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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा, उषा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒षसः॒ पूर्वा॒ अध॒ यद्व्यू॒षुर्म॒हद्वि ज॑ज्ञे अ॒क्षरं॑ प॒दे गोः। व्र॒ता दे॒वाना॒मुप॒ नु प्र॒भूष॑न्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षसः॑ । पूर्वाः॑ । अध॑ । यत् । वि॒ऽऊ॒षुः । म॒हत् । वि । ज॒ज्ञे॒ । अ॒क्षर॑म् । प॒दे । गोः । व्र॒ता । दे॒वाना॑म् । उप॑ । नु । प्र॒ऽभूष॑न् । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषसः पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद्वि जज्ञे अक्षरं पदे गोः। व्रता देवानामुप नु प्रभूषन्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषसः। पूर्वाः। अध। यत्। विऽऊषुः। महत्। वि। जज्ञे। अक्षरम्। पदे। गोः। व्रता। देवानाम्। उप। नु। प्रऽभूषन्। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    अन्वयः

    यदुषसः पूर्वा व्यूषुस्तन्महदक्षरं महत्तत्वाख्यं गोः पदे वि जज्ञे यदेकं देवानाम्महदसुरत्वं प्रभूषन्नध देवानां व्रतोप नु जज्ञे तद्यूयं विजानीत ॥१॥

    पदार्थः

    (उषसः) प्रभातात् (पूर्वाः) (अध) अथ (यत्) (व्यूषुः) विवसन्ति (महत्) (वि) (जज्ञे) जातम् (अक्षरम्) (पदे) स्थाने (गोः) पृथिव्याः (व्रता) नियमाः (देवानाम्) विदुषाम् (उप) समीपे (नु) सद्यः (प्रभूषन्) अलङ्कुर्वन् (महत्) (देवानाम्) पृथिव्यादीनाम् (असुरत्वम्) यदसुषु प्राणेषु रमते तत् (एकम्) अद्वितीयमसहायम् ॥१॥

    भावार्थः

    यद्विद्युदाख्यमुषसः सेवन्ते तद्वद्वर्त्तमानमेकमद्वितीयं ब्रह्म प्रकृत्यादिषु व्याप्तं तत्सर्वं धरति तदेव सर्वैरुपास्यमस्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब बाईस ऋचावाले पचपनवें सूक्त का आरम्भ है।

    पदार्थ

    (यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) विद्वानों के (व्रता) नियम (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥

    भावार्थ

    जो बिजुली नामक वस्तु को प्रातःकाल से सेवन करते हैं, उनके सदृश वर्त्तमान एक द्वितीयरहित ब्रह्म प्रकृति आदि पदार्थों में व्याप्त हुआ वह सबको धारण करता है, वही सब करके उपासना करने योग्य है ॥१॥

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    विषय

    उषाकालीन स्वाध्याय

    पदार्थ

    [१] (अध) = अब (यद्) = ज्यों ही (पूर्वाः) = सूर्योदय से पूर्व आनेवाली अथवा हमारा पालन व पूरण करनेवाली [पृ पालन पूरणयोः] (उषस:) = उषाएँ (व्यूषुः) = अन्धकार को विवासित करती हैं, तो उस समय देववृत्तिवाले पुरुषों के जीवन में (गो: पदे) = वेदवाणी के शब्दों में (महद् अक्षरं) = [परमं अक्षरं] महान् अविनाशी प्रभु का (विजज्ञे) = प्रादुर्भाव होता है। ये स्वाध्याय करते हैं और ज्ञान की वृद्धि करते हुए प्रभु के उस ब्रह्माण्ड की रचना आदि कार्यों में उस प्रभु की महिमा को देखते हैं। [२] उषाकाल में प्रबुद्ध होकर स्वाध्याय करते हुए जब ये प्रभु की महिमा का चिन्तन करते हैं, तो इनके जीवन को (देवानां व्रता) = सूर्य आदि देवों के व्रत (नु) = निश्चय से (उप प्रभूषन्) = समीपता से अलंकृत करते हैं, अर्थात् सूर्यादि देवों से अपने जीवन में व्रतों को धारण करने का प्रयत्न करते हैं। रामायण में राम के लिए कहते हैं कि 'समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव। विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत् प्रियदर्शनः । कालाग्नि सदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसम:' [१।१।१८] राम ने समुद्र से गम्भीरता का पाठ पढ़ा, हिमालय से धैर्य को सीखा, विष्णु के पराक्रम को अपनाया और चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन बनने का यत्न किया। राजा होने के नाते वे कालाग्नि के समान क्रोध में हुए तो पृथिवी के समान क्षमाशील बने। [३] इस प्रकार सूर्यादि देवों से व्रतों को धारण करके इनका जीवन अत्यन्त सुन्दर बनता है। वस्तुतः (देवानाम्) = इन सूर्यादि देवों का (असुरत्वम्) = हमारे जीवनों में प्राणशक्ति के संचार का कार्य (एकम्) = अद्भुत ही है और (महत्) = महान् है। हम इन देवों के व्रतों को धारण करते हैं। ये देव हमारे में (असुरत्व) = प्राबल्य की स्थापना करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उषाकालों में स्वाध्याय द्वारा प्रभु महिमा को अपने हृदयों में अनुभव करें। सूर्यादि देवों के व्रतों से अपने जीवन को अलंकृत करें। ये सूर्यादि देव हमारे में शक्ति की स्थापना करेंगे।

