ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वै॒श्वा॒न॒राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ स॒जोषाः॑ क॒था दा॑शेमा॒ग्नये॑ बृ॒हद्भाः। अनू॑नेन बृह॒ता व॒क्षथे॒नोप॑ स्तभायदुप॒मिन्न रोधः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒राय॑ । मी॒ळ्हुषे॑ । स॒ऽजोषाः॑ । क॒था । दा॒शे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । बृ॒हत् । भाः । अनू॑नेन । बृ॒ह॒ता । व॒क्षथे॑न । उप॑ । स्त॒भा॒य॒त् । उ॒प॒ऽमित् । न । रोधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानराय मीळ्हुषे सजोषाः कथा दाशेमाग्नये बृहद्भाः। अनूनेन बृहता वक्षथेनोप स्तभायदुपमिन्न रोधः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानराय। मीळ्हुषे। सऽजोषाः। कथा। दाशेम। अग्नये। बृहत्। भाः। अनूनेन। बृहता। वक्षथेन। उप। स्तभायत्। उपऽमित्। न। रोधः॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निदृष्टान्तेन राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यस्त्वं बृहद्भा उपमिद्रोधो नानूनेन बृहता वक्षथेन राज्यमुप स्तभायत्तस्मै वैश्वानराय मीळ्हुषेऽग्नये सजोषा वयं सुखं कथा दाशेम ॥१॥
पदार्थः
(वैश्वानराय) विश्वेषु नायकाय (मीळ्हुषे) सेचकाय (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनाः। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम्। (कथा) केन प्रकारेण (दाशेम) दद्याम (अग्नये) वह्निवद्वर्त्तमानाय विदुषे राज्ञे (बृहत्) महत् (भाः) यो भाति सः (अनूनेन) न्यूनतारहितेन (बृहता) महता (वक्षथेन) रोषेण (उप) (स्तभायत्) स्तभ्नीयात् (उपमित्) य उपमिनोति सः (न) इव (रोधः) रोधनम् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यविद्युद्वत्सद्गुणप्रकाशका जलावरणमिव दुष्टानां निरोधकाः स्वात्मवत्सुखदुःखहानिलाभाञ्जानन्तो राज्यं कुर्वन्ति ते दण्डन्यायं प्रचालयितुं शक्नुवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तृतीयाष्टक में पाँचवें अध्याय और चतुर्थ मण्डल में पन्द्रह ऋचावाले पञ्चम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के दृष्टान्त से राजविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो आप (बृहत्) बड़े (भाः) शोभित नापनेवाले और (रोधः) रोकने को (उपमित्) अलग करता है उसके (न) समान (अनूनेन) न्यूनता से रहित (बृहता) बड़े (वक्षथेन) क्रोध से राज्य को (उप, स्तभायत्) रोके उस (वैश्वानराय) सब में नायक (मीळ्हुषे) सेचन करनेवाले (अग्नये) अग्नि के सदृश वर्त्तमान विद्वान् राजा के लिये (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले हम लोग सुख को (कथा) किस प्रकार से (दाशेम) देवें ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य और बिजुली के सदृश उत्तम गुणों के प्रकाश करने और जल के रोकनेवाले पदार्थ के सदृश दुष्टों के रोकनेवाले और अपने सदृश सुख, दुःख, हानि और लाभ को जानते हुए राज्य करते हैं, वे दण्ड और न्याय को चला सकते हैं ॥१॥
विषय
वैश्वानर प्रभु का उपासन
पदार्थ
[१] (वैश्वानराय) = सब मनुष्यों का हित करनरेवाले, (मीढुषे) = सब पर सुखों का सेवन करनेवाले उस (अग्नये) = अग्रगति के साधक प्रभु के लिये (सजोषाः) = समानरूप से प्रीतिपूर्वक उपासना करनेवाले हम (कथा) = स्तुति कथनों के द्वारा, स्तोत्रों के उच्चारण के द्वारा (दाशेम) = अपना अर्पण करते हैं। वस्तुतः घर में सभी को मिलकर उस प्रभु की उपासना करनी चाहिए। यह प्रभु का उपासन ही हमें सब व्यसनों से बचाता है। [२] वे (बृहद्धाः) = अत्यन्त प्रवृद्ध ज्योतिवाले प्रभु (अनूनेन) = किसी भी प्रकार की न्यूनता से रहित (बृहता) = महान् (वक्षथेन) = [by