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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रादिती छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं पन्था॒ अनु॑वित्तः पुरा॒णो यतो॑ दे॒वा उ॒दजा॑यन्त॒ विश्वे॑। अत॑श्चि॒दा ज॑निषीष्ट॒ प्रवृ॑द्धो॒ मा मा॒तर॑ममु॒या पत्त॑वे कः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । पन्थाः॑ । अनु॑ऽवित्तः । पु॒रा॒णः । यतः॑ । दे॒वाः । उ॒त्ऽअजा॑यन्त । विश्वे॑ । अतः॑ । चि॒त् । आ । ज॒नि॒षी॒ष्ट॒ । प्रऽवृ॑द्धः । मा । मा॒तर॑म् । अ॒मु॒या । पत्त॑वे । क॒रिति॑ कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे। अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरममुया पत्तवे कः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। पन्थाः। अनुऽवित्तः। पुराणः। यतः। देवाः। उत्ऽअजायन्त। विश्वे। अतः। चित्। आ। जनिषीष्ट। प्रऽवृद्धः। मा। मातरम्। अमुया। पत्तवे। करिति कः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्राय मनुष्याय सन्मार्गोपदेशमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यतो विश्वे देवा उदजायन्त सोऽयमनुवित्तः पुराणः पन्था अस्ति। यतोऽयं संसारः प्रवृद्धो जनिषीष्टाऽतश्चित्त्वममुया मातरं पत्तवे माऽकः ॥१॥

    पदार्थः

    (अयम्) (पन्थाः) मार्गः (अनुवित्तः) अनुलब्धः (पुराणः) सनातनः (यतः) यस्मात् (देवाः) विद्वांसः (उदजायन्त) उत्कृष्टा भवन्ति (विश्वे) सर्वे (अतः) अस्मात् (चित्) अपि (आ) (जनिषीष्ट) जायेत (प्रवृद्धः) (मा) निषेधे (मातरम्) जननीम् (अमुया) तया (पत्तवे) पत्तुं प्राप्तुम् (कः) कुर्याः ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येन मार्गेणाप्ता गच्छेयुस्तेनैव मार्गेण यूयमपि गच्छत। यदि महती वृद्धिरपि स्यात्तदपि माता केनापि नाऽवमन्तव्या ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तेरह ऋचावाले अठारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में उत्तम ऐश्वर्यवान् मनुष्य के लिये अच्छे मार्ग का उपदेश करते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यतः) जिससे (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उदजायन्त) उत्तम होते हैं, वह (अयम्) यह (अनुवित्तः) अनुकूल प्राप्त (पुराणः) अनादि काल से सिद्ध (पन्थाः) मार्ग है, जिससे यह संसार (प्रवृद्धः) बढ़ा (जनिषीष्ट) उत्पन्न होवे (अतः) इस कारण से (चित्) भी आप (अमुया) उस उत्पत्ति से (मातरम्) माता को (पत्तवे) प्राप्त होने को (मा) मत (आ, कः) करे ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस मार्ग से यथार्थवक्ता पुरुष जावें, उसी मार्ग से आप लोग भी चलो, जो बड़ी वृद्धि भी होवे तो भी माता का अपमान किसी को न करना चाहिये ॥१॥

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    विषय

    पुराण धर्ममार्ग

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह (पन्थाः) = धर्म का मार्ग (अनु-वित्तः) = गुरु-शिष्य परम्परया अनुक्रमेण जाना जाता है। (पुराण:) = यह सनातन है- सदा से चला आ रहा है-सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु ने इसका ज्ञान 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' इन चार ऋषियों को दिया। उनसे अगले ऋषियों ने प्राप्त किया और यह क्रम से चला आया। यह वह मार्ग है, (यतः) = जिससे (विश्वे देवा:) = सब देव (उद् अजायन्त) = उत्कर्षेण प्रादुर्भूत होते हैं। इस मार्ग पर चलने से दिव्य गुणों का विकास होता है। [२] (अतः) = इसी से (चित्) = निश्चयपूर्वक (आजनिषीष्ट) = मनुष्य विकास को प्राप्त हुआ और (प्रवृद्धः) = प्रकृष्ट बुद्धिवाला हुआ। (अमुया) = इस मार्ग पर चलने द्वारा (मातरम्) = इस वेदमाता को (पत्तवे मा क:) = पतन के लिए मत कर, अर्थात् वेदमाता द्वारा कहे हुए मार्ग का आक्रमण करता हुआ तू पतन से अपने को बचानेवाला हो । तेरे उत्कर्ष में ही वेदमाता का भी उत्कर्ष है। तेरे आचरण में हीनता के आने से वेद की भी निन्दा होगी कि 'वेद पढ़े हुए ऐसे ही होते हैं?'

