ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः। तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । स॒त्यः । या॒तु॒ । म॒घऽवा॑न् । ऋ॒जी॒षी । द्रव॑न्तु । अ॒स्य॒ । हर॑यः । उप॑ । नः॒ । तस्मै॑ । इत् । अन्धः॑ । सु॒सु॒म॒ । सु॒ऽदक्ष॑म् । इ॒ह । अ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । क॒र॒ते॒ । गृ॒णा॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सत्यो यातु मघवाँ ऋजीषी द्रवन्त्वस्य हरय उप नः। तस्मा इदन्धः सुषुमा सुदक्षमिहाभिपित्वं करते गृणानः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। सत्यः। यातु। मघऽवान्। ऋजीषी। द्रवन्तु। अस्य। हरयः। उप। नः। तस्मै। इत्। अन्धः। सुसुम। सुऽदक्षम्। इह। अभिऽपित्वम्। करते। गृणानः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यराजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य इह गृणानोऽभिपित्वं सुदक्षं करते तस्मा इदेव वयमन्धः सुषुम। यस्यास्य हरयो न द्रवन्तु स ऋजीषी सत्यो मघवान्नोऽस्मानुपायातु ॥१॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (सत्यः) सत्सु साधुः (यातु) आगच्छतु (मघवान्) बहुपूजितधनयुक्तः (ऋजीषी) ऋजुनीतिः (द्रवन्तु) गच्छन्तु (अस्य) राज्ञः (हरयः) मनुष्याः। हरय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (उप) (नः) अस्मान् (तस्मै) (इत्) (अन्धः) अन्नादिकम् (सुषुम) निष्पादयेम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुदक्षम्) सुष्ठुबलम्। (इह) अस्मिन् राज्ये (अभिपित्वम्) प्राप्तम् (करते) कुर्य्यात् (गृणानः) प्रशंसन् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो राजाऽस्माकं बलं वर्धयेन्नीत्या प्रजाः पालयेद्यस्य पुरुषा अपि धार्मिकाः प्रजापालनप्रियाः स्युरस्मान् प्रेम्णा संयुञ्जीरँस्तदर्थं वयमैश्वर्य्यमुन्नयेम ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इक्कीस ऋचावाले सोलहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इह) इस राज्य में (गृणानः) प्रशंसा करता हुआ (अभिपित्वम्) प्राप्त (सुदक्षम्) श्रेष्ठ बल को (करते) करे (तस्मै) उसके लिये (इत्) ही हम लोग (अन्धः) अन्न आदि को (सुषुम) उत्पन्न करें, जिस (अस्य) इस राजा के (हरयः) मनुष्य नहीं (द्रवन्तु) जावें, वह (ऋजीषी) सरलनीतिवाला (सत्यः) श्रेष्ठों में साधु और (मघवान्) बहुत श्रेष्ठ धन से युक्त जन (नः) हम लोगों के (उप) समीप (आ) सब प्रकार (यातु) प्राप्त होवे ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो राजा हम लोगों के बल को बढ़ावे और नीति से प्रजाओं का पालन करे और जिस राजा के पुरुष भी धार्मिक और प्रजा के पालन में प्रिय हों और हम लोगों को प्रेम से संयुक्त करें, उसके लिये हम लोग ऐश्वर्य्य की वृद्धि करें ॥१॥
विषय
सोमपान करनेवाला इन्द्र
पदार्थ
[१] (सत्यः) = सत्यस्वरूप, (मघवान्) = ऐश्वर्यशाली व [मघ-मख] यज्ञोंवाला (ऋजीषी) = ऋजुता की प्रेरणा देनेवाला [ऋजु + इष्] - कुटिलता को दूर करनेवाला प्रभु (आयातु) = हमें प्राप्त हो । (अस्य) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (हरयः) = इन्द्रियाश्व (नः उपद्रवन्तु) = हमें समीपता से प्राप्त हों। 