ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न ता मि॑नन्ति मा॒यिनो॒ न धीरा॑ व्र॒ता दे॒वानां॑ प्रथ॒मा ध्रु॒वाणि॑। न रोद॑सी अ॒द्रुहा॑ वे॒द्याभि॒र्न पर्व॑ता नि॒नमे॑ तस्थि॒वांसः॑॥
स्वर सहित पद पाठन । ता । मि॒न॒न्ति॒ । मा॒यिनः॑ । न । धीराः॑ । व्र॒ता । दे॒वाना॑म् । प्र॒थ॒मा । ध्रु॒वाणि॑ । न । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒द्रुहा॑ । वे॒द्याभिः॑ । न । पर्व॑ताः । नि॒ऽनमे॑ । त॒स्थि॒ऽवांसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ता मिनन्ति मायिनो न धीरा व्रता देवानां प्रथमा ध्रुवाणि। न रोदसी अद्रुहा वेद्याभिर्न पर्वता निनमे तस्थिवांसः॥
स्वर रहित पद पाठन। ता। मिनन्ति। मायिनः। न। धीराः। व्रता। देवानाम्। प्रथमा। ध्रुवाणि। न। रोदसी इति। अद्रुहा। वेद्याभिः। न। पर्वताः। निऽनमे। तस्थिऽवांसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरगुणानाह।
अन्वयः
हे मनुष्या ईश्वरेण देवानां यानि प्रथमा ध्रुवाणि व्रतोपदिष्टानि निर्मितानि वा ता मायिनो न मिनन्ति धीरा न मिनन्ति रोदसी न मिनुतोऽद्रुहा न मिनुतो वेद्याभिस्सह निनमे वर्त्तमानास्तस्थिवांसः पर्वताश्च न मिनन्ति तानि यूयं विदित्वाचरत ॥१॥
पदार्थः
(न) (ता) तानि (मिनन्ति) हिंसन्ति (मायिनः) निन्दिता माया प्रज्ञा येषान्ते (न) (धीराः) ध्यानवन्तः श्रेष्ठाः (व्रता) उत्तमानि कर्माणि (देवानाम्) आप्तानां विदुषाम् (प्रथमा) आदिमानि (ध्रुवाणि) अखण्डितानि (न) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अद्रुहा) द्रोहरहितावध्यापकोपदेशकौ (वेद्याभिः) वेत्तुं योग्याभिः प्रजाभिः (न) निषेधे (पर्वताः) शैलाः (निनमे) नमनीये स्थाने (तस्थिवांसः) तिष्ठन्तः ॥१॥
भावार्थः
नहि कस्यापि शक्तिरस्ति य ईश्वरकृतान्नियमानुल्लङ्घेत यस्य निर्भ्रमानि शन्तमानि कर्माणि सन्ति तमेव दयानिधिं परमेश्वरं सर्व उपासीरन् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब छप्पनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों को कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! ईश्वर ने (देवानाम्) यथार्थवादी विद्वानों के जो (प्रथमा) आदि में वर्त्तमान (ध्रुवाणि) अखण्डित (व्रता) उत्तम कर्म उपदेश किये गये वा रचे गये (ता) उनका (मायिनः) निन्दित बुद्धिवाले (न) नहीं (मिनन्ति) नाश करते हैं (धीराः) ध्यान करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष नहीं नाश करते हैं (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी (न) नहीं नाश करते हैं (अद्रुहा) द्रोह से रहित अध्यापक और उपदेशक (न) नहीं नाश करते हैं (वेद्याभिः) जानने के योग्य प्रजाओं के साथ (निनमे) नवने के योग्य स्थान में (तस्थिवांसः) स्थित होते हुए (पर्वताः) पर्वत (न) नहीं नाश करते हैं, उनको आप जान के आचरण करो ॥१॥
भावार्थ
किसी का भी सामर्थ्य नहीं है कि जो ईश्वर के किये हुए नियमों का उल्लङ्घन करै और जिस परमेश्वर के भ्रमरहित सुखरूप कर्म हैं, उसी दयानिधि परमेश्वर की सब लोग उपासना करो ॥१॥
विषय
मायी धीर पुरुषों की दृढ़ता
पदार्थ
[१] (देवानाम्) = देवों के (व्रता) = व्रत (प्रथमा) = सर्वमुख्य हैं और (ध्रुवाणि) = ध्रुव हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथिवी, जल तेज आदि सब देव अपने व्रतों में चल रहे हैं-कभी अपने व्रत से ये विचलित नहीं होते। (ता) = इनके उन व्रतों को (न मायिन:) = न तो प्रज्ञावान् पुरुष और (न धीराः) = न धीरधैर्य वृत्तिवाले पुरुष (मिनन्ति) = हिंसित करते हैं। ये तो सूर्य और चन्द्रमा [आदि] की तरह कल्याण के मार्ग पर चलते रहते हैं । [२] (वेद्याभिः) = ज्ञातव्य बातों के ज्ञान द्वारा (अद्रुहा) = परस्पर द्रोह से वर्जित (रोदसी) = द्यावापृथिवी को शरीर व मस्तिष्क को ये प्रज्ञावान् धीर पुरुष (न) [मिनन्ति] = हिंसित नहीं करते। 