ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मा उ॑ वां भृ॒मयो॒ मन्य॑माना यु॒वाव॑ते॒ न तुज्या॑ अभूवन्। क्व१॒॑त्यदि॑न्द्रावरुणा॒ यशो॑ वां॒ येन॑ स्मा॒ सिनं॒ भर॑थः॒ सखि॑भ्यः॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । वा॒म् । भृ॒मयः॑ । मन्य॑मानाः । यु॒वाऽव॑ते । न । तुज्याः॑ । अ॒भू॒व॒न् । क्व॑ । त्यत् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । यशः॑ । वा॒म् । येन॑ । स्म॒ । सिन॑म् । भर॑थः । सखि॑ऽभ्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ वां भृमयो मन्यमाना युवावते न तुज्या अभूवन्। क्व१त्यदिन्द्रावरुणा यशो वां येन स्मा सिनं भरथः सखिभ्यः॥
स्वर रहित पद पाठइमाः। ऊँ इति। वाम्। भृमयः। मन्यमानाः। युवाऽवते। न। तुज्याः। अभूवन्। क्व। त्यत्। इन्द्रावरुणा। यशः। वाम्। येन। स्म। सिनम्। भरथः। सखिऽभ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्राध्यापकोपदेशकविषयमाह।
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ या वामिमा मन्यमाना भृमयो युवावते तुज्या नाभूवन् तथा कुरुतम्। हे इन्द्रावरुणा येन वां सखिभ्यः सिनं स्म भरथस्त्यद्यशो वामु क्वास्ति ॥१॥
पदार्थः
(इमाः) (उ) (वाम्) युवयोः (भृमयः) भ्रमणानि (मन्यमानाः) (युवावते) त्वां रक्षते (न) निषेधे (तुज्याः) हिंसनीयाः (अभूवन्) भवेयुः (क्व) कस्मिन् (त्यत्) तत् (इन्द्रावरुणा) विद्युद्वायू इव वर्त्तमानौ (यशः) कीर्त्तिः (वाम्) युवयोः (येन) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सिनम्) अन्नादिकम्। सिनमित्यन्नना०। निघं० २। ७। (भरथः) (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः ॥१॥
भावार्थः
येऽध्यापकोपदेशका वायुविद्युद्वदुपकारकाः कीर्त्तिमन्तः प्रियाचरणाः स्युस्तेभ्यः स्नेहेनाऽन्नादिकं देयम्। तैस्सह सर्वैर्मित्रता च रक्षणीया ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अठारह ऋचावाले बासठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्र, अध्यापक और उपदेशकों के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशक ! जो (वाम्) आप दोनों के (इमाः) ये वर्त्तमान (मन्यमानाः) आदर किये गये (भृमयः) घूमने आदि (युवावते) आपकी रक्षा करनेवाले के लिये (तुज्याः) हिंसा करने के योग्य (न) नहीं (अभूवन्) होवैं वैसे करिये और हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और वायु के सदृश वर्त्तमान ! (येन) जिस यश से (वाम्) आप दोनों के (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (सिनम्) अन्न आदि को (स्म) ही (भरथः) धारण करते हो (त्यत्) वह (यशः) यश (उ) ही (क्व) कहाँ है ॥१॥
भावार्थ
जो अध्यापक और उपदेशक लोग वायु और बिजुली के सदृश उपकार करनेवाले कीर्त्ति से युक्त और प्रिय आचरण करनेवाले होवैं, उनके लिये स्नेह से अन्न आदि देना और उनके साथ सदा ही मित्रता की रक्षा करनी चाहिये ॥१॥
विषय
भृमयो मन्यमानाः = आलस्यशून्य-ज्ञानतत्पर
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र व वरुण देवो! (वाम्) = आप की (इमाः) = ये (भृमयः) = भ्रमणशीलआलस्यशून्य (मन्यमानाः) = ज्ञान को प्राप्त करनेवाली प्रजाएँ (युवावते) = यौवनवाले, अर्थात् अत्यन्त प्रबल कामरूप शत्रु के लिए (तुज्या:) = हिंसनीय (न अभूवन्) = नहीं होतीं। 'इन्द्र और वरुण की प्रजाओं' का भाव है वे व्यक्ति, जो जितेन्द्रिय व निवृत्त पाप बनने का प्रयत्न करते हैं। ये 'आलस्यशून्य' व 'ज्ञानतत्पर' होते हुए कामवासना के शिकार नहीं होते। [२] (इन्द्रावरुणा) = हे इन्द्र और वरुण देवो! (वाम्) = आपका (त्यत् यशः) = वह यश (क्व) = कहाँ है, (येन) = जिसके द्वारा (सखिभ्यः) = हम मित्रों के लिए (सिनम्) = शरीर को (भरथः) = निश्चय से पुष्ट करते हो [सिनम्=the Body] । 'जितेन्द्रियता व पापनिवृत्ति' हमारे शरीर की सब शक्तियों का उचित रूप में पोषण करती हैं। हम 'इन्द्र और वरुण' के मित्र बनते हैं और वे हमारे शरीर का पोषण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्र और वरुण की हम प्रजा बनें, अर्थात् जितेन्द्रिय बनकर पाप-भावनाओं से निवृत्त हों। ऐसा होने पर हमारी सब शक्तियों का समुचित पोषण होगा।
