ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - ऋभवः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
इ॒हेह॑ वो॒ मन॑सा ब॒न्धुता॑ नर उ॒शिजो॑ जग्मुर॒भि तानि॒ वेद॑सा। याभि॑र्मा॒याभिः॒ प्रति॑जूतिवर्पसः॒ सौध॑न्वना य॒ज्ञियं॑ भा॒गमा॑न॒श॥
स्वर सहित पद पाठइ॒हऽइ॑ह । वः॒ । मन॑सा । ब॒न्धुता॑ । न॒रः॒ । उ॒शिजः॑ । ज॒ग्मुः॒ । अ॒भि । तानि॑ । वेद॑सा । याभिः॑ । मा॒याभिः । प्रति॑जूतिऽवर्पसः । सौध॑न्वनाः । य॒ज्ञिय॑म् । भ॒गम् । आ॒न॒श ॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेह वो मनसा बन्धुता नर उशिजो जग्मुरभि तानि वेदसा। याभिर्मायाभिः प्रतिजूतिवर्पसः सौधन्वना यज्ञियं भागमानश॥
स्वर रहित पद पाठइहऽइह। वः। मनसा। बन्धुता। नरः। उशिजः। जग्मुः। अभि। तानि। वेदसा। याभिः। मायाभिः। प्रतिजूतिऽवर्पसः। सौधन्वनाः। यज्ञियम्। भगम्। आनश॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
हे नरो या उशिजो मनसेहेह वो या बन्धुता तया तान्यभिजग्मुर्याभिर्मायाभिः प्रतिजूतिवर्पसो वेदसा सौधन्वनाः सन्तो यज्ञियं भागमानश ते भाग्यशालिनो भवन्ति ॥१॥
पदार्थः
(इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (वः) युष्माकम् (मनसा) चित्तेन (बन्धुता) बन्धूनां भावः (नरः) नायकाः (उशिजः) कामयमानाः (जग्मुः) (अभि) (तानि) मित्रत्वयुक्तानि कर्माणि (वेदसा) वित्तेन (याभिः) (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (प्रतिजूतिवर्पसः) प्रतीतं जूतिर्वेगवद्वर्पो रूपं येषान्ते (सौधन्वनाः) शोभनं धन्वमन्तरिक्षं यस्य तदपत्यानि तस्य पुत्राः (यज्ञियम्) यज्ञाऽर्हम् (भागम्) (आनश) आनशिरे व्याप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं पुरुषव्यत्ययश्च ॥१॥
भावार्थः
ये मनुष्या इह जगति सर्वैस्सह भ्रातृत्वं कृत्वा बुद्ध्या धनेन च सुखं वर्द्धयन्ति तेऽलंकामा जायन्ते ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले साठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजविषय का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
हे (नरः) नायक लोगो ! जो (उशिजः) कामना करते हुए (मनसा) चित्त से (इहेह) इस-इस व्यवहार में (वः) आप लोगों का जो (बन्धुता) बन्धुपन उससे तानि उन मित्रपने से युक्त कामों को (अभि, जग्मुः) प्राप्त होते हैं और (याभिः) जिन (मायाभिः) बुद्धियों से (प्रतिजूतिवर्प्पसः) प्रतीत हुआ वेगयुक्त रूप जिनका वे (वेदसा) धन से (सौधन्वनाः) उत्तम अन्तरिक्ष जिसका उसके पुत्र होते हुए (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य (भागम्) अंश को (आनश) व्याप्त होते और भाग्यशाली होते हैं ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस संसार में सबके साथ भाईपन करके बुद्धि और धन से सुख बढ़ाते, वे पूर्ण मनोरथवाले होते हैं ॥१॥
विषय
विश्वबन्धुत्व
पदार्थ
[१] हे (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगो ! (वः) = तुम्हारे (मनसा) = मन द्वारा (इह इह) = इसइस स्थान पर (बन्धुता) = बन्धुत्व है। आप मन में उस प्रभु को सबका पिता जानते हुए परस्पर बन्धुत्व का अनुभव करते हो । शारीरिक बन्धुत्व न भी हो, तो भी 'अन्ततः हम सब उस प्रभु के ही तो पुत्र हैं' ऐसा ध्यान करते हुए आप सब में भ्रातृत्व के भाव को धारण करते हो। [२] (उशिजः) = सब के हित की कामना करते हुए (वेदसा) ज्ञान द्वारा (तानि) = उन बन्धुत्वों को अनुभव करते हुए (अभिजग्मुः) = क्रियाओं को करते हैं। उनके कार्य सभी के हित के लिए होते हैं। [३] (याभिः मायाभिः) = जिन प्रज्ञानों द्वारा ये (प्रतिजूतिवर्पसः) = [प्रति पक्षाभिभवनशीलतेजोयुक्ताः सा० ] कामक्रोध आदि प्रतिपक्षियों के पराभवकारी तेज से युक्त हुए हुए, ये (सौधन्वना:) = उत्तम प्रणवरूप धनुषवाले होते हैं 'प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा'। उन द्वारा ये (यज्ञियं भागम्) = यज्ञिय भाग का (आनश) = सेवन करनेवाले होते हैं । वस्तुत: प्रज्ञान को प्राप्त करके [क] मनुष्य काम क्रोध आदि का संहार तो करता ही है, [ख] यह प्रणव का जप करता हुआ प्रभु से मेल के लिए उत्सुक होता है और [ग] सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- चिन्तनशील पुरुष सबके साथ बन्धुत्व को अनुभव करते हुए सर्वहितकारी कर्मों को करते हैं। ज्ञानवृद्धि द्वारा काम-क्रोध को पराभूत करके, प्रणव का जप करते हुए सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनते हैं।
