ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
अ॒हं मनु॑रभवं॒ सूर्य॑श्चा॒हं क॒क्षीवाँ॒ ऋषि॑रस्मि॒ विप्रः॑। अ॒हं कुत्स॑मार्जुने॒यं न्यृ॑ञ्जे॒ऽहं क॒विरु॒शना॒ पश्य॑ता मा ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । मनुः॑ । अ॒भ॒व॒म् । सूर्यः॑ । च॒ । अ॒हम् । क॒क्षीवा॑न् । ऋषिः॑ । अ॒स्मि॒ । विप्रः॑ । अ॒हम् । कुत्स॑म् । आ॒र्जु॒ने॒यम् । नि । ऋ॒ञ्जे॒ । अ॒हम् । क॒विः । उ॒शना॑ । पश्य॑त । मा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः। अहं कुत्समार्जुनेयं न्यृञ्जेऽहं कविरुशना पश्यता मा ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअहम्। मनुः। अभवम्। सूर्यः। च। अहम्। कक्षीवान्। ऋषिः। अस्मि। विप्रः। अहम्। कुत्सम्। आर्जुनेयम्। नि। ऋञ्जे। अहम्। कविः। उशना। पश्यत। मा ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरगुणानाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! योऽहं मनुः सूर्य्यश्चाभवमहं कक्षीवानृषिर्विप्रोऽस्म्यहमार्जुनेयं कुत्सं न्यृञ्जेऽहमुशना कविरस्मि तं मा यूयं पश्यत ॥१॥
पदार्थः
(अहम्) सृष्टिकर्तेश्वरः (मनुः) मननशीलो विद्वानिव सर्वविद्याविज्ञापकः (अभवम्) अस्मि (सूर्य्यः) सूर्य्य इव सर्वप्रकाशकः (च) इन्द्र इव सर्वाह्लादकः (अहम्) (कक्षीवान्) सर्वसृष्टिकक्षा विद्यन्ते यस्मिन्त्सः (ऋषिः) मन्त्रार्थवेत्तेव (अस्मि) (विप्रः) मेधावीव सर्ववेत्ता (अहम्) (कुत्सम्) वज्रम् (आर्जुनेयम्) अर्जुनेनार्जुना विदुषा निष्पादितमिव (नि) नितराम् (ऋञ्जे) साध्नोमि (अहम्) (कविः) सर्वशास्त्रविद्विद्वान् (उशना) सर्वहितङ्कामयमानः (पश्यत) सम्प्रेक्षध्वम्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (मा) माम् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरो मन्त्रिणां मन्त्री प्रकाशकानां प्रकाशको विदुषां विद्वाननभिहतन्यायः सर्वज्ञः सर्वोपकारी वर्त्तते तमेव विद्याधर्म्माचरणयोगाभ्यासैः साक्षात्कुरुत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले छब्बीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश करते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (अहम्) मैं सृष्टि को करनेवाला ईश्वर (मनुः) विचार करने और विद्वान् के सदृश सम्पूर्ण विद्याओं का जनानेवाला (च) और (सूर्य्यः) सूर्य्य के सदृश सब का प्रकाशक (अभवम्) हूँ और (अहम्) मैं (कक्षीवान्) सम्पूर्ण सृष्टि की कक्षा अर्थात् परम्पराओं से युक्त (ऋषिः) मन्त्रों के अर्थ जाननेवाले के सदृश (विप्रः) बुद्धिमान् के सदृश सब पदार्थों को जाननेवाला (अस्मि) हूँ और (अहम्) मैं (आर्ज्जुनेयम्) सरल विद्वान् ने उत्पन्न किये हुए (कुत्सम्) वज्र को (नि) अत्यन्त (ऋञ्जे) सिद्ध करता हूँ और (अहम्) मैं (उशना) सब के हित की कामना करता हुआ (कविः) सम्पूर्ण शास्त्र को जाननेवाला विद्वान् हूँ, उस (मा) मुझको तुम (पश्यत) देखो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर मन्त्रियों अर्थात् विचार करनेवालों में विचार करने और प्रकाश करनेवालों का प्रकाशक, विद्वानों में विद्वान्, अखण्डित न्याययुक्त, सर्वज्ञ और सब का उपकारी है उस ही का विद्या, धर्म्माचरण और योगाऽभ्यास से प्रत्यक्ष करो ॥१॥
विषय
'मनु व सूर्य' बनना
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं ही (मनुः अभवम्) = मनु हूँ । ज्ञानशील पुरुष को 'मनु' कहते हैं- ज्ञानियों का - ज्ञान प्रभु ही हैं। प्रभु ही सब ज्ञानों का स्रोत हैं। (च) = और (अहम्) = मैं ही (सूर्यः) = सूर्य हूँ। सूर्य को दीप्ति देनेवाले प्रभु ही हैं। प्रभु की दीप्ति से ही यह सूर्य दीप्त हो रहा है 'प्रभास्मि शशि- सूर्ययोः' । मैं (कक्षीवान्) = बद्ध कक्ष्यावाला (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (अस्मि) = हूँ। बद्ध कक्ष्यावाला, कटिबद्ध, अर्थात् दृढनिश्चयीं। प्रभु ही एक व्यक्ति को दृढ़निश्चयी तत्त्वद्रष्टा बनाते हैं। मैं ही (विप्रः) = विप्र हूँ । 'वि+प्रा' विशेषरूप से किसी भी व्यक्ति का पूरण करनेवाला मैं ही हूँ। [२] (अहम्) = मैं ही (कुत्सम्) = वासनाओं का संहार करनेवाले (आर्जुनेयम्) = अर्जुनी के पुत्र [अर्जुन-श्वेत] अत्यन्त शुद्ध जीवनवाले को (न्यूञ्जे) = निश्चय से प्रसाधित करता हूँ। इसके जीवन को मैं ही सद्गुणों से सुभूषित करता हूँ। मैं ही इसे वासनाओं के संहार के योग्य बनाता हूँ। अहम् मैं ही कवि:- क्रान्तदर्शी उशना सबका हित चाहनेवाला हूँ। हे मनुष्यो ! मा पश्यत मुझे देखो, मुझे देखने के लिए यत्नशील होओ। वस्तुतः प्रभु के स्वरूप का चिन्तन करते हुए हमें प्रभु जैसा ही बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से ही हम 'ज्ञानी (मन), सूर्यवत् तेजस्वी, दृढ़निश्चयी तत्त्वद्रष्टा, विप्र, वासनाओं का संहार करनेवाले (कुत्स) कवि (तत्त्वद्रष्टा) ' बन पाते हैं।
