ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शंसा॑ म॒हामिन्द्रं॒ यस्मि॒न्विश्वा॒ आ कृ॒ष्टयः॑ सोम॒पाः काम॒मव्य॑न्। यं सु॒क्रतुं॑ धि॒षणे॑ विभ्वत॒ष्टं घ॒नं वृ॒त्राणां॑ ज॒नय॑न्त दे॒वाः॥
स्वर सहित पद पाठशंसा॑ । म॒हाम् । इन्द्र॑म् । यस्मि॑न् । विश्वाः॑ । आ । कृ॒ष्टयः॑ । सो॒म॒ऽपाः । काम॑म् । अव्य॑न् । यम् । सु॒ऽक्रतु॑म् । धि॒षणे॑ । वि॒भ्व॒ऽत॒ष्टम् । घ॒नम् । वृ॒त्राणा॑म् । ज॒नय॑न्त । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शंसा महामिन्द्रं यस्मिन्विश्वा आ कृष्टयः सोमपाः काममव्यन्। यं सुक्रतुं धिषणे विभ्वतष्टं घनं वृत्राणां जनयन्त देवाः॥
स्वर रहित पद पाठशंसा। महाम्। इन्द्रम्। यस्मिन्। विश्वाः। आ। कृष्टयः। सोमऽपाः। कामम्। अव्यन्। यम्। सुऽक्रतुम्। धिषणे। विभ्वऽतष्टम्। घनम्। वृत्राणाम्। जनयन्त। देवाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाविषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्मिन् विश्वाः सोमपाः कृष्टयः काममाव्यन् वृत्राणां घनं विभ्वतष्टं महामिन्द्रं धिषणे प्रकाशयन्तं सूर्य्यमिव विद्यानीती प्रकाशय यं सुक्रतुं देवा जनयन्त तं राजानं त्वं शंस ॥१॥
पदार्थः
(शंस) स्तुहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (महाम्) महान्तं पूजनीयम् (इन्द्रम्) राजानम् (यस्मिन्) (विश्वाः) समग्राः (आ) समन्तात् (कृष्टयः) मनुष्याः (सोमपाः) ऐश्वर्य्यपालकाः (कामम्) अभिलाषम् (अव्यन्) कामयन्ताम् (यम्) (सुक्रतुम्) शोभनकर्मकर्त्तृप्रज्ञम् (धिषणे) द्यावापृथिव्याविव विद्यानीती (विभ्वतष्टम्) विभुना जगदीश्वरेण निर्मितम् (घनम्) घनीभूतम् (वृत्राणाम्) मेघानाम् (जनयन्त) जनयन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा महानेकः सूर्य्यः प्रत्येकभूगोले स्थितान् मेघान् हन्ति प्राणिनां सुखं जनयति तथैव राजा दुष्टान् हत्वा श्रेष्ठानामिच्छां प्रपूर्य्याऽऽनन्दयति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले उञ्चासवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में प्रजा के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वन् ! (यस्मिन्) जिसमें (विश्वाः) संपूर्ण (सोमपाः) ऐश्वर्य्य के पालन करनेवाले (कृष्टयः) मनुष्य (कामम्) अभिलाषा की (आ) सब प्रकार (अव्यन्) इच्छा करें (वृत्राणाम्) मेघों के (घनम्) समूह को (विभ्वतष्टम्) व्यापक परमेश्वर ने रचा (महाम्) श्रेष्ठ और सेवा करने योग्य (इन्द्रम्) राजा को (धिषणे) अन्तरिक्ष और पृथिवी को प्रकाशित करते हुए सूर्य्य के सदृश विद्या और नीति को प्रकाशित करते हुए (यम्) जिस (सुक्रतुम्) उत्तम कर्म करनेवाली बुद्धि से युक्त पुरुष को (देवाः) विद्वान् लोग (जनयन्त) उत्पन्न करते हैं, उस राजा की आप (शंस) स्तुति करिये ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् लोगो ! जैसे बड़ा एक सूर्य्य प्रत्येक भूगोल में वर्त्तमान मेघों को नाश करता और प्राणियों के सुख को उत्पन्न करता है, वैसे ही राजा जन दुष्ट पुरुषों का नाश और श्रेष्ठ पुरुषों की इच्छा पूर्ण करके आनन्द देता है ॥१॥
विषय
प्रभुस्तवन व सोमरक्षण
पदार्थ
