ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्रापर्वतौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑पर्वता बृह॒ता रथे॑न वा॒मीरिष॒ आ व॑हतं सु॒वीराः॑। वी॒तं ह॒व्यान्य॑ध्व॒रेषु॑ देवा॒ वर्धे॑थां गी॒र्भिरिळ॑या॒ मद॑न्ता॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑पर्वता । बृ॒ह॒ता । रथे॑न । वा॒मीः । इषः॑ । आ । व॒ह॒त॒म् । सु॒ऽवीराः॑ । वी॒तम् । ह॒व्यानि॑ । अ॒ध्व॒रेषु॑ । दे॒वा॒ । वर्धे॑थाम् । गीः॒ऽभिः । इळि॑या । मद॑न्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रापर्वता बृहता रथेन वामीरिष आ वहतं सुवीराः। वीतं हव्यान्यध्वरेषु देवा वर्धेथां गीर्भिरिळया मदन्ता॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रापर्वता। बृहता। रथेन। वामीः। इषः। आ। वहतम्। सुऽवीराः। वीतम्। हव्यानि। अध्वरेषु। देवा। वर्धेथाम्। गीःऽभिः। इळया। मदन्ता॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजसेनाविषयमाह।
अन्वयः
हे सभासेनेशौ ! युवामिन्द्रापर्वतेव बृहता रथेन सुवीरा वामीरिष आ वहतमध्वरेषु हव्यानि वीतमिळया मदन्ता देवा सन्तौ गीर्भिर्वर्द्धेथाम् ॥१॥
पदार्थः
(इन्द्रापर्वता) विद्युन्मेघाविव राज्यसेनाधीशौ (बृहता) महता (रथेन) (वामीः) प्रशस्ताः (इषः) अन्नाद्याः (आ) (वहतम्) प्राप्नुतम्) (सुवीराः) शोभना वीरा याभ्यस्ताः (वीतम्) व्याप्नुतम् (हव्यानि) दातुमादातुमर्हाणि (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु (देवा) दिव्यसुखप्रदौ (वर्द्धेथाम्) (गीर्भिः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः (इळया) सर्वशास्त्रप्रकाशिकया वाचा। इळेति वाङ्ना०। निघं० ३। ५। (मदन्ता) कामयमानौ विद्वांसौ ॥१॥
भावार्थः
हे राजसेनाजना ! यथा मेघः सर्वान् जलाशयानोषधीश्च पाति तथैव सेनापालका पुष्कलाभिः सामग्रीभिः सर्वाः अलंभोगाः कुर्य्युः सेनाश्च विद्युद्वच्छत्रून्दहन्तु सर्वेषु सर्वे युद्धराजविद्यावृद्धा भूत्वा सर्वान् कामान् प्राप्नुवन्तु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चौबीस ऋचावाले तिरेपनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा की सेना के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे सभा और सेना के ईश ! आप दोनों (इन्द्रापर्वता) बिजुली और मेघ के सदृश राज्य सेना के अधीश (बृहता) बड़े (रथेन) वाहन से (सुवीराः) सुन्दर वीर जिनसे उन (वामीः) श्रेष्ठ (इषः) अन्न आदि को (आ, वहतम्) प्राप्त होइये और (अध्वरेषु) नहीं हिंसा करने योग्य यज्ञों में (हव्यानि) देने और ग्रहण करने योग्यों को (वीतम्) प्राप्त होइये और (इळया) सम्पूर्ण शास्त्रों को प्रकाश करनेवाली वाणी से (मदन्ता) कामना करते हुए विद्वान् लोग (देवा) उत्तम सुख देनेवाले होकर (गीर्भिः) उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त वाणियों से (वर्धेथाम्) बढ़ें ॥१॥
भावार्थ
हे राजसेनाओं के जन ! जैसे मेघ सम्पूर्ण जलाशय और ओषधियों की रक्षा करता है, वैसे ही सेना के पालन करनेवाले पुरुष बहुत सी सामग्रियों से सम्पूर्ण सेनाओं को भोग से परिपूर्ण करिये और सेना बिजुलियों के सदृश शत्रुओं का नाश करैं और सबमें सब युद्ध और राजविद्या में परिपूर्ण होकर सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त हों ॥१॥
विषय
इन्द्र और पर्वत का जीवन
पदार्थ
[१] जीव जितेन्द्रिय बनकर 'इन्द्र' कहलाता है तथा अपना पूरण व पालन करता हुआ 'पर्वत' होता है। यह पर्वत शरीर को नीरोग रखता है तथा मन को हीन भावनाओं से बचाकर अपना पूरण करता है । हे (इन्द्रापर्वता) = इन्द्र व पर्वत! आप (बृहता रथेन) = निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हुए इस शरीर-रथ के हेतु से, अर्थात् शरीर-रथ को उन्नत बनाने के लिए (सुवीरा:) = उत्तम (वीरत्व) = को प्राप्त करानेवाले वामी:- सुन्दर इष:- अन्नों को आवहतम् प्राप्त करो। इन सात्त्विक अन्नों से ही तुम 'इन्द्र व पर्वत' बन पाओगे। (२) हे देवा- दिव्यवृत्ति को धारण करनेवाले इन्द्र व पर्वतो ! आप (अध्वरेषु) = यज्ञों में (हव्यानि) = हव्य-पदार्थों को (वीतम्) = प्राप्त करानेवाले बनो [गमयतम्]। यज्ञ करके यज्ञशेष के रूप में हव्य पदार्थों का ही सेवन करो । (इडया) = इस वेदवाणी से (मदन्ता) = हर्ष का अनुभव करते हुए आप (गीर्णिः) = स्तुति- वाणियों से (वर्धेथाम्) = वृद्धि को प्राप्त करो । वस्तुतः हमारे मौलिक कर्त्तव्य तीन हैं— [क] हव्य-पदार्थों का सेवन, [ख] ज्ञान की वाणियों में आनन्द का अनुभव तथा [ग] स्तुतियों द्वारा उत्कृष्ट लक्ष्यदृष्टि को प्राप्त करके आगे बढ़ना।
