ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तिष्ठा॒ हरी॒ रथ॒ आ यु॒ज्यमा॑ना या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छ॑। पिबा॒स्यन्धो॑ अ॒भिसृ॑ष्टो अ॒स्मे इन्द्र॒ स्वाहा॑ ररि॒मा ते॒ मदा॑य॥
स्वर सहित पद पाठतिष्ठ॑ । हरी॒ इति॑ । रथे॑ । आ । यु॒ज्यमा॑ना । या॒हि । वा॒युः । न । नि॒ऽयुतः॑ । नः॒ । अच्छ॑ । पिबा॑सि । अन्धः॑ । अ॒भिऽसृ॑ष्टः । अ॒स्मे इति॑ । इन्द्र॑ । स्वाहा॑ । र॒रि॒म । ते॒ । मदा॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिष्ठा हरी रथ आ युज्यमाना याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छ। पिबास्यन्धो अभिसृष्टो अस्मे इन्द्र स्वाहा ररिमा ते मदाय॥
स्वर रहित पद पाठतिष्ठ। हरी इति। रथे। आ। युज्यमाना। याहि। वायुः। न। निऽयुतः। नः। अच्छ। पिबासि। अन्धः। अभिऽसृष्टः। अस्मे इति। इन्द्र। स्वाहा। ररिम। ते। मदाय॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।
अन्वयः
हे इन्द्र राजँस्त्वं यस्मिन्रथे युज्यमाना हरी इव जलाग्नी वर्त्तेते तस्मिन्नातिष्ठ तेन वायुर्न नियुतो नोऽस्मानच्छ याहि। अभिसृष्टः सँस्तेऽस्मे यदन्धो मदाय ररिम तत्स्वाहा पिबासि ॥१॥
पदार्थः
(तिष्ठ)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हरी) अश्वौ (रथे) (आ) समन्तात् (युज्यमाना) संयुक्तौ (याहि) गच्छ (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) श्रेष्ठैर्मिश्रितान् दुष्टैर्वियुक्तान् (नः) अस्मान् (अच्छ) सम्यक् (पिबासि) पिबेः (अन्धः) सुसंस्कृतमन्नम् (अभिसृष्टः) अभिमुख्येन प्रेरितः (अस्मे) अस्मासु (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (स्वाहा) सत्यया वाचा (ररिम) दद्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (ते) तुभ्यम् (मदाय) आनन्दाय ॥१॥
भावार्थः
ये मनुष्या अग्न्यादिपदार्थचालिरथे स्थित्वा देशान्तरं वायुवद्गच्छन्ति ते पुष्कलानि भक्ष्यभोज्यपेयचूष्यानि प्राप्नुवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले पैंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! आप जिस (रथे) रथ में (युज्यमाना) जुड़े हुए (हरी) घोड़ों के सदृश जल और अग्नि वर्त्तमान हैं उस रथ में (आ) सब प्रकार (तिष्ठ) वर्त्तमान हूजिये इससे (वायुः) पवन के (न) तुल्यः (नियुतः) श्रेष्ठ पुरुषों के साथ मिले और दुष्ट पुरुषों से अनमिले (नः) हम लोगों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये और (अभिसृष्टः) सन्मुख प्रेरित होता हुआ जन (ते) आपके लिये (अस्मे) हमारे निकट से (अन्धः) उत्तम प्रकार संस्कार किये हुए अन्न को (मदाय) आनन्द के अर्थ (ररिम) देवैं उसका (स्वाहा) सत्य वाणी से (पिबसि) पान कीजिये ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों से चलनेवाले रथ पर चढ़ के अन्य-अन्य देशों को वायु के सदृश जाते हैं, वे बहुत भक्षण भोजन करने पीने और चूषने योग्य पदार्थों को प्राप्त होते हैं ॥१॥
विषय
आत्मवश्य इन्द्रियों से कार्यों में प्रवृत्त होना
