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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रः॒ स्वाहा॑ पिबतु॒ यस्य॒ सोम॑ आ॒गत्या॒ तुम्रो॑ वृष॒भो म॒रुत्वा॑न्। ओरु॒व्यचाः॑ पृणतामे॒भिरन्नै॒रास्य॑ ह॒विस्त॒न्वः१॒॑ काम॑मृध्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । स्वाहा॑ । पि॒ब॒तु॒ । यस्य॑ । सोमः॑ । आ॒ऽगत्य॑ । तुम्रः॑ । वृ॒ष॒भः । म॒रुत्वा॑न् । आ । उ॒रु॒ऽव्यचाः॑ । पृ॒ण॒ता॒म् । ए॒भिः । अन्नैः॑ । आ । अ॒स्य॒ । ह॒विः । त॒न्वः॑ । काम॑म् । ऋ॒ध्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः स्वाहा पिबतु यस्य सोम आगत्या तुम्रो वृषभो मरुत्वान्। ओरुव्यचाः पृणतामेभिरन्नैरास्य हविस्तन्वः१ काममृध्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। स्वाहा। पिबतु। यस्य। सोमः। आऽगत्य। तुम्रः। वृषभः। मरुत्वान्। आ। उरुऽव्यचाः। पृणताम्। एभिः। अन्नैः। आ। अस्य। हविः। तन्वः। कामम्। ऋध्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यस्तुम्रो वृषभो मरुत्वानुरुव्यचा इन्द्रः स्वाहा यस्य सोमस्तस्यास्यैभिरन्नैरागत्य हविः पिबतु तन्वः काममापृणतां तं त्वमार्ध्याः ॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यकर्त्ता (स्वाहा) सत्यया क्रियया (पिबतु) (यस्य) (सोमः) ऐश्वर्य्यसमूहः (आगत्य) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (तुम्रः) आहन्ता (वृषभः) बलिष्ठः (मरुत्वान्) प्रशस्तपुरुषयुक्तः (आ) (उरुव्यचाः) बहुशुभगुणव्याप्तः (पृणताम्) सुखयतु (एभिः) वर्त्तमानैः (अन्नैः) यवादिभिः (आ) (अस्य) (हविः) आदातव्यम् (तन्वः) शरीरस्य (कामम्) (ऋध्याः) साध्नुयाः ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यः सत्यन्यायेन स्वांऽशं भुक्त्वा प्रजायाः सुखवर्द्धनायाऽन्यायं दुष्टांश्च हन्ति स समृद्धो भवति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले पचासवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जो (सोमः) ऐश्वर्य्यों का समूह (तुम्रः) विघ्नकारियों का हिंसक (वृषभः) बलिष्ठ (मरुत्वान्) उत्तम पुरुषों से युक्त (उरुव्यचाः) बहुत श्रेष्ठ गुणों से व्याप्त (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यों का कर्त्ता (स्वाहा) सत्य क्रिया से (यस्य) जिसका (सोमः) ऐश्वर्य्यों का समूह उस (अस्य) इसके (एभिः) इन वर्त्तमान (अन्नैः) यव आदि अन्नों से (आगत्य) प्राप्त होकर (हविः) ग्रहण करने योग्य वस्तु का (पिबतु) पान कीजिये और (तन्वः) शरीर के (कामम्) मनोरथ को (आ) (पृणताम्) सब प्रकार पूर्ण करके सुख दीजिये और उसको आप (आ, ऋध्याः) सिद्ध कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो सत्य न्याय से अपने अंश का भोग करके प्रजा के सुख बढ़ाने के लिये अन्याय और दुष्ट पुरुषों का नाश करता है, वह पुरुष समृद्धियुक्त होता है ॥१॥

