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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अक्षो॑दय॒च्छव॑सा॒ क्षाम॑ बु॒ध्नं वार्ण वात॒स्तवि॑षीभि॒रिन्द्रः॑। दृ॒ळ्हान्यौ॑भ्नादु॒शमा॑न॒ ओजोऽवा॑भिनत्क॒कुभः॒ पर्व॑तानाम् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्षो॑दयत् । शव॑सा । क्षाम॑ । बु॒ध्नम् । वाः । न । वातः॑ । तवि॑षीभिः । इन्द्रः॑ । दृ॒ळ्हानि॑ । औ॒भ्ना॒त् । उ॒शमा॑नः । ओजः॑ । अव॑ । अ॒भि॒न॒त् । क॒कुभः॑ । पर्व॑तानाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षोदयच्छवसा क्षाम बुध्नं वार्ण वातस्तविषीभिरिन्द्रः। दृळ्हान्यौभ्नादुशमान ओजोऽवाभिनत्ककुभः पर्वतानाम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षोदयत्। शवसा। क्षाम। बुध्नम्। वाः। न। वातः। तविषीभिः। इन्द्रः। दृळ्हानि। औभ्नात्। उशमानः। ओजः। अव। अभिनत्। ककुभः। पर्वतानाम् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मेघदृष्टान्तेन राजसेनाविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्तविषीभिस्सहेन्द्रश्शवसा वातः क्षाम बुध्नं वार्ण दृळ्हानि शत्रुसैन्यान्यक्षोदयदोज उशमान औभ्नात् पर्वतानां शिखराणीव ककुभः शत्रूनवाभिनत् तमेव स्वकीयं राजानङ्कुरुत ॥४॥

    पदार्थः

    (अक्षोदयत्) सञ्चूर्णयति (शवसा) बलेन (क्षाम) क्षान्तम् (बुध्नम्) अन्तरिक्षम् (वाः) उदकम् (न) इव (वातः) वायुः (तविषीभिः) बलयुक्ताभिस्सेनाभिः (इन्द्रः) दुष्टानां विदारकः (दृळ्हानि) पुष्टानि (औभ्नात्) मृद्नाति (उशमानः) कामयमानः (ओजः) पराक्रमम् (अव) (अभिनत्) भिनत्ति (ककुभः) दिशाः (पर्वतानाम्) मेघानाम् ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यथा वायुरग्निना सूक्ष्मीकृतञ्जलमन्तरिक्षन्नीत्वा वर्षयित्वा जगदानन्दयति तथैव ससामग्रीविद्यासेनो राजा दुष्टान् सूक्ष्मीकृत्य दण्डोपदेशाभ्यां दुष्टान् भित्त्वा सज्जनान् सम्पाद्य प्रजाः सततं सुखयेत् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मेघदृष्टान्त से राजसेनाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (तविषीभिः) बल से युक्त सेनाओं के साथ (इन्द्रः) दुष्ट पुरुषों का नाश करनेवाला (शवसा) बल से (वातः) वायु (क्षाम) सहनयुक्त (बुध्नम्) अन्तरिक्ष और (वाः) उदक को जैसे (न) वैसे (दृळ्हानि) पुष्ट शत्रुसैन्य-दलों को (अक्षोदयत्) सञ्चूर्णित करता है तथा (ओजः) पराक्रम की (उशमानः) कामना करता हुआ (औभ्नात्) मृदुता करता है (पर्वतानाम्) मेघों के शिखरों के सदृश (ककुभः) दिशाओं और शत्रुओं को (अव, अभिनत्) तोड़ता है, उसीको अपना राजा करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे वायु अग्नि से सूक्ष्म किये हुए जल को अन्तरिक्ष में पहुँचा और वर्षा कर संसार को आनन्द देता है, वैसे ही सामग्री, विद्या और सेना के सहित राजा दुष्टों को न्यून करके दण्ड और उपदेश से दुष्टों का नाश कर और सज्जनों को सिद्ध करके प्रजाओं को निरन्तर सुख दीजिये ॥४॥

