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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा त्वामि॑न्द्र वज्रि॒न्नत्र॒ विश्वे॑ दे॒वासः॑ सु॒हवा॑स॒ ऊमाः॑। म॒हामु॒भे रोद॑सी वृ॒द्धमृ॒ष्वं निरेक॒मिद्वृ॑णते वृत्र॒हत्ये॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । व॒ज्रि॒न् । अत्र॑ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । सु॒ऽहवा॑सः । ऊमाः॑ । म॒हाम् । उ॒भे इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒द्धम् । ऋ॒ष्वम् । निः । एक॑म् । इत् । गृ॒ण॒ते॒ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा त्वामिन्द्र वज्रिन्नत्र विश्वे देवासः सुहवास ऊमाः। महामुभे रोदसी वृद्धमृष्वं निरेकमिद्वृणते वृत्रहत्ये ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। त्वाम्। इन्द्र। वज्रिन्। अत्र। विश्वे। देवासः। सुऽहवासः। ऊमाः। महाम्। उभे इति। रोदसी इति। वृद्धम्। ऋष्वम्। निः। एकम्। इत्। वृणते। वृत्रऽहत्ये ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे वज्रिन्निन्द्राऽत्र ये ऊमाः सुहवासो विश्वे देवासो महां वृद्धमृष्वमेकं त्वामेवा वृत्रहत्य उभे रोदसी सूर्य्यमिवेन्निर्वृणते तानेव त्वं सेवस्व ॥१॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (त्वाम्) त्वाम् (इन्द्र) शत्रूणां विदारक (वज्रिन्) प्रशंसितशस्त्रास्त्र (अत्र) (विश्वे) सर्वे (देवासः) विद्वांसः (सुहवासः) ये सुष्ठ्वाह्वयन्ति ते (ऊमाः) रक्षणादिकर्त्तारः (महाम्) महान्तम् (उभे) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृद्धम्) सर्वेभ्यो विस्तीर्णम् (ऋष्वम्) श्रेष्ठम् (निः) (एकम्) अद्वितीयम् (इत्) एव (वृणते) स्वीकुर्वन्ति (वृत्रहत्ये) वृत्रस्य हत्या हननमिव शत्रुहननं यस्मिन्त्सङ्ग्रामे तस्मिन् ॥१॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसोऽत्युत्तमगुणवन्तं राजानं स्वीकुर्य्युस्त एव पूर्णसुखा भवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तृतीयाष्टक में छठे अध्याय का और ग्यारह ऋचावाले उन्नीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का उपदेश करते हैं ॥१॥

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्र और अस्त्र से युक्त (इन्द्र) शत्रुओं के विदीर्ण करनेहारे (अत्र) इस संसार में जो (ऊमाः) रक्षा आदि करनेवाले (सुहवासः) उत्तम प्रकार पुकारनेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोग (महाम्) बड़े (वृद्धम्) सब से विस्तीर्ण (ऋष्वम्) श्रेष्ठ (एकम्) अद्वितीय (त्वाम्) (त्वाम्) आपको (एवा) ही (वृत्रहत्ये) मेघ के नाश के सदृश शत्रु का नाश जिस संग्राम में उसमें (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी सूर्य्य के सदृश (इत्) ही (निः, वृणते) स्वीकार करते हैं, उन्हीं की आप सेवा करिये ॥१॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् लोग अतिश्रेष्ठ गुणवाले राजा को स्वीकार करें, वे ही पूर्ण सुखवाले होते हैं ॥१॥

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    विषय

    देवों द्वारा प्रभु का संभजन

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिन् इन्द्र) = क्रियाशीलता रूप वज्रवाले शत्रु विद्रावक प्रभो ! (अत्र) = इस जीवन में (सुहवासः) = सदा उत्तम पुकारवाले आपको पुकारनेवाले (ऊमाः) = वासनाओं से अपना बचाव करनेवाले (विश्वे देवासः) = सब देव (त्वाम्) = आपको ही (वृणते) = संभक्त करते हैं। आपका ही भजन करते हुए वस्तुतः वे देव बन पाते हैं। [२] (एवा) = इसी प्रकार (उभे रोदसी) = ये दोनों द्यावापृथिवी ब्रह्माण्डवासिनी सब प्रजाएँ, (महाम्) = महान्, (वृद्धम्) = सब गुणों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए (ऋष्वम्) = दर्शनीय (एकम्) = अद्वितीय आपको (इत्) = ही (वृत्रहत्ये) = वासनाविनाश के निमित्त (निःवृणते) = पूर्ण रूप से भजती हैं। वस्तुतः प्रभु भजन ही हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाता है। भावार्थ- प्रभु का उपासन हमें वासनाओं के विनाश के लिए समर्थ करता है। सारा ब्रह्माण्ड इस प्रभु को ही रक्षा के लिए पुकारता है।

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    विषय

    वीर पुरुषों के कर्त्तव्य । राजा का शत्रुनाशार्थ वरण । पक्षान्तर में अज्ञान नाशार्थ प्रभु का वरण ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं को हनन करने हारे ! हे (वज्रिन्) शस्त्रास्त्र बल के स्वामिन् ! (अत्र) इस राष्ट्र में (विश्व) समस्त (देवासः) विद्वान्जन (सुहवासः) उत्तम नाम, वचन और ख्यातिमान् वा उत्तम यज्ञ, युद्धादि करने हारे वीर पुरुष (ऊमाः) रक्षक लोग (वृत्रहत्ये) बढ़ते हुए शत्रु को दण्डित करने के लिये (उभे रोदसी) राजा प्रजा दोनों वर्गों में (महां वृद्धम्) गुणों और शक्ति में महान् वृद्ध, पूजनीय (ऋवं) सर्वश्रेष्ठ, सर्वद्रष्टा (एकम्) एक अद्वितीय जानकर (त्वाम् एव) तुझ को (नि वृणते) सब प्रकार से वरण करते हैं । (२) इसी प्रकार सब विद्वान् जन, अद्वितीय प्रभु परमेश्वर को अज्ञान नाश के लिये वरण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, मेघ, सेना, सेनापती, राजा, प्रजा व विद्वानांचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे विद्वान अति श्रेष्ठ गुणाच्या राजाचा स्वीकार करतात ते पूर्ण सुखी होतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler of power and excellence, wielder of the thunderbolt of law, justice and protection, all the scholars of the world, nobles and divines, defenders, holy yajakas and both earth and heaven elect and invite you alone, great, vast and high in grandeur, lord sublime, unique and incomparable. They invoke you for the destruction of Vrtra, demon of darkness, ignorance and selfishness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra (king) are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyer of the enemies ! you operate the thunderbolt and other powerful arms and missiles. All enlightened and well meaning persons, elect you, who are great, experienced, sublime, and surpassing all in the warfare. Like the sun chosen by the heaven and the earth, you are engaged in the task of destroying the clouds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those learned persons enjoy perfect happiness who accept a man of incomparable virtues as their leader.

    Foot Notes

    (ऊमाः) रक्षणा दिकर्त्तारः । = Protectors, lovers. givers etc. (ऋष्वम्) श्रेष्ठम् । ऋष्व इति महन्नाम (NG 3, 3 ) = Sublime, noble. (वृत्रहत्ये ) वृत्रस्य हत्या हननमिव शत्रुहननं यस्मिन्त्सङ्ग्रामे तस्मिन् | = In the battle where enemies are destroyed like the clouds.

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