Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ञ्जन्ति॒ त्वाम॑ध्व॒रे दे॑व॒यन्तो॒ वन॑स्पते॒ मधु॑ना॒ दैव्ये॑न। यदू॒र्ध्वस्तिष्ठा॒ द्रवि॑णे॒ह ध॑त्ता॒द्यद्वा॒ क्षयो॑ मा॒तुर॒स्या उ॒पस्थे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ञ्जन्ति॑ । त्वाम् । अ॒ध्व॒रे । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । वन॑स्पते । मधु॑ना । दैव्ये॑न । यत् । ऊ॒र्ध्वः । ति॒ष्ठाः॑ । द्रवि॑ना । इ॒ह । ध॒त्ता॒त् । यत् । वा॒ । क्षयः॑ । मा॒तुः । अ॒स्याः । उ॒पऽस्थे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अञ्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तो वनस्पते मधुना दैव्येन। यदूर्ध्वस्तिष्ठा द्रविणेह धत्ताद्यद्वा क्षयो मातुरस्या उपस्थे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अञ्जन्ति। त्वाम्। अध्वरे। देवऽयन्तः। वनस्पते। मधुना। दैव्येन। यत्। ऊर्ध्वः। तिष्ठाः। द्रविणा। इह। धत्तात्। यत्। वा। क्षयः। मातुः। अस्याः। उपऽस्थे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्याः केषां कामनां कुर्य्युऽरित्याह।

    अन्वयः

    हे वनस्पते ! मधुना दैव्येन सह वर्त्तमाना देवयन्तो विद्वांसो यद्यं त्वामध्वरे अञ्जन्ति स त्वं येषामूर्ध्वस्तिष्ठा इह द्रविणा वा धत्तादस्या मातुरुपस्थे यत् क्षयोऽस्ति तद्वयमपि गृह्णीयाम ॥१॥

    पदार्थः

    (अञ्जन्ति) कामयन्ते (त्वाम्) (अध्वरे) अध्ययनाध्यापनराजपालनादिव्यवहारे (देवयन्तः) कामयमानाः (वनस्पते) वनस्य रश्मिसमूहस्य पालकः सूर्य्यस्तद्वद्वर्त्तमान (मधुना) मधुरस्वभावेन (दैव्येन) देवेषु विद्वत्सु भवेन (यत्) यम् (ऊर्ध्वः) सद्गुणैरुत्कृष्टः (तिष्ठाः) तिष्ठेः (द्रविणा) द्रविणानि धनानि (इह) अस्मिन् संसारे (धत्तात्) दध्याः (यत्) (वा) (क्षयः) निवासस्थानम् (मातुः) माननिमित्तायाः (अस्याः) भूमेः (उपस्थे) समीपे ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सर्वे प्राणिनो दिनं कामयन्ते तथैवोत्तमान्विदुषः सर्वे कामयन्ताम्। सर्वे मिलित्वा प्रीत्योत्तमं गृहमैश्वर्य्यं च साध्नुवन्ति ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तीसरे मण्डल के आठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य लोग किसकी कामना करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वनस्पते) किरणों के रक्षक सूर्य्य के समान वर्त्तमान तेजस्वी विद्वन् ! (मधुना) (दैव्येन) विद्वानों में हुए कोमल स्वभाव के साथ वर्त्तमान (देवयन्तः) कामना करते हुए विद्वान् (यत्) जिन (त्वाम्) आपको (अध्वरे) पढ़ने-पढ़ाने और राज्य पालनादि व्यवहार में (अञ्जन्ति) चाहते हैं, सो आप जिनके बीच (ऊर्ध्वः) श्रेष्ठ गुणों से बढ़े हुए (तिष्ठाः) स्थित हूजिये (वा) और (इह) इस संसार में (द्रविणा) धनों को (धत्तात्) धारण करो (अस्याः) इस (मातुः) मान देनेवाली भूमि के (उपस्थे) समीप गोद में (यत्) जो (क्षयः) निवास्थान है, उसको हम लोग ग्रहण करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्राणी दिन को चाहते हैं, वैसे ही उत्तम विद्वान् लोगों को सब मनुष्य चाहें। सब मिल के प्रीति से उत्तम घर और ऐश्वर्य्य की सिद्धि करें ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभुप्राप्ति के साधन