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    विषय

    पर्वत ककुभ् भेदन

    पदार्थ

    [१] (न) = जिस प्रकार (वातः) = वायु (वा:) = जल को (तविषीभिः) = बलों के द्वारा क्षुब्ध कर देता है, इसी प्रकार (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु शवसा बल के द्वारा (क्षाम बुध्नम्) = (क्षामान्य बुध्नं च) पृथिवी व इस आकाश [अवकाश- अन्तरिक्ष] को (अक्षोदयत्) = संपिष्ट कर देते हैं। सारे ब्रह्माण्ड को प्रभु अपने वश में किये हुए हैं। प्रभु इस ब्रह्माण्ड के प्रभव हैं, तो वे अप्यय भी हैंइसे उत्पन्न करते हैं, तो इसे विनष्ट भी करते हैं। [२] इसी प्रकार हम सब जीवों के लिए (ओजः) = शक्ति को (उशमान:) = चाहते हुए वे प्रभु दृढा आसुरभावों के दृढ़ किलों को भी (न्यौभ्नात्) = नष्ट करनेवाले हैं। 'काम-क्रोध-लोभ' के शरीर, मन व बुद्धि में बने हुए दुर्गों को प्रभु नष्ट कर डालते हैं। वे प्रभु (पर्वतानाम्) = अविद्या-पर्वतों के (ककुभ:) = शिखरों को (अवाभिनत्) = विदीर्ण कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- जड़ जगत् में प्रभु पृथिवी व अन्तरिक्ष को हिला डालनेवाले हैं। चेतन जगत् में वे प्रभु काम-क्रोध-लोभ के किलों को विनष्ट करते हैं और अविद्यापर्वतों का विदारण करते हैं ।

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    विषय

    वायु और सूर्यवत् पराक्रमी वीर शत्रु को चूर्ण करे ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य (क्षाम) खोखले (बुध्नं) आकाश को (शवसा) सूक्ष्म तेज से (अक्षोदयत्) भर देता है, (न) और जिस प्रकार (वातः) प्रबल वायु का झंकोरा (तविषीभिः) बलवती विद्युतों वा गतियों से (वाः) जल को छिन्न भिन्न कर बूंद बूंद कर देता है और (पर्वतानाम्) जिस प्रकार विद्युत् पर्वतों और मेघों के (ककुभः) शिखरों को (अभिनत्) तोड़ डालता है, उसी प्रकार (ओजः उशमानः) बल पराक्रम की कामना करने वाला (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुविजयी राजा अपने शत्रु के (क्षाम) कृश, निर्बल (बुध्नं) राज्य प्रबन्ध, बन्धे मोर्चे, गढ़ और आधार को (शवसा) अपने बल से (अक्षोदयत्) चूरा २ कर दे। और (वातः वार न) जलों को वायु के तुल्य (तविषीभिः) बलवती सेनाओं से बलवान् होकर (वाः) घेरने वाले शत्रु बल को नष्ट करे । (दृढ़ानि) वह शत्रु के दृढ़, मज़बूत पुरों और सैन्यों को (औभ्नात्) मटियामेट कर दे और (पर्वतानाम्) पर्वतों वा मेघों के समान दृढ़ और शस्त्रवर्षी शत्रु राजाओं के (कुकुभः) श्रेष्ठ २ पुरुषों को (अव अभिनत्) भेद नीति से तोड़ फोड़ कर नीचे गिरादे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा वायू अग्नीद्वारे सूक्ष्म केलेले जल अंतरिक्षात पोचवितो व वृष्टी करून जगाला आनंद देतो, तसेच सामग्री, विद्या व सेनेसहित राजाने दुष्टांना दंड व उपदेश करून त्यांचा नाश करून सज्जनांना दिलासा द्यावा व प्रजेला निरंतर सुख द्यावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, with his own strength and courage and by his blazing forces, shakes the earths and skies just as the winds beat and shear the currents of water flows and concentrations of vapour. Lustrous, passionate and inspired, he crushes mighty strongholds of the enemy and breaks down the peaks of mountainous adversaries.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of army by the illustration of cloud is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should elect a king who with his armies and with his own strength is able to crush the armies of his enemies, like the storm or strong wind engulfs the water and forbearing firmament. He is the destroyer of enemies and desirous of vigor, softens himself a bit, and comes closer to his enemies like the peaks of the hills in all directions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile in the mantra. The storm takes above the water made subtle by fire through rains and gladdens the world. In the same manner, a king who has good knowledge of military sciences and has requisite and optimum supplies of military hardware minimizes his enemies. He is capable to break the force of the wickeds by punishing the foes and gives them good knowledge and transforms them into good. Such a king constantly gladdens his subjects.

    Foot Notes

    (बुध्नम्) अन्तरिक्षम् | = Firmaments. (ककुभः) दिशा: । ककुभ इति दिङ्नाम (NG 1, 6) = Directions. (तविषीभिः ) बलयुक्ताभिस्सेनाभिः । तविषीति बलनाम (NG 2, 9) Here used for powerful army. = With powerful enemies.

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