंधकार नष्ट करतो, तसेच श्रेष्ठ व योग्य विचाराने शत्रूंना जिंकावे. सदैव आत्मा व शरीराचे बल वाढवून श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करून दुष्ट लोकांचा पराभव करावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler of the world, overcomes the hostile forces with light and thought and the power of persuasion. He opens and expands the cities bound in the dark and, abundant and charitable as he is, relieves and rehabilitates the helpless poor. Inspired by divinity and universal vision, rising and expanding in body and mind with plenty and prosperity, merciful and freely giving, he fills both heaven and earth with light and joy-

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the sun are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O officer of the State ! as the sun fills with its radiance two worlds of the earth and the heaven (sky), in the same manner, you blessed with the wealth and knowledge, are kind towards your servants (who deserve attention). Growing physically, you are liberal donor, the destroyer of the towns and cities of the enemies (strongholds ). You conquer your adversaries with admirable ideas and consultations with the experienced persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun having pervaded the earth and the heaven overcomes darkness by its rays, in the same manner; Indra (a king or commander of the army) should conquer his enemies with the formulated plans, after consultation with the experienced and enlightened persons. He should also ever increase the strength of the body and soul of honorable persons and defeat the wicked.

    Foot Notes

    (अर्कै:) अर्चनीयैर्मन्त्रैविचारै: = With admirable mantras thoughts or plans. अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति (NRT 5, 1, 4) (अतिरत् ) उल्लघङ्यतु । Overcome.

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