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    विषय

    त्यागवृत्ति

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (स्वाहा) = त्याग-वृत्तिवाला बने। त्यागवृत्तिवाला बनकर, भोगवृत्ति से ऊपर उठे और (पिबतु) = सोम का पान करे-सोम को शरीर में ही सुरक्षित करे। (यस्य सोमः) = जिसका यह सोम होता है, वह (आगत्य) = समन्तात् गतिवाला होता हुआ (तुम्रः) = शत्रुओं का हिंसक होता है, (वृषभ:) = शक्तिशाली बनता है और (मरुत्वान्) = प्रशस्त प्राणोंवाला होता है। [२] यह (ओरुव्यचाः) = अत्यन्त विस्तारवाला होता हुआ (एभिः) = इन (अन्नैः) = अन्नों से (आपृणताम्) = अपना पूरण करे। यह अन्नों का ही सेवन करे- अन्नों का सेवन इसकी शक्तियों का विस्तार करे। (हवि:) = दानपूर्वक अदन (अस्य) = इसके (तन्व:) = शरीर की (कामम्) = अभिलाषा को (आ ऋध्याः) = समन्तात् समृद्ध करे। हवि ही इसकी तृप्ति का कारण बने। यह कभी केवलादी न बने।

    भावार्थ

    भावार्थ- त्याग की वृत्ति हमें भोगों से दूर करके सोमरक्षण के योग्य बनाए । अन्नों से ही हम अपना तर्पण करें। दानपूर्वक अदन हमें समृद्ध करे-हम केवलादी बनकर पापी न बन जाएँ।

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    विषय

    वर्षाकारी सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य। रथ में दो अश्वों के तुल्य दो विद्वानों की नियुक्ति।

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार वर्षणशील, वायुओं सहित, किरणों से व्यापक होकर उत्तम रीति से जल को प्राप्त करता और मेघरूप से बरस कर अन्नों से सब को पूर्ण तृप्त करता और अन्न शरीर की अभिलाषा को पूर्ण करता है उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता पुरुष (यस्य) जिसके अधीन (सोमः) समस्त राष्ट्र का ऐश्वर्य और शासन विद्यमान है वह (तुम्रः) सब प्रकार से विपक्षी को मारने में समर्थ, (वृषभः) बलवान्, (मरुत्वान्) मर्दों अर्थात् मरने मारने वाले वीर पुरुषों का स्वामी होकर भी (स्वाहा) उत्तम, सत्य न्याय क्रिया के अनुकूल एवं शुभ आदरणीय रूप से प्रजा के दिये में से (पिबतु) उस ऐश्वर्य का उपभोग करे। वह (उरुव्यचाः) बहुत अधिक गुणवान्, शक्तिमान् और अधिकारवान् होकर भी (एभिः) इन नाना प्रकार के (अन्नैः) खाद्य पदार्थों से (आपृणताम्) अपने राष्ट्र को पूर्ण करे। और (हविः) उत्तम अन्न ही (अस्य) उस पुरुष के निजी (तन्वः) शरीर की (कामम्) सब प्रकार की अभिलाषा को भी (ऋध्याः) समृद्ध, पूर्ण करे। बड़े धनी मानी क्षत्रिय बलवानों को भी अन्नों से हो अपने देह पुष्ट करने चाहियें, निर्बल जीवों के मांसों से नहीं, यही वेद का आदेश है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्॥ धैवतः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात परस्पर प्रीतीचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो सत्य न्यायाने आपले भोग भोगून प्रजेचे सुख वाढविण्यासाठी अन्यायाचा व दुष्ट पुरुषांचा नाश करतो तो पुरुष समृद्धियुक्त होतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, strong, virile and generous, lord creator and giver of power, prosperity and excellence of life, commanding the force of the winds and stormy troops over the wide world, may, we pray, come, and having come enjoy the offerings made in truth of word and deed with faith and humility and, pleased with these offerings, grant fulfilment of the devotee’s mission of earthly existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! Indra (wealthy king) is the destroyer of his enemies, very powerful, followed by many noble persons, extremely virtuous. He is the lord of abundant wealth earned by honest means. Let him drink this acceptable drink along with barley and other materials of food. Let him fulfill the needs and desires of the body by this sort of food (means vegetarian). You should also accomplish his objects by co-operating with him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! that king becomes prosperous who honestly and justly enjoys his dues and for the sake of the happiness of his people, sets all injustices aside and slays the wicked.

    Foot Notes

    (सोमः) ऐश्वर्य्यंसमूहः = Wealth or prosperity. । (पृणताम् ) सुखयतु = May make happy. (ऋष्याः) साध्नुया: = Accomplish (तुम्रः ) आन्ता। = Destroyer.

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