ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम पृथु॒ज्रय॑मश्विना॒ संग॑तिं॒ गोः। यः सू॒र्यां वह॑ति वन्धुरा॒युर्गिर्वा॑हसं पुरु॒तमं॑ वसू॒युम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वा॒म् । रथ॑म् । व॒यम् । अ॒द्य । हु॒वे॒म॒ । पृ॒थु॒ऽज्रय॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । सम्ऽग॑तिम् । गोः । यः । सू॒र्याम् । वह॑ति । व॒न्धु॒र॒ऽयुः । गिर्वा॑हसम् । पु॒रु॒ऽतम॑म् । व॒सु॒ऽयुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वां रथं वयमद्या हुवेम पृथुज्रयमश्विना संगतिं गोः। यः सूर्यां वहति वन्धुरायुर्गिर्वाहसं पुरुतमं वसूयुम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वाम्। रथम्। वयम्। अद्य। हुवेम। पृथुऽज्रयम्। अश्विना। सम्ऽगतिम्। गोः। यः। सूर्याम्। वहति। वन्धुरऽयुः। गिर्वाहसम्। पुरुऽतमम्। वसुऽयुम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकविषये शिल्पविद्याविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अश्विना ! वयमद्या वां पृथुज्रयन्तं रथं हुवेम गोः सङ्गतिं हुवेम यो वन्धुरायुः सूर्य्यां वहति यं पुरुतमं गिर्वाहसं वसूयुं हुवेम स एव सुखी भवति ॥१॥
पदार्थः
(तम्) (वाम्) (रथम्) रमणीयं यानम् (वयम्) (अद्या) अस्मिन्नहनि। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (हुवेम) आदद्याम (पृथुज्रयम्) विस्तीर्णं बहुगतिम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (सङ्गतिम्) (गोः) पृथिव्याः (यः) (सूर्य्याम्) सूर्य्यसम्बन्धिनीं कान्तिम् (वहति) (वन्धुरायुः) वन्धुरमायुर्यस्य सः (गिर्वाहसम्) यो गिरा वहति प्राप्यते वा तम् (पुरुतमम्) यः पुरून् बहून् ताम्यति तम् (वसूयुम्) आत्मनो वसु द्रव्यमिच्छुम् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येनाग्निजलाभ्यां शिल्पविद्यासाधनं रथादिकं सम्पाद्यते स एव स्वात्मवत् सर्वान् प्रीणाति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले चवालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और उपदेशकविषय में शिल्पविद्याविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (वयम्) हम लोग (अद्या) आज (वाम्) तुम दोनों के (पृथुज्रयम्) विस्तीर्ण और बहुत गतिवाले (तम्) उस (रथम्) रमण करने योग्य वाहन को (हुवेम) ग्रहण करें और (गोः) पृथिवी के (सङ्गतिम्) सङ्ग को ग्रहण करें (यः) जो (वन्धुरायुः) थोड़ी अवस्थावाला (सूर्य्याम्) सूर्य्यसम्बन्धिनी कान्ति अर्थात् तेज की (वहति) प्राप्ति करता है जिस (पुरुतमम्) बहुतों को ग्लानि करने (गिर्वाहसम्) वाणी से प्राप्त करने वा प्राप्त होने (वसूयुम्) और अपने को द्रव्य की इच्छा करनेवाले का ग्रहण करें, वही सुखी होता है ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस अग्नि और जल से शिल्पविद्या ही साधन जिसका ऐसा रथ आदि उत्पन्न किया जाता है, वही अपने आत्मा के तुल्य सब को प्रसन्न करता है ॥१॥
विषय
पृथुज्रय रथ
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वयम्) = हम (अद्य) = आज (वाम्) = आपके (तं रथम्) = उस शरीररथ की (हुवेम) = पुकार करते हैं उस शरीररथ को प्राप्त करने की कामना करते हैं, जो कि (पृथुज्रयम्) = बड़े वेगवाला है- स्फूर्तियुक्त है, गो (संगतिम्) = ज्ञानकिरणों के मेलवाला है। शक्ति के कारण गतिवाला व प्रकाशमय है । [२] (य:) = जो रथ (सूर्याम्) = सूर्य की दुहिता को बुद्धि को (वहति) = धारण करता है, (वन्धुरायुः) = सब सौन्दर्यों को अपने साथ जोड़नेवाला है। हम उस रथ की कामना करते हैं, जो कि (गिर्वाहसम्) = ज्ञानपूर्वक स्तुतिवाणियों का धारण करता है, (पुरुतमम्) = अत्यन्त पालक व पूरक है, (वसूयुम्) = निवास के लिए आवश्यक सब धनों को अपने में लिये हुए है।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना से हमारा शरीर स्फूर्तिमय, ज्ञान के प्रकाशवाला, बुद्धिसम्पन्न, सुन्दर ज्ञानपूर्वक स्तुतिवाणियों को धारण करनेवाला, नीरोग व उत्तम निवासवाला बनता है।
