ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
त्वां ह्य॑ग्ने॒ सद॒मित्स॑म॒न्यवो॑ दे॒वासो॑ दे॒वम॑र॒तिं न्ये॑रि॒र इति॒ क्रत्वा॑ न्येरि॒रे। अम॑र्त्यं यजत॒ मर्त्ये॒ष्वा दे॒वमादे॑वं जनत॒ प्रचे॑तसं॒ विश्व॒मादे॑वं जनत॒ प्रचे॑तसम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । हि । अ॒ग्ने॒ । सद॑म् । इत् । स॒ऽम॒न्यवः॑ । दे॒वासः॑ । दे॒वम् । अ॒र॒तिम् । नि॒ऽए॒रि॒रे । इति॑ । क्रत्वा॑ । नि॒ऽए॒रि॒रे । अम॑र्त्यम् । य॒ज॒त॒ । मर्त्ये॑षु । आ । दे॒वम् । आऽदे॑वम् । ज॒न॒त॒ । प्रऽचे॑तसम् । विश्व॑म् । आऽदे॑वम् । ज॒न॒त॒ । प्रऽचे॑तसम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां ह्यग्ने सदमित्समन्यवो देवासो देवमरतिं न्येरिर इति क्रत्वा न्येरिरे। अमर्त्यं यजत मर्त्येष्वा देवमादेवं जनत प्रचेतसं विश्वमादेवं जनत प्रचेतसम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। हि। अग्ने। सदम्। इत्। सऽमन्यवः। देवासः। देवम्। अरतिम्। निऽएरिरे। इति। क्रत्वा। निऽएरिरे। अमर्त्यम्। यजत। मर्त्येषु। आ। देवम्। आऽदेवम्। जनत। प्रऽचेतसम्। विश्वम्। आऽदेवम्। जनत। प्रऽचेतसम्॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वाणीविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! ये समन्यवो देवासो ह्यरतिं देवं सदं त्वामिन्न्येरिरे तस्मादिति क्रत्वा माञ्च न्येरिरे तम्मर्त्येष्वमर्त्यं यजत। आदेवमादेवं प्रचेतसं जनत इति क्रत्वा विश्वमा देवं प्रचेतसमाजनत ॥१॥
पदार्थः
(त्वाम्) (हि) यतः (अग्ने) विद्वन् (सदम्) गृहमिव स्थितिपदम् (इत्) एव (समन्यवः) मन्युना क्रोधेन सह वर्त्तमानाः (देवासः) विद्वांसः (देवम्) दिव्यगुणप्रदम् (अरतिम्) प्रापणीयम् (न्येरिरे) निश्चयेन प्राप्नुयुः (इति) अनेन प्रकारेण (क्रत्वा) (न्येरिरे) प्रेरयन्ति (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहितम् (यजत) पूजयत (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु (आ) समन्तात् (देवम्) देदीप्यमानम् (आदेवम्) समन्तात् प्रकाशकम् (जनत) प्रसिद्ध्या प्रकाशयत (प्रचेतसम्) प्रकृष्टप्रज्ञायुक्तम् (विश्वम्) सर्वम् (आदेवम्) समन्ताद्विद्याप्रकाशयुक्तम् (जनत) उत्पादयत (प्रचेतसम्) विविधप्रज्ञानयुक्तम् ॥१॥
भावार्थः
यद्यदध्यापको राजा च भ्रकुटीं कुटिलां कृत्वा विद्यार्थिनोऽमात्यप्रजाजनाँश्च प्रेरयेत्तर्हि ते सुसभ्या विद्वांसो धार्मिकाश्च जायन्ते। ये मरणधर्म्येष्वमरणधर्माणं स्वप्रकाशरूपं परमात्मानमुपास्य सर्वान् मनुष्यान् प्राज्ञान् विदुषो जनयन्ति त एव सर्वदा सत्कर्त्तव्याः सुखिनश्च भवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चतुर्थ मण्डल में बीस ऋचा वाले प्रथम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वाणी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! जो (समन्यवः) क्रोध के सहित वर्त्तमान (देवासः) विद्वान् लोग (हि) जिससे कि (अरतिम्) पहुँचाने योग्य (देवम्) उत्तम गुणों के और (सदम्) गृह के तुल्य स्थिति के देनेवाले (त्वाम्) आपकी (इत्) ही (न्येरिरे) प्रेरणा करते हैं, इससे (इति) इस प्रकार (क्रत्वा) करके (न्येरिरे) मुझे भी निश्चयकर प्राप्त होवें और उस (मर्त्येषु) मरणधर्मवालों में (अमर्त्यम्) मरणधर्म से रहित परमात्मा की (यजत) पूजा करो और (आदेवम्) सब प्रकार विद्या आदि के प्रकाश से युक्त (आदेवम्) सब प्रकार देदीप्यमान (प्रचेतसम्) उत्तम ज्ञान से युक्त (जनत) उत्पन्न करो, ऐसा करके (विश्वम्) सब के (आदेवम्) सब प्रकार प्रकाश और (प्रचेतसम्) उत्तम ज्ञानयुक्त (जनत) उत्पन्न करो ॥१॥