विषय
सूर्य मेघवत् राजा सेनापति के कर्त्तव्यों का उपदेश इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, पूषा आदि नाना विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्रा वरुणा) ऐश्वर्यवन् ! इन्द्र सूर्य, विद्युत् के तुल्य तेजस्विन् ! हे वरुण ! सबके आवरण करने वाले अन्धकार वा रात्रि के तुल्य सबको वश करने वाले सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय पुरुष ! (इमाः) ये (ऊ) ही (वां) तुम दोनों की (मन्यमानाः) जानी गई (भृमयः) भ्रमण की क्रियाएं हैं जो (युवावते) तुम दोनों की रक्षा करने वाले और तुम दोनों को चाहने वाले सज्जन के हित के लिये कभी (तुज्याः न अभूवन्) नाश होने योग्य नहीं हैं। हे (इन्द्रा वरुणा) सूर्य और मेघ के समान राजन् सेनापते ! (वां) तुम दोनों का (त्यत् यशः क्व) वह यश और तेज कहां स्थित है (येन) जिससे आप दोनों (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (सिनं) परस्पर प्रेम बांधने वाले बल और अन्न को पुष्ट करते हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। १६–१८ विश्वामित्रो जमदग्निर्वा ऋषिः॥ १-३ इन्द्रावरुणौ। ४–६ बृहस्पतिः। ७-९ पूषा। १०-१२ सविता। १३–१५ सोमः। १६–१८ मित्रावरुणौ देवते॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ५, १०, ११, १६ निचृद्गायत्री। ६ त्रिपाद्गायत्री। ७, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १७, १८ गायत्री॥ अष्टदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र, अध्यापक, शिकणारे, श्रोते, उपदेशक, परमात्मा, विद्वान, प्राण व उदान इत्यादी गुणांचे वर्णन करण्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
जे अध्यापक व उपदेशक वायू व विद्युतप्रमाणे उपकार करणारे, कीर्तियुक्त, प्रिय आचरण करणारे असतात, त्यांच्यासाठी स्नेहाने अन्न इत्यादी द्यावे व त्यांच्याबरोबर सदैव मैत्री करावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Varuna, powers of energy and water, these circuitous revolutions of your energy, highly valuable and undeniable, are not to be opposed or damaged for both of you in the interest of protection and progress, for, if they are damaged, where would be that honour and reputation of yours by which you bear and bring food and comfort for your friends?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of friendly teachers and preachers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! may your mass preaching and teaching persons' teams receive due recognition from all and not abjure your protectors and supporters. The teachers and preachers are like energy and air, because of their good reputation, they sustain their friends with ample and good food stocks.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those teachers and preachers who are benevolent to others like air and energy; are illustrious and they have pleasing conduct. Such men should lovingly give food and others things. All should keep friendship with them.
Foot Notes
(भूमयः) भ्रमणानि । = Wanderings. (तुज्या:) हिसंनीया: = Harmful. (इन्द्रावरुणा ) विद्युद्वासू इव वर्त्तंमानौ । = Teachers and preachers who are benevolent like energy and air. (सिनम् ) अन्नादिकम् | = सिनमित्यन्ननाम (NG 2, 7) स्तनयित्नुरेवेन्द्र, ( Stph 11, 6, 3,) 9 = यदशनिरिन्द्रस्तेन (Kaushataka-6, 9) वातौ वरुणः | Maitrayani Sanhi 4, 8, 5, Stph 12, 9, 1, 16 ) = Food grains and other things. Proper arrangements should be made during the tours of teachers and preachers so that owing to over crowding etc. or other causes, none may be harmed or injured.
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