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    विषय

    परब्रह्य परमेश्वर का वर्णन। महान् असुर।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (गोः पदे) आदित्य सूर्य के रूप में (महत् अक्षरं विजज्ञे) बड़ा भारी अविनाशी सामर्थ्य प्रकट होता है (यत्) जिससे (अध) अनन्तर (पूर्वाः उषसः वि ऊषुः) पूर्वकाल की अनादि परम्परा से होने वाली उषाएं भी प्रकट होती रही हैं। और (देवानां) अग्नि विद्युत् आदि चमकने वाले पदार्थों और मेघादि जीवनप्रद पदार्थों के तथा जीवन, भोगादि के कामना वाले जीवों के भी सब (व्रता) कर्म (उप प्र भूषन्) उसी से होते रहते हैं वह (देवानाम्) सब दिव्य पदार्थों का (एकम्) एक (महत्) बड़ा भारी (असुरत्वम्) प्राणों में रमने वाला, प्राणप्रद सामर्थ्य है। उसी प्रकार (गोः पदे) वाणी के ज्ञान में (महत् अक्षरं) बड़ा भारी अविनश्वर ब्रह्म का ज्ञान प्रकट होता है (यत्) जिससे (पूर्वा उषसः वि ऊषुः) पूर्व या उपासक को प्रिय लगने वाली कान्तियां या ज्ञान-दीप्तियां प्रकट होती हैं। जिस वाणी या अक्षर रूप ब्रह्म से (देवानां) अध्यात्म में प्राणों और विद्वानों के समस्त कर्म भी प्रकट होते हैं। वही विद्वानों का एक बड़ा भारी (असुरत्वम्) प्राणों के भीतर रमनेवाला अद्वितीय ब्रह्म है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात दिवस, रात्र, विद्वान, अंतरिक्ष, पृथ्वी, राजधर्म व ईश्वर यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे विद्युतचे उषःकालापासून ग्रहण करतात त्याप्रमाणे एक अद्वितीय ब्रह्म, प्रकृती इत्यादीमध्ये व्याप्त असून सर्वांना धारण करतो तोच सर्वांचा उपासनीय आहे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Before the dawns of primeval time, which arose and shone bright, later reflecting and illuminating the ordained tasks of the forces of nature, arose Mahat, the first manifest principle of imperishable Prakrti in the depth of oceanic space. Great and One is the living spirit and glory of the divine refulgent forces of the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Usha (dawn) are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When the preceding dawns appear, the great imperishable Mahattatva (the great principle) is manifested on the face of the earth. You should know that One God is adoring the vows and laws of the enlightened truthful persons, and is the life of the earth and all other elements.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The electric wave is present in the dawn and the men take it at that time. You should adore that One God, 'Supreme, who has no second and pervades the matter and all other objects and He upholds them.

    Foot Notes

    (देवानाम्) । विदुषाम | विद्वांसो हि देवा: । ( Stph वं 3, 7, 3, 10 ) सत्यमया व देवा: एतरेय ब्रा 1, 6 कौषीतकी 2, 8, अष्टो वसवः एकादश रुद्रा: द्वादश आदित्या: प्रजापतिश्च वषटकारश्च । एतावन्तो ब्रा० वं देवा: (ऐत० 2,18,37, 3 जैमिनीय 2, 201,) अष्टो वसवः - कतवै वसव इति । अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्याश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि वै ते वसवः । एतेहीदं सर्वं वासयन्ते ते यदिदं सर्व वासयन्ते तस्माद् वसव इति । ( Stph. 11, 6, 3, 6 जैमिनीय० 2, 77 ) प्राणो वा असु: । (Stph. 6,6,2, 6) स एषोऽसुः स एष प्राण: । ( ऐतरेयारण्य के 2, 1, 8 ) 12 पृथिव्यादी - नाम् = Of the and other objects (असुरत्वम् ) यत् असुषु प्राणेषु रमते तत् = That which is present in the Pranas or vital energy.

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