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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मामू॒ षु प्रभृ॑तिं सा॒तये॑ धाः॒ शश्व॑च्छश्वदू॒तिभि॒र्याद॑मानः। सु॒तेसु॑ते वावृधे॒ वर्ध॑नेभि॒र्यः कर्म॑भिर्म॒हद्भिः॒ सुश्रु॑तो॒ भूत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इमाम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्रऽभृ॑तिम् । सा॒तये॑ । धाः॒ । शश्व॑त्ऽशश्वत् । ऊ॒तिऽभिः॑ । याद॑मानः । सु॒तेऽसु॑ते । व॒वृ॒धे॒ । वर्ध॑नेभिः । यः । कर्म॑ऽभिः । म॒हत्ऽभिः॑ । सुऽश्रु॑तः । भूत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमामू षु प्रभृतिं सातये धाः शश्वच्छश्वदूतिभिर्यादमानः। सुतेसुते वावृधे वर्धनेभिर्यः कर्मभिर्महद्भिः सुश्रुतो भूत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम्। ऊँ इति। सु। प्रऽभृतिम्। सातये। धाः। शश्वत्ऽशश्वत्। ऊतिऽभिः। यादमानः। सुतेऽसुते। ववृधे। वर्धनेभिः। यः। कर्मऽभिः। महत्ऽभिः। सुऽश्रुतः। भूत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्याः केनाचरणेन सुखामाप्नुयुरित्याह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यो विद्यां यादमानस्त्वमूतिभिः सातय इमां प्रभृतिं शश्वच्छश्वद्वस्तु च सु धा वर्द्धनेभिर्महद्भिः कर्मभिः सुतेसुते वावृधे स उ सुश्रुतो भूत् ॥१॥

    पदार्थः

    (इमाम्) (उ) वितर्के (सु) शोभने (प्रभृतिम्) प्रकृष्टां धारणाम् (सातये) संविभागाय (धाः) दध्याः (शश्वच्छश्वत्) व्यापकं व्यापकं वस्तु (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (यादमानः) याचमानः। अत्र वर्णव्यत्ययेन चस्य दः। (सुतेसुते) निष्पन्ने निष्पन्ने पदार्थे (वावृधे) वर्धेत (वर्धनेभिः) वर्धकैः साधनैः (यः) (कर्मभिः) कर्त्तुरीप्सिततमैः (महद्भिः) (सुश्रुतः) शोभनं श्रुतं यस्य सः (भूत्) भवेत्। अत्राडभावः ॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या कार्य्यविज्ञानमारभ्य परस्परं सूक्ष्मकारणपर्य्यन्तं विभुं पदार्थं विज्ञाय उपयुञ्जीरन् तेऽत्र जगति वर्धेरन्। ये विद्वद्भ्यो विद्यामेव याचन्ते ते बहुश्रुतो जायन्ते ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले छत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र से मनुष्य किस प्रकार के आचरण से सुख को प्राप्त हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् पुरुष ! (यः) जो विद्या की (यादमानः) याचना करते हुए आप (ऊतिभिः) रक्षण आदिकों से (सातये) संविभाग के लिये (इमाम्) इस (प्रभृतिम्) उत्तम धारणा और (शश्वच्छश्वत्) व्यापक व्यापक वस्तु को (सु) उत्तम प्रकार (धाः) धारण करें (वर्धनेभिः) वृद्धि के साधनों और (महद्भिः) बड़े (कर्मभिः) करनेवाले के अतीव चाहे हुए व्यवहारों से (सुतेसुते) उत्पन्न-उत्पन्न हुए पदार्थ में (वावृधे) बढ़ें (उ) वही (सुश्रुतः) उत्तम प्रकार श्रोता (भूत्) होवें ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य कार्य्य के विज्ञान का प्रारम्भ करके पर पर अर्थात् बड़े से छोटे उससे और छोटे उससे भी छोटे इत्यादि सूक्ष्म कारण पर्य्यन्त व्यापक परमाणुरूप पदार्थ को जानकर उपयोग करें कार्य में लावें, वे इस संसार में अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होवैं और जो लोग विद्वान् जनों से केवल विद्या की ही याचना करते हैं, वे बहुश्रुत होते हैं ॥१॥

