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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अक॑र्म ते॒ स्वप॑सो अभूम ऋ॒तम॑वस्रन्नु॒षसो॑ विभा॒तीः। अनू॑नम॒ग्निं पु॑रु॒धा सु॑श्च॒न्द्रं दे॒वस्य॒ मर्मृ॑जत॒श्चारु॒ चक्षुः॑ ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक॑र्म । ते॒ । सि॒ऽअप॑सः । अ॒भू॒म॒ । ऋ॒तम् । अ॒व॒स्र॒न् । उ॒षसः॑ । वि॒ऽभा॒तीः । अनू॑नम् । अ॒ग्निम् । पु॒रु॒धा । सु॒ऽच॒न्द्रम् । दे॒वस्य॑ । मर्मृ॑जतः । चारु॑ । चक्षुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः। अनूनमग्निं पुरुधा सुश्चन्द्रं देवस्य मर्मृजतश्चारु चक्षुः ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अकर्म। ते। सुऽअपसः। अभूम। ऋतम्। अवस्रन्। उषसः। विभातीः। अनूनम्। अग्निम्। पुरुधा। सुऽचन्द्रम्। देवस्य। मर्मृजतः। चारु। चक्षुः॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा विभातीरुषसोऽनूनं सुश्चन्द्रम्मर्मृजतो देवस्य चारु चक्षुरग्निं पुरुधावस्रन् तथैवर्त्तं सेवमाना स्वपसो वयं ते मर्मृजतो देवस्य हितमकर्म ते सखायोऽभूम ॥१९॥

    पदार्थः

    (अकर्म) कुर्याम (ते) तव (स्वपसः) सुष्ठ्वपो धर्म्यं कर्म कुर्वाणाः (अभूम) भवेम (ऋतम्) सत्यम् (अवस्रन्) वसन्ति (उषसः) प्रभातवेलाः (विभातीः) प्रकाशयन्त्यः (अनूनम्) पुष्कलम् (अग्निम्) (पुरुधा) बहुप्रकारैः (सुश्चन्द्रम्) शोभनं चन्द्रं हिरण्यं यस्मात्तम् (देवस्य) कामयमानस्य (मर्मृजतः) भृशं शोधयतः (चारु) सुन्दरम् (चक्षुः) नेत्रम् ॥१९॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा सूर्य्यादुत्पन्नोषा सर्वान् सुशोभितान् करोति तथैव ब्रह्मचर्य्येण जाता विद्वांसो वयं तवाऽऽज्ञायां यथा वर्त्तेमहि तथैव भवानस्माकं हितं सततं करोतु सर्वे वयं मिलित्वाऽन्यायं निवर्त्य धर्म्याणि कर्माणि प्रवर्त्तयेम ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (विभातीः) प्रकाश करती हुई (उषसः) प्रभातवेलाओं को (अनूनम्) और बहुत (सुश्चन्द्रम्) सुन्दर सुवर्ण जिससे होता उसको (मर्मृजतः) अत्यन्त शोधते हुए (देवस्य) कामना करनेवाले के (चारु) सुन्दर (चक्षुः) नेत्र (अग्निम्) और अग्नि को (पुरुधा) बहुत प्रकारों से (अवस्रन्) वसते हैं, वैसे ही (ऋतम्) सत्य की सेवा करते और (स्वपसः) उत्तम धर्म-सम्बन्धी कर्म करते हुए हम लोग अत्यन्त शुद्धता तथा कामना करते हुए के हित को (अकर्म) करें और (ते) आपके मित्र (अभूम) होवें ॥१९॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे सूर्य्य से उत्पन्न प्रातःकाल सब को शोभित करता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य्य से हुए विद्वान् हम लोग आपकी आज्ञानुकूल जैसे वर्ते, वैसे ही आप हम लोगों का हित निरन्तर करो और सब हम लोग परस्पर मेल करके और अन्याय दूर करके धर्मसम्बन्धी कर्मों को प्रवृत्त करें ॥१९॥