भावार्थ
जो अध्यापक और राजा भौंहें टेढ़ी करके विद्यार्थी मन्त्री और प्रजाजनों को प्रेरणा करें तो उत्तम श्रेष्ठ विद्वान् और धार्मिक होते हैं। जो मरणधर्म वालों में मरणधर्मरहित अपने प्रकाशस्वरूप परमात्मा की उपासना करके सब मनुष्यों को बुद्धिमान् विद्वान् करते हैं, वे ही सब काल में सत्कार करने योग्य और सुखी होते हैं ॥१॥
विषय
'समन्यु देवों का प्रभु दर्शन'
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वां हि) = आप को निश्चय से (सदम् इत्) = सदा ही (समन्यवः) = ज्ञान से युक्त (देवास:) = देववृत्ति के पुरुष (नि एरिरे) = अपने अन्दर प्रेरित करते हैं। (देवम्) = प्रकाशमय (अरतिम्) = संसार में अनासक्त आपको देव अपने अन्दर प्रेरित करते हैं (इति) = इसलिए हम यज्ञशील पुरुष क्रत्वा यज्ञों के द्वारा (न्येरिरे) = आपको अपने अन्दर प्रेरित करने का प्रयत्न करते हैं । [२] हे मनुष्यो ! (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (आ-देवम्) = समन्तात् प्रकाश को करनेवाले (अमर्त्यम्) = उस अमरणधर्मा प्रभु को (यजत) = तुम पूजनेवाले बनो। (आदेवम्) = उस समन्तात् दीप्तिवाले (प्रचेतसम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले प्रभु को (जनत) = ध्यान आदि के द्वारा अपने अन्दर आभिर्भूत करो । (विश्वम्) = उस सर्वत्र प्रविष्टसर्वव्यापक (आदेवम्) = सर्वतो दीप्तिमान् (प्रचेतसम्) = प्रकर्षेण चेतानेवाले प्रभु को (जनत) = अपने हृदयों में आविर्भूत करो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के प्रकाश को अपने हृदयों में अनुभव करने का प्रयत्न करें। इसके लिये 'स्वाध्याय की प्रवृत्तिवाले देव' बनने का प्रयत्न करें ।
विषय
उत्तम मार्गदर्शी और अग्रणी पुरुष के आदर का उपदेश ।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! ( समन्यवः ) ज्ञानवान् और शत्रु को विजय करने के लिये विशेष स्पर्द्धा व क्रोध से युक्त ( देवासः ) विद्यादि ऐश्वर्यों की कामना करने वाले शिष्य जन वा वीर जन ( देवं ) सर्व विज्ञान-प्रकाशक, विद्यादाता और विजयेच्छुक, और ( अरतिं ) प्राप्त होने योग्य, सर्वोपरि, सबसे अधिक मतिमान्, ( त्वां ) तुझको (हि) ही निश्चय से, ( सदम् इत् ) अपने शरण वा आश्रय जानकर ( नि एरिरे ) तुझे प्राप्त होते हैं और प्राप्त हों ( इति ) इस प्रकार के, तदनुकूल ( क्रत्वा ) उत्तम आचरण और ज्ञान से ही वे ( नि-एरिरे ) नियम से सर्वथा तुझे प्राप्त हों और तुझे प्रेरित करें। हे विद्वान् लोगो ! आप लोग ( मर्त्येषु ) मरणधर्मा मनुष्यों वा शत्रुओं को मारने वाले वीर भटों के बीच में, ( अमर्त्यं ) असाधारण मनुष्य और ( देवं ) ज्ञान प्रकाशक विद्यादाता और ऐश्वर्य दाता विजिगीषु राजा को ( आ यजत ) सब प्रकार से पूजा सत्कार करो, उसके साथ मैत्री, सत्संग बनाए रक्खो । और ( आदेवं ) सब ओर प्रकाश करने