ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः
देवता - आत्मा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मम॑ द्वि॒ता रा॒ष्ट्रं क्ष॒त्रिय॑स्य वि॒श्वायो॒र्विश्वे॑ अ॒मृता॒ यथा॑ नः। क्रतुं॑ सचन्ते॒ वरु॑णस्य दे॒वा राजा॑मि कृ॒ष्टेरु॑प॒मस्य॑ व॒व्रेः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठमम॑ । द्वि॒ता । रा॒ष्ट्रम् । क्ष॒त्रिय॑स्य । वि॒श्वऽआ॑योः । विश्वे॑ । अ॒मृताः॑ । यथा॑ । नः॒ । क्रतु॑म् । स॒च॒न्ते॒ । वरु॑णस्य । दे॒वाः । राजा॑मि । कृ॒ष्टेः । उ॒प॒मस्य॑ । व॒व्रेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मम द्विता राष्ट्रं क्षत्रियस्य विश्वायोर्विश्वे अमृता यथा नः। क्रतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टेरुपमस्य वव्रेः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमम। द्विता। राष्ट्रम्। क्षत्रियस्य। विश्वऽआयोः। विश्वे। अमृताः। यथा। नः। क्रतुम्। सचन्ते। वरुणस्य। देवाः। राजामि। कृष्टेः। उपऽमस्य। वव्रेः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथा मम विश्वायोः क्षत्रियस्य द्विता विश्व अमृता नो राष्ट्रं क्रतुञ्च सचन्ते वरुणस्य कृष्टेरुपमस्य वव्रेर्मम क्रतुं देवाः सचन्ते तथैवैतेष्वहं राजामि ॥१॥
पदार्थः
(मम) (द्विता) द्वयोर्भावः (राष्ट्रम्) (क्षत्रियस्य) (विश्वायोः) विश्वं पूर्णमायुर्यस्य तस्य (विश्वे) सर्वे (अमृताः) नाशरहिताः (यथा) (नः) अस्माकम् (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (सचन्ते) सम्बध्नन्ति (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (देवाः) देदीप्यमानाः (राजामि) (कृष्टेः) कृष्टस्य (उपमस्य) उपमा विद्यते यस्य तस्य (वव्रेः) स्वीकर्तुः ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! अस्मिञ्जगति स्वामी स्वं वा द्वावेव पदार्थौ वर्त्तेते यत्र दीर्घजीविनो न्यायशीलवृत्ता धार्मिका अमात्याः सर्वतो गुणग्राहकाः श्रेष्ठोपमा वर्त्तन्ते तत्रैव निवसन्त्सज्जनः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब दश ऋचावाले बयालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यथा) जैसे (मम) मुझ (विश्वायोः) पूर्ण अवस्थावाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय के (द्विता) दो का होना तथा (विश्वे) सम्पूर्ण (अमृताः) नाश से रहित जन (नः) हम लोगों के (राष्ट्रम्) राज्य (क्रतुम्) और बुद्धि को (सचन्ते) संबन्धयुक्त करते हैं और (वरुणस्य) श्रेष्ठ (कृष्टेः) खींचते हुए (उपमस्य) उपमायुक्त (वव्रेः) स्वीकार करनेवाले मुझ जन की बुद्धि को (देवाः) प्रकाशमान जन मेलते हैं, वैसे ही इन में मैं (राजामि) शोभित होता हूँ ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! इस संसार में स्वामी और स्वम् अर्थात् अपना ये दो ही पदार्थ वर्त्तमान हैं और जिस देश में दीर्घकालपर्य्यन्त जीवने और न्याययुक्त स्वभाववाले धार्मिक मन्त्री जन सब प्रकार के गुणग्रहणकर्त्ता श्रेष्ठ उपमा से युक्त वर्त्तमान हैं, वहाँ ही रहता हुआ सज्जन सुख का अत्यन्त भोग करता है ॥१॥
विषय
'श्रमशील उपासक' का जीवन
पदार्थ
[१] (क्षत्रियस्य) = क्षतों से अपना त्राण करनेवाले, (विश्वायो:) = पूर्ण जीवनवाले [शरीर में स्वस्थ, मन में निर्मल तथा बुद्धि में तीव्र] (मम) = मेरा (राष्ट्रम्) = यह शरीररूप राष्ट्र (द्विता) = दोनों का विस्तार करनेवाला है, शरीर में शक्ति का तथा मस्तिष्क में दीप्ति का । [२] मैं ऐसा प्रयत्न करता हूँ कि (विश्वे अमृता:) = सब देव (यथा) = जैसे (न:) = हमारे होते हैं। (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (वरुणस्य क्रतुम्) = वरुण के प्रज्ञान व शक्ति को (सचन्ते) = प्राप्त करते हैं। देवों को दिव्य गुणों को अपनाकर मैं देव बनता हूँ। देव बनकर वरुण की शक्ति व प्रज्ञा को प्राप्त करता हूँ । [३] ऐसा होने पर मैं (कृष्टेः) = एक श्रमशील व्यक्ति के, (उपमस्य) = प्रभु के अन्तिकतम व्यक्ति के प्रभु के उपासक के (वव्रेः) = रूप (या राजाभि) = राजा होता हूँ। मेरा जीवन एक 'श्रमशील उपासक' का जीवन होता है।
भावार्थ