'प्रभु के इन्द्रियाश्व' का भाव यह है कि वे इन्द्रियाँ, जो कि प्रभु की ओर जानेवाली हैं। [२] (तस्मा) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (इत्) = ही (अन्धः) = सोम को (सुषुम) = हम उत्पन्न करते हैं। यह सोम (सुदक्षम्) = उत्तम बल को प्राप्त करानेवाला है। हमें बलसम्पन्न बनाकर ही यह सोम प्रभुप्राप्ति का पात्र बनाता है। (इह) = इस जीवन में यह प्रभु (गृणानः) = स्तुति किया जाता हुआ (अभिपित्वम्) = हमारे अभिमत की प्राप्ति को (करते) = करता है। प्रभु का सच्चा स्तवन यही है कि हम उस प्रभु से उत्पादित इस सोम का रक्षण करनेवाले हों। सोम का पान करते हुए हम भी शक्तिशाली व 'इन्द्र' बनते हैं। इन्द्र बनकर ही तो इन्द्र का उपासन होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम इन्द्रियों को वश में करते हुए प्रभु की ओर चलनेवाले बनें। सोमरक्षण द्वारा शक्तिशाली बनकर उस सर्वशक्तिमान् के सच्चे उपासक हों।
विषय
ऐश्वर्यवान् सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के गुरुवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(ऋजीषी) ऋजु सरल धर्म के मार्ग से स्वयं जाने और प्रजावर्ग वा सैन्यवर्ग को चलाने वाला (सत्यः) सज्जनों में श्रेष्ठ, वीर्यवान् (मघवान्) ऐश्वयवान्, शत्रुओं से कभी न मारे जाने हारा, वीर पुरुष (नः) हमें (उप आयातु) प्राप्त हो । और (अस्य) इसके (हरयः) अश्वों के समान वेग से जाने वाले मनुष्य, वीर पुरुष (नः उपद्रवन्तु) वेग से हमारे बीच राजकारण से आते, जाते हों, (तस्मै इत्) उसी की वृद्धि के लिये हम लोग (सुदक्षम्) उत्तम बलशाली, शत्रु को उत्तम रीति से दग्ध कर देने में समर्थ, (अन्धः) अन्न आदि ऐश्वर्य (सुषुम) उत्पन्न करें। वह (गृणानः) गुरु के तुल्य आज्ञाएं करता हुआ (इह) इस राष्ट्र में (अभिपित्वं) सब प्रकार से प्रजा के पालन का कार्य (करते) करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, राजा, मंत्री व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो राजा आमचे बल वाढवितो व नीतीने प्रजेचे पालन करतो व ज्या राजाचे पुरुषही धार्मिक व प्रजेचे पालन करण्यात तत्पर असतील व आम्हाला प्रेमाने संयुक्त करतील तर त्याच्यासाठी आम्ही ऐश्वर्याची वृद्धी करावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Indra, lord ruler of the world, ever true, mighty bounteous and ever righteous in natural ways, come to us. May his men and powers hasten to us to help and bless. For his sake we produce energising food and distil exciting soma. Praised and appreciated and praising and appreciating, he provides us all with sustenance and protection in this world order.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of a king (Indra) are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! let us produce more food and other things. Because the king ( government ) employs only the virtuous persons capable to generate all sorts of potential in the State. May that truthful king of upright policy and endowed with admirable wealth come to us along with his officers and workers to help us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Let us try to develop prosperity of the State for the pleasure of that king, who strengthens the State, supports the people with good policy. His men also being righteous always love to protect the people and unite us with love (not with force).
Foot Notes
(ऋजीषी) ऋजुनीति: । = Man of upright policy. (हरयः) मनुष्याः । हरय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) = The human beings. (अन्धः ) अन्नादिकम् । अन्ध इत्यन्न नाम (NG 2, 7 ) = Food and other things. (द्रवन्तु) गच्छन्तु । = May go fast or run.
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