वाले, सूर्यवत् तेजस्वी ( प्रचेतसं ) उत्कृष्ट ज्ञान वाले पुरुष को ( जनत ) उत्पन्न करो और ( विश्वम् ) सभी ( आदेवं ) सर्व प्रकाशक ( प्रचेतसम् ) उत्तम ज्ञानवान् पुरुष को ( आजनत ) अपने में से अधिक प्रसिद्ध करो । ( २ ) ( समन्यवः देवाः ) ज्ञानवान् विद्वान् लोग परमेश्वर को शरण जानकर प्राप्त हों । इसी प्रकार ज्ञान और कर्म से वे प्राप्त होते हैं । मरणधर्मा मनुष्यों में अमर उत्तम ज्ञानी प्रभु वा आत्मा की वे उपासना करें । उसको सर्व प्रकाशक, सर्वोत्कृष्ट ज्ञान और चित्त वाला जानें और बतलावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानाकडून जाणण्यायोग्य अग्नी, वाणी, सूर्य, विद्युत इत्यादींचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
शिक्षक आणि राजा यांनी विद्यार्थी व मंत्री आणि प्रजाजन यांना कठोर होऊन शिस्त लावल्यास ते उत्तम, सभ्य, विद्वान तसेच धार्मिक होतात. मर्त्य मानव जेव्हा अमर्त्य व प्रकाशस्वरूप अशा परमेश्वराची उपासना करतात ते सर्व माणसांना बुद्धिमान, विद्वान करतात आणि तेच सर्वकाळी सत्कार करण्यायोग्य असतात व सुखी होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light and fire of life, brilliant and impassioned people always kindle you to action. Quick, relentless and refulgent, a very home of rest and peace and light as you are, they kindle and raise you with their best and noblest effort and action. O men, join, honour and respect this divine and imperishable power among humanity to full force of illumination, generate this holy power, intelligent, universal and living light for all, generate and develop it to full beauty and delight over the wide earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The proper use of the speech is admired.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leading learned person! enlightened men with righteous indignation ever approach you, who are treasure- house of noble virtues, give divine qualities and are worthy of approach. They urge you and me with good knowledge to do good deeds. O men! worship God, Who is immortal among mortals Who is self-resplendent and illuminator from all sides. Energies men with wisdom and with the light of knowledge from all sides. Make all men highly learned and wise with your good intellect and good actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If teacher and kings admonish their pupils and their ministers and subjects on their lapse, they become civilized and righteous learned persons. Only those persons enjoy abiding happiness and are worthy of adoration, who worship self resplendent and immortal God, and Who make all men wise and highly learned.
Foot Notes
(अरतिम्) प्रापणीयम् = Worthy of approach. (आदेवम्) समन्ताद् विद्याप्रकाशयुक्तम् = Endowed with the light of knowledge from all sides.
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