[१] उस महान् इन्द्रम्-पूजनीय (महान्) सर्वशक्तिमान् प्रभु को (शंसा) = तू शंसित कर उसकी स्तुति कर, (यस्मिन्) = जिस प्रभु में स्थित हुए-हुए (विश्वाः) = सब (कृष्टयः) = श्रमशील मनुष्य (सोमपा:) = सोम का रक्षण करते हैं और (कामम्) = चाहने योग्य स्वर्ग आदि को (आ अव्यन्) = सर्वथा प्राप्त करते हैं । [२] उस प्रभु का तू उपासन कर (यं सुक्रतुम्) = जिस उत्तम प्रज्ञान व शक्तिवाले (विभ्वतष्टम्) = (विभुः च असौ अतष्टः) व्यापक व कभी भी न बनाए गये, अर्थात् स्वयंभू (वृत्राणां घनम्) = वासनाओं के विनष्ट करनेवाले को (धिषणे) = द्यावापृथिवी तथा (देवा:) = सब सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि देव (जनयन्त) = प्रकट करते हैं। द्यावापृथिवी में तथा तदन्तर्गत सब देवों में प्रभु की महिमा का दर्शन होता है। इस प्रकार ये सब देव उस प्रभु का प्रकाश करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभुस्तवन द्वारा सोमरक्षण करते हुए स्वर्गादि को सिद्ध करें। द्यावापृथिवी में सर्वत्र प्रभु की महिमा देखें।
विषय
राज-परिषत् प्रजा परिषत् के बल से बलवान् राजा।
भावार्थ
हे विद्वन् ! तू उस (महान् इन्द्रम्) महान् इन्द्र की (शंस) स्तुति कर (यस्मिन्) जिसके आश्रय में रहकर (विश्वाः) समस्त (सोमपाः) विद्वान् शिष्य ओषधि वनस्पति अन्न और ऐश्वर्य के रक्षक ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यादि जन और (कृष्टयः) कृषि करने वाले प्रजा जन (कामम् आ अव्यन्) कामना योग्य यथेष्ट सुख प्राप्त करते हैं। (यं) जिस (सुक्रतुं) उत्तम धर्म कर्म में कुशल (विभ्वतष्टं) परमेश्वर से उत्पादित या महान् सामर्थ्य से बने हुए बलवान् पुरुष को (धिषणे) नर नारी या आकाश भूमि के समान प्रजा-परिषत् और राज- परिषत् दोनों तथा (देवाः) विद्वान्, व्यवहारज्ञ और युद्ध विजयी लोग (वृत्राणां घनं) बढ़ते हुए बाधक शत्रुओं को नाश करने में समर्थ (जनयन्त) बनाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ४ निचृत्त्रिष्टुप। २, ५ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पङ्क्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्रजा व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जसा प्रत्येक भूगोलात एक मोठा सूर्य असून मेघांचा नाश करतो व प्राण्यांना सुख देतो. तसेच राजा दुष्ट पुरुषांचा नाश व श्रेष्ठ पुरुषांची इच्छा पूर्ण करून आनंद देतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Celebrate and glorify Indra, ruler of the world, great, hero of noble actions, fashioned by all pervading divinity, breaker of the clouds and dispeller of the forces of darkness, whom the brilliancies of the world elect and heaven and earth consecrate as ruler, and in whom all soma-makers and soma-lovers of the world find fulfilment of their heart’s desire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the people are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! praise that king who fulfils the wishes of people and protects their wealth. He should be wise and performs noble and divine deeds. He should also be splendid like the sun destroys the clouds and illuminates the earth and the heaven. illuminating knowledge and understanding political affairs these are pre-requisites of the elected representatives.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! as the great sun destroys the clouds and generates happiness for all creatures beings, in the same manner, a good king destroys the wicked and fills good men with joy by fulfilling their noble desires.
Foot Notes
(सोमपाः) ऐश्वर्य्यपालकाः । = Preservers or protectors of prosperity. (धिषणे ) द्यावापृथिव्याविव विद्यानीती धिषणे इति द्यावापृथिविनाम (N. G. 3,30)। = Knowledge and political affairs of good basis.
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