upliftment] विकास के द्वारा (उपस्तभायत्) = हमें थामते हैं। इस प्रकार हमारा धारण करते हैं, (न) = जैसे कि (उपमित्) = [स्थूणा] स्तम्भ (रोध:) = बड़े बड़े बाँधों को [stoppage] थामनेवाले होते हैं। हमारे जीवनरूप बाँधों के स्तम्भ वे प्रभु हैं । प्रभु की ज्ञान-ज्योति हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाती है। उस ज्ञान ज्योति से हमारे जीवनों में मलिनताएँ नहीं आतीं। इस प्रकार वे प्रभु हमारा कल्याण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम वैश्वानर प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें ज्ञान ज्योति प्राप्त करायेंगे और इस ज्ञान के द्वारा हमारा धारण करेंगे।
विषय
वैश्वानर अग्नि। सर्वनायक की उपासना।
भावार्थ
जो ( बृहद्भाः ) सूर्य के समान बड़े भारी तेज वा ज्ञानप्रकाश से युक्त ( अनूनेन ) किसी से भी न कम, अति अधिक ( बृहता ) बहुत बड़े ( वक्षथेन ) कार्य भार को उठाने या धारण करने के सामर्थ्य से ( रोधः न ) जलों के तट के समान ( उपमित् ) इस जगत् को स्वयं जानने, बनाने और चलाने हारा होकर ( उप स्तभायत् ) संभालता है उस (वैश्वानराय) समस्त जगत् के सञ्चालक, सब मनुष्यों के नायक राजा और विद्वान् ( मीळहुषे ) सूर्य वा मेघ के तुल्य आनन्द ऐश्वर्य सुखों के वर्ष (अग्नये) अग्नि के तुल्य ज्ञानप्रकाशक, अग्रणी, मार्गदर्शक के लिये हम ( सजोषाः ) समान रूप से प्रीतियुक्त होकर ( कथा दाशेम ) किस प्रकार आत्मसमर्पण करें, करादि दें। दान, मान आदर सत्कार आदि करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात बुद्धिमान राजा, अध्यापक, उपदेशक प्रश्नकर्ता व समाधानकर्त्याचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्य व विद्युतप्रमाणे उत्तम गुणांचा प्रकाश करणारे, जल रोखणाऱ्या पदार्थांसारखे दुष्टांना रोखणारे व आपल्यासारखे सुख-दुःख, हानी व लाभ जाणून राज्य करतात ते दंड व न्याय करू शकतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
How shall we, in accord with Agni, happy and rejoicing, offer homage, service and support to the great, generous Vaishvanara Agni, vital fire sustaining the earth, leader and ruler of humanity who, with his awful might and unbounded reach, mighty lustrous as he is, holds up this vast world like a column bearing the burden of a mighty structure.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of a king are compared with Agni.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! shining like the fire how can we give happiness to you who are bright with great lustre, shower benefits, leader of all persons and upholder of the State like a dam. With anger and wrath (at injustice) and the one who duly measures, let all of us try to confer happiness on your loving behavior and the spirit of service.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The rulers over a State being like the sun are illuminators of good virtues, restrain the wicked like a water dam. They regard the happiness and misery as well gain and loss of others as their own, and so can administer the State properly with justice and laws the land.
Foot Notes
(वक्षथेन) रोषेण । = With wrath or righteous indignation. (सजोषाः) समानप्रीत्तिसेवताः । अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् = Full of equal love and the spirit of service.
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