    पदार्थ

    [१] हे (वनस्पते) = ज्ञानरश्मियों के स्वामिन् ! (देवयन्तः) = दिव्यगुणों की कामनावाले पुरुष (त्वा) = आपको (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (अञ्जन्ति) = प्राप्त होते हैं । (दैव्येन मधुना) = देव से उत्पादित मधु द्वारा वे आपको प्राप्त होते हैं। शरीर में ओषधियों का सारभूत अन्तिम तत्त्व (सोम) = वीर्य है । यही 'मधु' है। परमात्मा की व्यवस्था से उत्पन्न होने के कारण यह 'दैव्य मधु' कहलाता है। इसके रक्षण से बुद्धि अत्यन्त सूक्ष्म बनती है और इस सूक्ष्मबुद्धि द्वारा यह साधक प्रभु का दर्शन करनेवाला बनता है एवं प्रभुप्राप्ति के निम्न उपायों का संकेत स्पष्ट है- [क] जीवन को अहिंसावाला व यज्ञात्मक बनाना [अध्वरे], [ख] दिव्यगुण-प्राप्ति की प्रबल कामनावाला होना [देवयन्तः], [ग] शरीर में सोमशक्ति का रक्षण करना [मधुना दैव्येन]। [२] हे प्रभो ! (यद्) = जब आप (ऊर्ध्वः तिष्ठा) = हमारे जीवनों में सबसे ऊपर स्थित होते हैं तो (इह) = यहाँ हमारे जीवन में आप (द्रविणा धत्तात्) = सब आवश्यक धनों को धारण करते हैं । (यद्वा) = अथवा कम से कम इस उपासक का (अस्याः मातुः उपस्थे) = इस पृथिवी माता की गोद में (क्षयः) = निवास होता है। इसका जीवन उसी प्रकार सौन्दर्य से बीत जाता है, जैसे कि बच्चे का माता की गोद में। इसको जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कभी चिन्ता नहीं करनी पड़ती। इनकी पूर्ति के लिये आवश्यक धन इसे सदा प्राप्त रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जीवन को यज्ञमय बनायें, दिव्यगुणों की कामनावाले हों और सोम का रक्षण करें। ऐसा करने पर हमें प्रभु प्राप्त होंगे। प्रभु हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करेंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वृक्षवत् विद्वान् का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (वनस्पते) किरणों के पालक सूर्य के समान राष्ट्रैश्वर्य के विभागों के भोक्ता, प्रजाजनों के पालक, विद्या की याचना करनेवाले शिष्यजनों के पालक विद्वन् ! तू (यत्) जब (ऊर्ध्वः) गुणों और अधिकारों में सबसे उत्कृष्ट होकर (तिष्ठ) रह । और (इह) इस राष्ट्र और शिष्य में (द्रविणा) नाना ऐश्वर्य (धत्तात्) धारण करा (यत् वा) और जब (अस्याः मातुः) इस सर्वोत्पादक माता पृथिवी के (उपस्थे) गोद में बालक के समान (क्षयः) तेरा निवास हो तब जिस प्रकार (देवयन्तः दैव्येन मधुना अञ्जन्ति) सूर्य की किरणें जल देनेवाले मेघ के समान होकर मेघस्थ जल से भूमि को सींचते हैं और वे स्वयं प्रकाशमान होकर सूर्य के प्रकाश से समस्त भूमि को प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार (अध्वरे) हिंसा रहित, प्रजाओं को नाश न करनेवाले राष्ट्रपालन रूप व्यवहार में (त्वाम्) तुझको (देवयन्तः) चाहते हुए (दैव्येन) देव, विद्वानों के योग्य (मधुना) अन्न और ज्ञान से (त्वाम् अञ्जन्ति) तुझे प्रकाशित करते और तुझे ही चाहते हैं । (२) शिष्य के पक्ष में—(देवयन्तः) विद्वान् जन मुझे चाहते हुए ज्ञान से तुझे चमकावें तू ऊंचा, उन्नत हो, माता के समान पालक ज्ञान-जन्म के दाता, ज्ञानवान् आचार्य के समीप तेरा निवास हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः- १, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, ११ त्रिष्टुप्॥ ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७ स्वराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान, वेदपाठी व ब्रह्मचारी यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सर्व प्राण्यांना दिवस आवडतो तसेच उत्तम विद्वान लोक सर्व माणसांना आवडतात. सर्वांनी मिळून प्रेमाने उत्तम घर व ऐश्वर्य सिद्ध करावे. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vanaspati, lord of sunbeams and earth’s greenery, aspiring lovers of divinity celebrate you in their yajnic programmes of education, governance and administration, and economic management and production, and they honour you with the celestial presentation of honeyed words in faith. Whether you abide higher up in the heavens or lie here nestled in the folds of this mother earth’s bosom, bear and bring, we pray, the riches of existence for the supplicants.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The characteristic marks of the ideal persons are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you are brilliant like the sun, and the protector of rays. We may also seek that abode on the earth lived by the enlightened men. They are endowed with sweet behavior and they desire welfare of all through Yajna (nonviolent sacrifice) in the form of study, teaching and administration. You stand exalted and grant us wealth in this world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As all beings desire the day, so all should desire the association of the noble enlightened persons. Thus they accomplish unitedly and lovingly good home and prosperity.

    Foot Notes

    (क्षय:) निवासस्थानम् | क्षि-निवास गत्यो: (तुदा) = Abode. (वनस्पते) वनस्य रश्मिसमूहस्य पालक: सूर्य्यस्तद्वद्वर्त्तंमान | वन इति रश्मिनाम (N.G. 1, 5) या-रक्षणे | Behaving like the resplendent sun-the protecting of the band of rays. (अध्वरे ) अध्ययनाध्यापनराजपालानदि व्यवहारे । =In the dealing of the Yajna (non-violent sacrifice) in the form of the study, teaching and administration.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top