विषय
ऋभु, विद्वान् जन, उत्तम नेता लोग, शिल्पी लोग, उनके नाना शिल्प, और कर्त्तव्य चमसों का रहस्य, चर्म की गौ का रहस्य।
भावार्थ
हे (नरः) नायक, नेता लोगो (उशिजः) नाना ऐश्वर्यों और प्राप्त करने योग्य पदार्थों की आकांक्षा करने वाले लोग (बन्धुता) परस्पर बन्धु रहते हुए (वः) आप लोगों के (मनसा) चित्त और ज्ञान से और (वः वेदसा) आप लोगों के धनैश्वर्य से (इह-इह) इस राष्ट्र या जगत् में स्थान २ पर (तानि) उन नाना ऐश्वर्यों को (अभि-जग्मुः) प्राप्त करें और वे (याभिः) दूर तक जाने वाली (मायाभिः) ज्ञानकारिणी बुद्धियों से युक्त होकर (प्रतिजूतिवर्षसः) शत्रुओं, प्रतिद्वन्द्वी, वेग, बल से युक्त शरीरों वाले, दृढ़ (सौधन्वनाः) उत्तम धनुर्धारी लोगों के अधीन सैनिक जन (सौधन्वनाः) उत्तम अन्तरिक्ष में उत्पन्न मेघ के उपासक कृषकादि वा उत्तम जलप्रद मेघ तुल्य सर्व ज्ञानप्रद विद्वान् जन (यज्ञियं भागं) यज्ञ, प्रजापति, राजा के द्वारा ग्रहण करने योग्य (भागं) कर बलि को वा (यज्ञियं) परस्पर सत्संग, मैत्री वा आदर से प्राप्त होने वाले अंश को (आनश) प्राप्त करें, भोगें। सुधन्वन ऋषयस्त्रयः पुत्राः ऋभुर्विभ्वा वाज इति। सत्य से अन्न, और धन से चमकने और सामर्थ्यवान् होने वाला पुरुष न्यायाधीश, अन्न पति और धनपति ऋभु हैं। विशेष भूमि का स्वामी वा सामर्थ्यवान् विभ्वा, है (वाजः) संग्रामकरी, बलवान् पुरुष ‘वाज’ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्दः- १, २, ३ जगती। ४, ५ निचृज्जगती। ६ विराड् जगती। ७ भुरिग्जगती॥ निषादः स्वरः॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजा, मंत्री व प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जी माणसे या जगात सर्वांबरोबर बंधुत्वाची भावना बाळगून बुद्धी व धन याद्वारे सुख वाढवितात, त्यांचे मनोरथ पूर्ण होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Rbhus, leaders of science and technology, your intelligential fraternity is right here and here only, where men of passion and determination advance and reach those goals by that art and those techniques, miraculous ones, by which you, warriors of the bow and children of the skies, instantly changing roles and taking tempestuous forms, achieve your rightful share of the fruits of yajnic endeavour.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders! the wisemen intently desirous of the welfare of all in this dealing have a sense of brotherhood with all and they perform friendly acts and possess good appearance and hectic activity. Besides they possess good intellect being the sons of noble hearted persons (or of those artists who travel in the firmament well with their aircrafts), and obtain their share in the Yajna and become very fortunate.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men get their noble desires fulfilled, who behaving in brotherly fashion increase the intellectual and monetary happiness of all.
Foot Notes
(उशिजः) कामयमाना: उशिग् वष्टेः कान्तिकर्मणः इति (NKT 6, 3, 11 ) उशिज इति मेधाविनाम (NG 3, 15 ) = Desiring the welfare of all (वेदसा ) वित्तेन । वेद: इति धननाम (NG 210) = With wealth. (प्रतिजूतिवर्पस) प्रतीतं जूतिवेंगवद् वर्पो रूपं येषान्ते = Possessing good form with speed or active nature. (मायाभि:) प्रज्ञाभिः । मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) वर्ण इति रूपनाम = (NG 3, 7 ) = With good intellect.
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