भावार्थ
भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनें, अपना पूरण करें। इसके लिए हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करें, यज्ञों में हव्य-पदार्थों की आहुति दें, ज्ञानप्राप्ति में आनन्द लें तथा स्तुति-वचनों का उच्चारण करें।
विषय
सूर्य मेघवत् राजा सेनापति का कर्त्तव्य। राजा का राज्याभिषेक, राजा के लम्बे दामन को पकड़ कर चलने का अभिप्राय।
भावार्थ
जिस प्रकार (इन्द्रा पर्वता बृहता रथेन वामीः सुवीराः इषः-आवहतः) इन्द्र, सूर्य या विद्युत् और पर्वत सर्व पालक मेघ दोनों रथ अर्थात् वेगवान् जल-धारा से उत्तम वृष्टियों वा अन्नादि को प्राप्त कराते हैं इसी प्रकार हे (इन्द्र-पर्वता) इन्द्र ऐश्वर्यवन् शत्रुहन्तः और हे पर्वत ! पर्व २, पोरु २ से बने सैन्य वर्ग के स्वामिन् ! तुम दोनों (बृहता) बड़े भारी (रथेन) वेग से जाने वाले रथसैन्य से (वामीः) अति सुन्दर (सुवीराः) उत्तम वीरों से बनी (इषः) अन्नादि समृद्धियों और सेनाओं को (आवहतम्) धारण करो। आप दोनों (अध्वरेषु) हिंसा आदि से रहित परस्पर प्रतिपालन आदि कार्यों में (हव्यानि) उत्तम २ अन्नादि पदार्थों का (वीतम्) उपभोग करो और (इडया) अन्न एवं सुन्दर वाणी से (मदन्तौ) परस्पर हर्ष अनुभव करते हुए (गीर्भिः) उत्तम वाणियों से (वर्षेथाम्) बढ़ो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्युत, मेघ, विद्वान, राजा, प्रजा व सेनेच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजसेनेतील लोकांनो! जसा मेघ संपूर्ण जलाशय व औषधींचे रक्षण करतो तसेच सेनापालन करणाऱ्या पुरुषांनी पुष्कळ सामग्रीने सर्व सेनेला भोगांनी परिपूर्ण करावे व सेनेने विद्युतप्रमाणे शत्रूंचा नाश करावा. युद्ध व राजविद्येत परिपूर्ण होऊन संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Parvata, sun and cloud, come on the grand chariot of light, wind and rain, bring us lovely foods and drinks of energy for the heroic people, O powers divine and generous, receive the offerings in the yajnas of love, faith and non-violence, feed on the music of the songs, and wax with the hymns of celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of kings and army are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the State and Commander-in-chief of the Army! you are like the lightning and cloud tra travelling in a spacious car, leading delightful life with articles of food and good progeny. Put acceptable good oblations in the Yajna (non-violent and inviolable sacrifices). Being bestowers of divine happiness, desiring the welfare of all with the speech illuminating the teachings of all shastras, (religious texts), you ever grow harmoniously.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Officers of the State and army ! as the clouds protect all rivers, tanks, ponds and herbs, in the same manner, the commanders and officers of the army should satisfy all members of the army and public with sufficient quantity of all necessary articles, and the warriors of the army should destroy all their enemies. Thus, all persons experienced in the science of war and administration get their desires fulfilled.
Foot Notes
(इन्द्रापर्वता ) विद्यन्मेधाविव राज्यसेनाधीशौ । स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ( Stph 11, 6, 3, 9 )।स्तनयद्वा इन्द्रस्यरूपम् (Aitariya nyak a 1, 2.) पर्वतइति मेघनाम (N.G. 1, 10) =The President or the State and Commander-in chief of the army comparable to lightening and cloud. (इलया) सर्वशास्त्रप्रकाशिकया वाचा । इलेति वाङ्नाम (N.G. 3,5) = With the speech illuminating the teachings of all Shastras. (मदन्ता) कामयमानो विद्वांसौ। = Learned men desiring the welfare of all (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु । अध्वर इति यज्ञ नाम (N.G. 3, 17 ) अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध: (NKT, 1, 7 ) = In the Yajnas which are non-violent.
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