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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वायु: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वायो॑ शु॒क्रो अ॑यामि ते॒ मध्वो॒ अग्रं॒ दिवि॑ष्टिषु। आ या॑हि॒ सोम॑पीतये स्पा॒र्हो दे॑व नि॒युत्व॑ता ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वायो॒ इति॑ । शु॒क्रः । अ॒या॒मि॒ । ते॒ । मध्वः॑ । अग्र॑म् । दिवि॑ष्टिषु । आ । या॒हि॒ । सोम॑ऽपीतये । स्पा॒र्हः । दे॒व॒ । नि॒युत्व॑ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु। आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो इति। शुक्रः। अयामि। ते। मध्वः। अग्रम्। दिविष्टिषु। आ। याहि। सोमऽपीतये। स्पार्हः। देव। नियुत्वता ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुसादृश्येन विद्वद्गुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे देव वायो ! स्पार्हः शुक्रोऽहं दिविष्टिषु नियुत्वता सह सोमपीतये ते मध्वोऽग्रं यथायामि तथा त्वमायाहि ॥१॥

    पदार्थः

    (वायो) (शुक्रः) शुद्धस्वभावः (अयामि) प्राप्नोमि (ते) तव (मध्वः) मधुरस्य (अग्रम्) (दिविष्टिषु) प्रकाशे स्थितासु क्रियासु (आ) (याहि) (सोमपीतये) उत्तमरसपानाय (स्पार्हः) स्पर्हणीयः (देव) (नियुत्वता) प्रभुणा राज्ञा सह ॥१॥

    भावार्थः

    ये वायुवत्सर्वत्र विहृत्य विद्याग्रहणं कुर्वन्ति ते सर्वत्र स्पर्हणीया जायन्ते ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब चार ऋचावाले सैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वायुसादृश्य से विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥१॥

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वन् (वायो) वायु के सदृश वर्त्तमान ! (स्पार्हः) ईप्सा करने योग्य (शुक्रः) शुद्ध स्वभाववाला मैं (दिविष्टिषु) प्रकाश के बीच जो स्थित क्रिया उनमें (नियुत्वता) समर्थ राजा के साथ (सोमपीतये) उत्तम रस के पान के लिये (ते) आपके (मध्वः) मधुर रस के (अग्रम्) अग्रभाग को जैसे (अयामि) प्राप्त होता हूँ, वैसे आप (आ, याहि) प्राप्त होओ ॥१॥

    भावार्थ

    जो वायु के सदृश सर्वत्र विहार करके विद्या का ग्रहण करते हैं, वे सर्वत्र ईप्सा करने योग्य होते हैं ॥१॥

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    विषय

    क्रियाशीलता रूप स्पृहणीय देव

    पदार्थ

    [१] हे (वायो) = क्रियाशीलता रूप दिव्यगुण ! (शुक्रः) = व्रत से दीप्त हुआ हुआ मैं (ते) = तेरे लिए (दिविष्टिषु) = [दिव: एषणेषु] ज्ञानप्राप्ति की कामनाओं के होने पर (अग्रम्) = सर्वप्रथम (मध्वः) = सोम को (अयामि) = आययामि [अयतिरन्तर्भावितण्यर्थः] प्राप्त कराता हूँ। क्रियाशीलता से वासनाओं का आक्रमण न होकर, सोम का रक्षण होता है। इससे ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। [२] हे (देव) = क्रियाशीलता रूप दिव्यगुण! (स्पार्हः) = तू स्पृहणीय है। तू (नियुत्वता) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले इस शरीर रथ से (सोमपीतये) = सोमरक्षण के लिए (आयाहि) = हमें प्राप्त हो । क्रियाशीलता से ही हमें सोमपान के योग्य बनाना है।

    भावार्थ

    भावार्थ– क्रियाशील बनकर हम सोम का रक्षण करें। यह सोम हमें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराएगा।

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    विषय

    राजा सेनापति, इन्द्र वायु ।

    भावार्थ

    हे (वायो) वायु के समान सर्वोपकारक, बलवान् एवं ज्ञानवान् पुरुष वा प्रभो ! आचार्य ! मैं (दिविष्टिषु) ज्ञानप्रकाशक प्राप्त करने की साधनाओं में लगकर (शुक्रः) अति शुद्ध, तेजस्वी और जल के समान पवित्र और (शुक्रः) ब्रह्मचर्यादि से बल-वीर्यवान् होकर (ते मध्वः अग्रं) तेरे ज्ञान के सर्वोत्तम भाग को (अयामि) प्राप्त करूं । हे (देव) सर्वप्रकाशक, ज्ञान बल आदि के देने वाले ! तू (स्पार्हः) अति स्पृहा, प्रेम वा अभिलाषा करने योग्य है । तू (सोमपीतये) शिष्य के पालन, एवं अन्नादि रसों के उपभोग के लिये (नियुत्वता) अश्वों से युक्त रथ से और विजितेन्द्रिय चित्त से (आयाहि) हमें प्राप्त हो शिक्षण कार्य में आचार्य गुरु आदि को जितेन्द्रिय होना आवश्यक है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १ वायुः । २-४ इन्द्रवायू देवते ॥ छन्दः- १, ३ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । २ भुरिगुष्णिक् ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान राजा व अमात्याच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे वायूप्रमाणे सर्वत्र विहार करून विद्या ग्रहण करतात, ते सर्वत्र वांछनीय असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vayu, lord omnipotent, self-refulgent and generous centre object of universal love, I come to the top of the honey sweets of yajnic creations of light and joy for the life divine, cleansed and pure as I am now. Come for a drink of soma by the chariot and the team of horses.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are compared with the air.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! mighty like the wind, I am desirous of pure nature. It come to you who are sweet- natured in bright activities like drinking good Soma juice in the company of the king. You should also come to me.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who acquire knowledge by moving every- where like the wind, become desirable or acceptable everywhere.

    Foot Notes

    (दिविष्टिषु) प्रकाशे स्थितासु क्रियासु | = In activities full of light (of knowledge ). (नियुत्वता ) प्रभुणा राज्ञा सह । नियुत्वान् इति ईश्वरनाम (NG 2, 22) = With my ruler, the king.

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