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    विषय

    यज्ञ और प्रभु स्मरण

    पदार्थ

    [१] 'वेद ज्ञान' उस देव [प्रभु] की दी हुई सुन्दर चक्षु है, इससे सब कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है। यह सब के लिये मार्गदर्शन कराती है। उस (देवस्य) = प्रकाशमय प्रभु की (चारु चक्षुः) = इस सुन्दर वेदज्ञान रूप आँख को (मर्मृजतः) = खूब ही शुद्ध करते हुए, अर्थात् वेदज्ञान को प्राप्त करते हुए (ते अकर्म) = हे प्रभो! आपका पूजन करते हैं। (स्वपसः अभूम) = उत्तम कर्मोंवाले होते हैं । वस्तुतः उत्तम कर्त्तव्य कर्मों को करना ही प्रभु का सच्चा पूजन है। [२] हमारे लिये (विभाती:) = विशिष्ट प्रकाशवाली (उषसः) = उषाएँ (ऋतम्) = यज्ञ को (अवस्त्रन्) = आच्छादित करती हैं, धारण करती हैं, अर्थात् उषाकालों में ही यज्ञादि उत्तम कर्मों को धारण करनेवाले बनते हैं। ये उषाएँ (अनूनं अग्निम्) = न्यूनता से रहित, पूर्ण अग्नि को, परमात्मा को हमारे लिये धारण करती हैं जो कि (पुरुधा) = अनेक प्रकार से (सुश्चन्द्रम्) = उत्तम आह्लाद को प्राप्त करानेवाले हैं। उषाकाल में हम प्रभु का स्मरण करते हैं और यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के दिये हुए वेदज्ञान का अभ्यास करते हुए हम उत्तम कर्मों द्वारा प्रभु का अर्चन करें। उषाकाल में प्रभु स्मरण व यज्ञ ही हमारे समय को व्याप्त करनेवाले हों ।

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    विषय

    अधीन के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे विद्वन् ! हम लोग (ते) तेरे अधीन रहकर (सु अपसः) उत्तम कर्म करने वाले, सदाचारी होकर ( अभूम ) रहें । ( विभातीः उषसः ) विशेष दीप्तियुक्त होने वाली प्रभात वेलों को प्राप्त कर जिस प्रकार लोग ( ऋतं ) प्रकाश को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( विभातीः ) विशेष दीप्ति से युक्त ( उषसः ) कामनानुकूल स्त्रियों को प्राप्त करके हम ( ऋतम् अवस्रन् ) सत्य, धर्ममय जीवन व्यतीत करें । इसी प्रकार हे राजन् ! हम ( विभाती उषसः ) विशेष तेजस्विनी शत्रुदाहक सेनाएं प्राप्त करके भी ( ऋतम् ) सत्य ज्ञान को ( अवस्रन् ) अनुसरण करें। अपने उग्र सैन्य बल से उन्मत्त होकर हम अन्याय न करें । और ( अग्निं ) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी नायक को भी हम ( अनूनं ) किसी बात में भी न्यून न रहने देकर पूर्ण ( अकर्म ) करें और उसको ( पुरुधा ) बहुत प्रकारों से ( सुश्चन्द्रं अकर्म ) उत्तम आह्लाददायक और उत्तम सुवर्णादि ऐश्वर्य से युक्त करें। और ( मर्मृजतः देवस्य ) राष्ट्र के कण्टकशोधन और सत्यासत्य विवेक करने हारे राजा वा राजा द्वारा नियुक्त पुरुष के ( चक्षुः ) चक्षु को हम ( चारु ) उत्तम दूरगामी और न्यायपूर्ण निष्पक्षपात ( अकर्म ) बनाये रक्खें । ( २ ) विद्वान् के अधीन रहकर भी हम सदाचारी हों, सब दिनों सत्य ज्ञान वेद का अभ्यास करें, अग्नि को सदा पूर्ण तेजोयुक्त करें, अग्निहोत्र करें । विवेकी शुद्धाचारी देव की चक्षु को निष्पक्ष बनाये रक्खें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जशी सूर्यापासून उत्पन्न झालेली उषा सर्वांना सुशोभित करते, तसेच आम्ही ब्रह्मचारी विद्वान जसे वागतो तसेच तुम्ही आमचे निरंतर हित करा. आपण सर्वांनी मिळून अन्याय दूर करावा व धर्माचे कार्य करावे ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We act in service to you, O Lord Agni, giver of light and life to the world, by which alone we can be called good performers. The brilliant dawns, wearing the divine mantle of truth and showers of light, perfectly and variously adorn the fire-divine, perfect and glorious eye of the self-refulgent Lord of the universe, which is the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! as the brilliant dawns beautify all and then people kindle fire, give (perform the Yajnas) an much wealth including gold in the dakshina (present) and donations, let us be doers of noble deeds under your command. You desire our welfare and purify all the beings, like our charming vow of truth eye or guide. Let us do all this observing the and be your true friends.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! the dawn born from the sun makes all beautiful; in the same ma, born out of the observance of Brahmacharya and after becoming highly learned persons, we act in pursuance of your command. So you should also accomplish our welfare incessantly. Let us prompt all to do righteous deeds haring been united and removing all injustice.

    Foot Notes

    (स्वपसः) सुष्ठवपो धर्म्यं कर्म कुर्वाणः । अप इति कर्मनाम (NG. 2, 1)। = Doers of good righteous deeds. (सुश्चन्द्रम्) चन्द्रम् हिरण्यं यस्मात्तम् । चन्द्रम् इति हिरण्यनाम (NG. 1, 2)। = Which leads to much gold (and other kinds of wealth).

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