भावार्थ- मैं क्षत्रिय व विश्वायु बनकर शरीर-राष्ट्र में शक्ति व ज्ञान का विस्तार करता हूँ। प्रयत्न करता हूँ कि मेरा जीवन एक श्रमशील उपासक का जीवन हो ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य । आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
राजा के कर्त्तव्य । (विश्वायोः) सब मनुष्यों के स्वामी (क्षत्रियस्य) बलवान् क्षत्रिय का (राष्ट्रम्) राष्ट्र अर्थात् (द्विता) राजा प्रजा दोनों ऐसे रहें (यथा) जिससे (नः) हमारे (विश्वे) सब लोग (अमृताः) दीर्घायु अमर हों। (देवाः) दानशील, विजिगीषु और धनार्थी लोग (वरुणस्य) सब दुःखों के वारक, एवं सबसे उत्तम वरण करने योग्य प्रधान पुरुष के (क्रतुं) ज्ञान और उपदिष्ट कर्म को (सचन्ते) एक मत होकर स्वीकार करें, उसका अनुकरण करें और (उपमस्य) समीपस्थ (वव्रेः) सुरूप वा मुझे राजा वरण करने वाले (कृष्टेः) प्रजाजन का मैं (राजामि) राजा बनूं। उनके द्वारा मैं शोभा प्राप्त करूं । अथवा (उपमस्य वव्रेः) समीपस्थ शत्रुचारक (कृष्टेः) शत्रु को कर्षण, पीडन करने में समर्थ वा हृदयहारी बल के द्वारा मैं (राजामि) खूब प्रदीप्त होऊं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजा, ईश्वर, ईश्वरोपासना व विद्वानांच्या गुणांंचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! या जगात स्वामी व स्वं अर्थात आपले असे दोन पदार्थ आहेत. ज्या देशात दीर्घजीवनयुक्त व न्याययुक्त स्वभावाचे, सर्व गुणग्राहककर्ते, श्रेष्ठ उपमा देण्यायोग्य, धार्मिक मंत्रीगण असतात तेथील निवासी सुखाचा अत्यंत भोग करतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I am Indra, sovereign spirit of the universe. Twofold is my kingdom: heaven and earth, or, the world of nature and the world of humanity. I am Varuna, highest Intelligence and the Ruling Power of the universe. All the Immortals, divine forces in the service of Varuna are ours, they comprise and conduct the mighty yajna system of the universe. Thus I rule all: the world of humanity, all that is highest and closest in the world of forms, and all that is hidden.$(This mantra is a metaphor of the living, breathing, intelligent, self-organising, autonomous and sovereign system of the universe as macrocosm as well as microcosm. At the macrocosmic level, Indra is the Supreme Sovereign, immanent and transcendent Spirit, and Varuna is the immanent ruling force, intelligence and the law of Rtam. Indra-varuna is a functional version of the Supreme Spirit which is both immanent and transcendent. At the microcosmic level, Indra-Varuna is the individual soul with all its faculties of awareness, intelligence, mind and senses. At the world level too, Indra-Varuna may be interpreted as the Ruler and the President-in-council.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! all enlightened persons who are immortal (by the nature of their soul and good reputation) serve the kingdom in two ways. Through my intellect, I am a Kshatriya (protector of people from distress) and long-lived. I rule over the subjects, while the wisemen follow my intellect and they are able to attract them, trying to make them lead a good life and accept others' virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this world there are primarily two things i.e. owner and the object owned. It is only by living in a State where there are long-lived, just and righteous ministers who accept the virtues from all and are ideal noble men, and because of them a common man enjoys much happiness.
Foot Notes
(बव्रे:) स्वीकर्तुः । = Of the person accepting or taking other's virtues. (ऋतुम्) प्रज्ञाम् । ऋतुरिति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) । = Good intellect.
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