विषय
स्वतः परमेश्वर का आत्म वर्णन ।
भावार्थ
परमेश्वर कहता है—(अहं मनुः अभवम्) मैं मननशील समस्त चराचर का ज्ञाता हूं । (अहं सूर्यः च) मैं सूर्य के समान स्वयं प्रकाश सबका प्रेरक हूं, मैं (कक्षीवान्) समस्त लोकों में व्यापक प्रबन्ध कर्तृशक्ति का स्वामी हूं। मैं (विप्रः) मेधावी, विशेष रूप से संसार को पूर्ण करने और ज्ञान, कर्मफल का दाता, (ऋषिः अस्मि) सबका दृष्टा, ज्ञान का प्रकाशक विद्वान् हूं । (अहम्) मैं (आर्जुनेयं) विद्वान् पुरुष से बनाये (कुत्सं) शस्त्रास्त्र के तुल्य सब विघ्ननाशक और ऋजु मार्ग पर चलने वाले एवं स्तुतियों के करनेवाले विद्वान् भक्त को (ऋञ्जे) अपनाता हूं । (अहं) मैं (कविः) क्रान्तदर्शी (उशनाः) सबको प्रेम से चाहने वाला हूं (मा) मुझ को (पश्यत) साक्षात् करो । परमात्मा इन गुणों से युक्त है। उसके अनुकरण में उसके गुणों की उपासना करता हुआ प्रार्थना करे (अहं मनुः अभवम्) मैं ज्ञानी होऊं, सूर्यवत् तेजस्वी होऊं, सर्व विद्यावाहिनी बुद्धि का स्वामी, मन्त्रद्रष्टा, विद्वान् होऊं । मैं वीर जनोचित शस्त्र और धर्मात्मोचित ज्ञान स्तुति की साधना करूं । मैं क्रान्त-दर्शी और सर्वप्रिय होऊं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्तिः। ३, ७ स्वराट् पंक्तिः। ४ निचत्त्रिष्टुप। ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर व राजसेनेचे गुणवर्णन असून या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जो जगदीश्वर विचारकांमध्ये विचारक, प्रकाशकांचा प्रकाशक, विद्वानांमध्ये विद्वान, अखंड, न्यायी, सर्वज्ञ व सर्वांवर उपकार करणारा आहे, त्याचाच विद्या, धर्माचरण व योगाभ्यासाने साक्षात्कार करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I am the thinker and law-giver of existence, I am the light of life, I comprehend the time and space of the universe, I am the visionary, I am the centre and shaker at the core. I create the thunder and light and I make the thunderbolt. I am the poet of omniscience and passionate lover of my creation. Come ye all and see.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! I, God the creator of the world, am Supreme Teacher of all sciences like a thoughtful scholar. I am illuminator of all like the suns, Delighter of all like the moon, and Omnipresent Supreme being that directs the whole world and its events. I am like a Rishi-the divine visionary or know of the real meaning of the mantras. I am like a genius knower of all subjects, and promt a hero to use thunderbolt-like powerful weapon manufactured by an upright learned scientist. I am a Kavi,-knower of all Shastras i.e. Omniscient, desiring the welfare of all. Behold me, that is, realize Me within.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! realize that God with true knowledge, observance of Dharma and the practice of Yoga. In fact, He is the Supreme Minister, Illuminator of all resplendent objects, the Greatest Teacher, Just Omniscient and Benevolent.
Foot Notes
(मनु:) मननशीली विद्वान् इब सर्वविद्याविज्ञापकः । मनु:-मन-ज्ञाने (दिवा:) ये विद्वांसस्ते मनव: (Stph 8, 6, 3, 18 ) प्रजापतिर्वै मनुः सहीदं सर्वममनुत (Stph 6, 6, 1, 19) । = Supreme Teacher of all sciences like a thoughtful scholar. (कक्षीवान् ) सर्वसृष्टिकक्षा विद्यन्ते यस्मिन्त्सः कक्षीवान्- कक्ष्यावानिति (NKT 6, 3, 11 ) । = Who has under Him all the events of the whole world i. e. Omnipresent. One who directs the whole universe. (कुत्सम् ) बज्रम् | = Thunderbolt and other powerful weapons. (अर्जुनेयम् ) अर्जुनेनर्जुना विदुषा निष्पादित मिव । = As made by an upright scientist. (उशना ) सर्वहितङ्कामयमानः । = Desiring the welfare of all. Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others take Kaksheevan, Kutsa, Arjuna, Kavi and Uhana as the Proper Nouns, of particular persons, but it is against the fundamental principles of the Vevic terminology already elucidated. The Rishi Vamadeva is the visionary of the mantra, and not the author.
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