विषय
जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अश्विना) पूर्वोक्त रूप से अश्व अर्थात् अपनी इन्द्रियों को उत्तम अश्वों के समान अपने वश करने वाले पुरुषों ! (अद्य) आज (वयम्) हम लोग (वाम्) आप दोनों के (तम्) उस (रथम्) रथ और रथ के तुल्य इस देह का (हुवेम) उत्तम रीति से वर्णन करें जो (पृथुज्रयाम्) अति विस्तृत गति वाला, बहुत काल तक जीने में समर्थ (गोः सम्-गतिम्) वाणी और इन्द्रियों से चिरकाल तक अच्छी प्रकार से युक्त रहे । और (वन्धुरायुः सूर्याम्) आधार काष्ठ वाला रथ जिस प्रकार ‘सूर्या’ अर्थात् कान्तिमती नव वधू को अपने में धारण करता है उसी प्रकार जो देह रूप रथ (वन्धुर युः) उत्तम २ भोगों की कामना करता हुआ भी (सूर्याम्) सूर्य की उषाकालिक प्रसन्न मुख कान्ति को (वहति) धारण करे और जो (गिर्वाहसम्) वाणी को धारण करने वाले (पुरु-तमम्) ‘पुरु’ अर्थात् इन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, (वसूयुम्) देह में बसे इन्द्रियों के स्वामी आत्मा को भी, वधूसहित वर के समान चिरकाल तक धारण करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुमीळ्हाजमीळहौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते । छन्द:- १, ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अध्यापक, उपदेशक, राजा, अमात्य व सज्जनाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! शिल्पविद्या हे साधन असलेला रथ अग्नी व जलाने उत्पन्न केला जातो, तोच आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्वांना प्रसन्न करतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, complementary currents of cosmic energy of the Divine, today we invoke you and call for that chariot of yours which is wide extended, joins earth and heaven, carries the light and energy of sunrays, ages not, carries the sound and which is abundant in various wealth which never diminishes but continuously enriches the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Importance of technology in respect of teachers and preachers is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins ( teachers and preachers) ! we give you advice today about your rapid and vast car and its movement on the earth. That man enjoys happiness, who leads regular life and bears the luster of the sun. We invite him, as he is desirous of getting wealth of all kinds, destroys enemies (internal and external) and is praised by all with their good words.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! that man is able to please all like himself, who with the proper combination of fire and water is capable to manufacture a good vehicle.
Foot Notes
(अश्विना ) अध्यापकोपदेशको । = Teachers and preachers. (सूर्य्याम् ) सूर्य्यसम्बन्धिनीं कान्तिम् । = The luster of the sun. (पृथुज्रयम्) विस्तीर्णं । बहुगतिम् । ज्रयति गति कर्मा (NG 2,14) ज्रि-अभिभवे (भ्वा० ) । पृथुज्त्रया इति पदनाम (NG 4, 2) इन्द्रियाणियानाहुः (कठो०)। अतो जितेन्द्रियो अध्यापकोपदेशकौ अश्विनौ । =' Vast and rapid.
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