'शरीर को कैसे स्वस्थ रखना तथा मस्तिष्क को कैसे दीप्त बनाना' इन बातों को समझकर ये पुरुष शरीर व मस्तिष्क को हिंसित नहीं होने देते। इनके जीवन में स्वस्थ शरीर मस्तिष्क को दीप्त करता तथा दीप्त मस्तिष्क शरीर को स्वस्थ बनाता है। [३] ये मायी धीर पुरुष (तस्थिवांसः) = स्थिरवृत्ति के होते हैं, (पर्वता:) = पर्वतों के समान अविचल होते हैं अथवा [पूर्व पूरणे] अपना पूरण करनेवाले होते हैं। (न निनमे) = किन्हीं प्रलोभनों व भगों के कारण ये अपने व्रतों से नत नहीं हो जाते-झुक नहीं जाते।
भावार्थ
भावार्थ- प्रज्ञावान् धीर पुरुष [क] सूर्य-चन्द्रादि की तरह अपने मार्ग का आक्रमण करते हैं । [ख] शरीर व मस्तिष्क को स्वस्थ व दीप्त बनाते हैं, [ग] स्थिरवृत्ति बनकर व्रतों से विचलित नहीं होते।
विषय
स्थिर नियमों और कर्त्तव्यों का उपदेश।
भावार्थ
(देवानां) दिव्य पदार्थों, विद्वानों और वीर पुरुषों के बीच में जो (प्रथमा) पहले (ध्रुवाणि) ध्रुव, स्थिर, नित्य (व्रता) कर्त्तव्य-कर्म और नियम हैं (ता) उनको (न मायिनः) न कुटिल मायावी वा बड़े बुद्धिशील और (न धीराः) न धीर प्रज्ञावान् पुरुष ही (मिनन्ति) उल्लंघन कर सकते हैं। और (अद्रुहा) परस्पर द्रोह न करने वाली (रोदसी) आकाश और भूमि के तुल्य परस्पर प्रेम युक्त स्त्री पुरुष वा गुरु शिष्य, प्रजा राजा भी उन नियमों को नहीं तोड़ें। और (न) न (तस्थिवांसः) स्थायी रूप से रहने वाले (पर्वताः) पर्वतों के समान अचल एवं प्रजाओं को पालन करने में समर्थ पुरुष भी (वेद्याभिः) प्राप्त: करने योग्य प्रजाओं सहित (निनमे) विनय से स्वीकार करने के अवसर में उन व्रतों, कर्मों और धर्मों का उल्लंघन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर, जग व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
ईश्वराच्या नियमांचे उल्लंघन करण्याचे सामर्थ्य कुणातही नाही व ज्या परमेश्वराचे कर्म भ्रमरहित आहे त्याच दयानिधी परमेश्वराची सर्व लोकांनी उपासना करावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Original and inviolable are the laws and observances of divine forces in nature and in humanity. Enchanters cannot transgress them, wise men of steady mind do not violate them. Neither heaven and earth, nor scholars free from hate and jealousy with all their knowledge, nor the fixed mountains can break or bend the strong and resolute.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the inviolable and primitive noble acts that have been taught by God for the benefit of the reliable enlightened persons, can not be violated by the deceitful wicked persons, nor by good men of meditative nature. They can not be transgressed in the heaven and earth, nor by teachers and preachers, free from malice. They can not be violated by the subjects whether living on the hills or low regions. You should also know them well and act in accordance with them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No one has the power of transgressing the laws enacted by God. All should have communion with that God, Who is the treasure of mercy and Whose acts are like immeasurable ocean and givers of abiding peace.
Foot Notes
(मिनन्ति ) हिंसन्ति | = Violate or transgress. (अद्रुहा ) द्रोहर हितावध्यापकोपदेशकौ = Teachers and preachers. who are free from malice. (निनमे ) नमनीये स्थाने । = In a low region.
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