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने वेद द्वारा मार्ग का उपदेश दिया है। उस पर चलकर ही हम अपने विकास व उत्कर्ष को सिद्ध करते हैं ।

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    विषय

    उन्नति का पुराण मार्ग । प्रत्येक राष्ट्र प्रजा और पुत्रादि के पालन योग्य व्रत ।

    भावार्थ

    (अयं) यह (पन्थाः) धर्म-मार्ग (पुराणः) सनातन से (अनुवित्तः) गुरु-परम्परा और वंश-परम्परा द्वारा प्राप्त किया जाता है, (यतः) जिससे (देवाः) नाना भोगों की वा एक दूसरे की कामना करने वाले सामान्य स्त्री पुरुष और ज्ञान प्रकाशक, ज्ञानप्रद विद्वान् पुरुष भी (उत् अजायन्त) उत्पन्न होते रहते हैं और उन्नति को प्राप्त करते रहते हैं । (प्रवृद्धः) बहुत उन्नत पद तक बढ़ा हुआ पुरुष भी (अतः चित्) इसी परम्परा प्राप्त धर्म मार्ग से ही (आ जनिषीष्ट) उत्पन्न होता है इसलिये (अमुया) इस मार्ग से चलते हुए (मातरम्) अपने को उत्पन्न करने वाली माता वा अपने को ज्ञान देने वाले गुरुरूप माता को (पत्तवे) पहुंचने अर्थात् अपमानित करने का हे पुरुष ! (मा कः) यत्न मत कर अर्थात् पुत्रादि उत्पादक परस्पर स्त्री पुरुष के सामान्य धर्म द्वारा माता से सन्तान उत्पन्न करने की चेष्टा न करे । इसी प्रकार गुरु को अपना शिष्यादि बनाने वा अपमान करने का यत्न न करे । बहुत बड़ा होकर भी उसके प्रति विनयशील ही होकर रहे । (२) इसी प्रकार (देवाः) विजिगीषु लोग इसी पुरातन युद्ध मार्ग से उन्नत सिंहासन वा राज्यपद को प्राप्त होते हैं बड़ा आदमी भी इसी मार्ग से होता है, पर तो भी इस विग्रह मार्ग से अपने को राजा बनाने वाली (मातरम्) प्रजा को पददलित करने का यत्न न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रादिती देवत ॥ छन्द:– १, ८, १२ त्रिष्टुप । ५, ६, ७, ९, १०, ११ निचात्त्रष्टुप् । २ पक्तः । ३, ४ भुरिक् पंक्ति: । १३ स्वराट् पक्तिः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, मेघ, राजा व विद्वान यांच्या कार्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्या मार्गाने आप्त (विद्वान) लोक जातात त्याच मार्गाने तुम्हीही चालाल तर महान उन्नती होईल; तरीही माता व पिता यांचा अपमानही कुणी करू नये. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This is the path ancient and eternal, known and followed, by which all saints and sages and divine facts and forces are born to grow and rise, from which the whole world comes into being and evolves to greatness and grandeur. Therefore, do not do anything by that way to insult or desecrate the mother, nature, earth, human mother or animal, or any source of generation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The golden path for a wealthy man (Indra) is pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! this is the time tested and recognized path by which all learned persons become exalted. All this world can make real progress by treading upon this path. But, however great progress, you may make, never insult your mother in any way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should also walk that path which is trodden by absolutely truthful learned persons. However, great advancement you may be able to make, never insult your mother.

    Foot Notes

    (देवा) विद्वांसः । विद्वांसो हि देवाः । (Stphs 3,10, 3, 7) = Learned persons. (उदजायन्त) उत्कृष्टा भवन्ति । Become exalted. (पत्तवे) पत्तुं प्राप्तुम् । = To get. By mother (माततारम्), motherland may be taken. A man should never insult harm or degrade the motherland by any of his activities.

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