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (रथे) = इस शरीर-रथ में आयुज्यमाना जोते जाते हुए हरी इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को तिष्ठा अधिष्ठित कर इन इन्द्रियाश्वों का तू अधिष्ठाता हो। (न) = जैसे (वायुः) = वायु देवता (नियुतः) = अपने नियुत् नामक घोड़ों पर अधिष्ठित होता है। वायुदेव अपने घोड़ों पर अधिष्ठित हुआ हुआ निरन्तर चल रहा है। तू भी आत्मवश्य इन्द्रियों से सतत कार्य करनेवाला हो। इन पर अधिष्ठित होकर तू (नः) = हमारी (अच्छ) = ओर (आयाहि) = आ। [२] तू (अन्धः) = सोम का (पिबासि) = पान करता है- सोम को अपने अन्दर सुरक्षित करता है । (अस्मे) = हमारे लिए (अभिसृष्टः) = अभिसृष्ट होता है हमारी ओर आनेवाला होता है। इस सोम के रक्षण से उस सोम की प्राप्ति होती ही है। हे इन्द्र ! (स्वाहा) = यह उत्तम वाणी कही गई है [सु आह] (ते मदाय ररिमा) = तेरे हर्ष के लिए हमने इस सोम को तेरे लिए दिया है। इसके रक्षण से शरीर, मन व बुद्धि का स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इस स्वास्थ्य से मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम आत्मवश्य इन्द्रियों से सदा कर्म में प्रवृत्त रहें। सोम (वीर्य) का रक्षण करते हुए प्रभु की ओर गतिवाले हों। सुरक्षित सोम, स्वास्थ्य प्राप्ति द्वारा, आनन्द देनेवाला होता है।
विषय
वीर राजा की युद्ध यात्रा।
भावार्थ
हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! तू (युज्यमाना) रथ में लगे (हरी) घोड़ों को वश करके (रथे आ तिष्ठ) रथ पर सवार हो। तू (वायुः न) वृक्षों को वायु के समान शत्रुओं को बलपूर्वक उखाड़ने में समर्थ होकर (नः) हमारे (नियुतः) नियुक्त अश्वसेनाओं को वश करके (अच्छ) अच्छी प्रकार (याहि) युद्धयात्रा कर। तू (अभिसृष्टः) आक्रमण करता हुआ (अस्मे) हमारे (अन्धः) अन्नादि ऐश्वर्य को (पिबासि) पालन और उपभोग कर। हम यह सब (ते मदाय) तेरी प्रसन्नता और हर्ष की वृद्धि के लिये तुझे (स्वाहा) उत्तम, सत्य वाणी से (ररिम) प्रदान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी इत्यादी पदार्थ व घोड्याच्या दृष्टान्ताचा उपदेश करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी चालणाऱ्या रथात बसून निरनिराळ्या देशांमध्ये वायूप्रमाणे जातात. त्यांना भक्षण, भोजन, पान व चोखण यासाठी योग्य पदार्थ प्राप्त होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the world, ride the chariot drawn by horse power of water and fire and come straight to us like the wind in all your glory in good company. Come and partake of the holy food we offer in faith and truth of word and deed in homage for your joy and entertainment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! You possess much wealth and stay in your chariot/car having yoked water and fire which are like the horses. Come to us who are in the company of the noble persons and are very far away from the wicked like the air. We request you to drink the juice prepared with reverence and truth for your exhilaration of the invigorating herbs.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who sitting in the conveyances driven by fire and other energy elements, go to distant countries by the air. They get all sorts of good edibles and drinks.
Foot Notes
(हरी) अश्वो जलाग्नी। = Horses in the form of the water and fire, (नियुतः) श्रेष्ठे मिश्रितान् दुष्टैर्वियुक्तान् । = Associated with the best persons and dissociated from the wicked. (अन्धः ) सुसंस्कृतम् परमैश्वर्ययुक्त | अन्ध इत्यन्न नाम (NG 2, 7 ) = Well cooked food. (स्वाहा.) सत्यया वाचा । = With truthful speech. (हरी) अश्वौ दूरहरणाशीली जलानी अथवा रोगहरणाशीलौ । = Fire and water annihilators of diseases.
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