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    विषय

    महान् कर्म व कीर्ति लाभ

    पदार्थ

    [१] प्रकृष्ट भरण का कारण होने से प्रस्तुत मन्त्र में सोम को 'प्रभृति' कहा गया है। 'अवन्ति रक्षन्ति' इस व्युत्पत्ति से मरुतों [प्राणों] को 'ऊति' कहा गया है। (शश्वत् शश्वत्) = सदा और सदा ही, अर्थात् अवश्य बिना विच्छेद के सदा (ऊतिभिः) = प्राणों के साथ (यादमान:) = [संगतिं याचमानः] संगति को चाहता हुआ, अर्थात् प्राणसाधना करता हुआ तू (उ) = निश्चय से (इमां प्रभृतिम्) = इस सोम को सातये उत्कृष्ट पद की प्राप्ति के लिए (सुधा:) = अच्छी प्रकार धारण कर । प्राणसाधना द्वारा सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होती है। सुरक्षित हुआ हुआ यह सोम उत्कृष्ट पद की प्राप्ति का साधन बनता है। [२] यह इन्द्र (सुते सुते) = जितना जितना सोम का सम्पादन करता है, उतना उतना (वर्धनेभिः वावृधे) = शक्तियों के वर्धन से वृद्धि को प्राप्त करता है और हे इन्द्र ! तू वह बनता है (यः) = जो कि (महद्भिः कर्मभिः) = महान् कर्मों से (सुश्रुतः) भूत प्रसिद्ध होता है। सोमरक्षणवाला पुरुष ही महान् कर्मों को कर पाता है और इन महान् कर्मों से कीर्ति प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षणवाला पुरुष ही महान् कर्मों द्वारा उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त करता है।

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    विषय

    राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य। पक्षान्तर में आचार्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे राजन् ! विद्वन् ! तू (शश्वत् शश्वत्) निरन्तर, सदा ही (यादमानः) प्रार्थना किया जाकर (ऊतिभिः) रक्षाकारी पुरुषों और सेना दुर्गादि रक्षा साधनों से (इमाम्) इस (प्रभृतिम्) उत्तम भरण पोषण करने योग्य प्रजा को (सातये) उत्तम ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ही (सु धाः उ) अच्छी प्रकार, सुखपूर्वक धारण पोषण कर। तू (सुते सुते) राष्ट्र में उत्पन्न प्रत्येक पदार्थ पर और प्रत्येक पदाभिषेक पर (महद्भिः) बड़े २ (वर्धनेभिः) वृद्धिकारक (कर्मभिः) कर्मों से (वावृधे) बढ़, वृद्धि को प्राप्त कर और उन बड़े २ कर्मों से ही तू (सुश्रुतः) सुप्रसिद्ध (भूत्) हो। (२) आचार्य प्रार्थित होकर अपने शिष्य को नाना शिक्षाओं और आशिषों द्वारा उसको इस (प्रभृतिं) सबसे उत्तम रीति से धारण करने योग्य वाणी को प्रदान करने के लिये शिष्य का पालन कर। तू प्रत्येक शिष्य पर वृद्धिकारक कर्मों से बढ़ और सुप्रसिद्ध हो। इसी प्रकार विद्वान् शिष्य (यादमानः = याचमानः) विद्यादि याचना करता हुआ (प्रभृतिं) उत्तम धारणीय ज्ञान, वाणी और दीक्षा को सनातन-पुरातन ज्ञान के लाभार्थ धारण करे। प्रत्येक ज्ञान के निमित्त वृद्धिकारक कर्मों से बढ़े और सुश्रुत, बहुश्रुत होवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जी माणसे कार्याचा आरंभ करून मोठ्यापासून छोट्यापर्यंत त्यांच्या सूक्ष्म कारणापर्यंत व्यापक परमाणूरूप पदार्थ जाणून उपयोग करतात व कार्यात आणतात ते या संसारात वर्धित होतात व जे लोक विद्वान लोकांकडे केवळ विद्येची याचना करतात ते बहुश्रुत असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, O lord united with friends and devotees by continuous modes of protection, who rise by admirable acts of promotive generosity and advance in honour and reputation by greater and higher actions in one yajna after another, accept this praise and prayer for the gifts of success and acquisitions of value.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The key to attain happiness is taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! you seek knowledge and protections, uphold authority of distribution (sharing with others) and eternal substance (economic and military power). It grows with big means of progress and becomes renowned with glorious deeds in every sphere accomplished laboriously.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men having acquired the knowledge of the gross effects and having tried to get the knowledge of more and more subtle causes, utilize progress or advance it in this world. Those who seek knowledge from the enlightened persons become men of vast learning and listening.

    Foot Notes

    (प्रभूतीम्) प्रकृष्टाम् धारणाम्। = Good sustaining power. (यादमानः ) याचमानः । अत्र वर्णव्यत्ययेन चस्य द:। = Seeking begging. (सुतेसुते ) निप्पन्ने निप्पन्ने पदार्थे। = In every produced thing.

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