ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
इ॒दमु॒ त्यत्पु॑रु॒तमं॑ पु॒रस्ता॒ज्ज्योति॒स्तम॑सो व॒युना॑वदस्थात्। नू॒नं दि॒वो दु॑हि॒तरो॑ विभा॒तीर्गा॒तुं कृ॑णवन्नु॒षसो॒ जना॑य ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । पु॒रु॒ऽतम॑म् । पु॒रस्ता॑त् । ज्योतिः॑ । तम॑सः । व॒युन॑ऽवत् । अ॒स्था॒त् । नू॒नम् । दि॒वः । दु॒हि॒तरः॑ । वि॒ऽभा॒तीः । गा॒तुम् । कृ॒ण॒व॒न् । उ॒षसः॑ । जना॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमु त्यत्पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात्। नूनं दिवो दुहितरो विभातीर्गातुं कृणवन्नुषसो जनाय ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। ऊम् इति। त्यत्। पुरुऽतमम्। पुरस्तात्। ज्योतिः। तमसः। वयुनऽवत्। अस्थात्। नूनम्। दिवः। दुहितरः। विऽभातीः। गातुम्। कृणवन्। उषसः। जनाय ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रातर्वर्णनविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्यास्त्यदिदं पुरुतमं ज्योतिर्वयुनावत्तमसः पुरस्तादस्थात्तस्य दिवो विभातीर्दुहितर उषसो जनाय गातुमु नूनं प्रकाशितां कृणवन्निति विजानीत ॥१॥
पदार्थः
(इदम्) (उ) (त्यत्) तत् (पुरुतमम्) अतिशयेन बहुप्रकारम् (पुरस्तात्) पूर्वम् (ज्योतिः) तेजः (तमसः) रात्रेः (वयुनावत्) प्रज्ञानवत् (अस्थात्) वर्त्तते (नूनम्) (दिवः) प्रकाशस्य (दुहितरः) कन्या इव वर्त्तमानाः (विभातीः) प्रकाशयन्तः (गातुम्) पृथिवीम् (कृणवन्) कुर्वन्ति (उषसः) प्रभाताः (जनाय) मनुष्याद्याय ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! भवन्तः पुरुषार्थेन सूर्य्यप्रकाशवद्विज्ञानं प्राप्य तमोनिवृत्तिवदविद्यां निवार्य्याऽऽनन्दिता भवन्तु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले इक्कावनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में प्रातःकाल का वर्णन जिसमें ऐसे विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (त्यत्) सो (इदम्) यह (पुरुतमम्) अतिशय करके अनेक प्रकार का (ज्योतिः) तेज अर्थात् प्रकाश (वयुनावत्) प्रज्ञान के सदृश (तमसः) रात्रि से (पुरस्तात्) प्रथम (अस्थात्) वर्त्तमान है उस (दिवः) प्रकाश के सम्बन्ध से (विभातीः) प्रकाश करती हुई (दुहितरः) कन्याओं के सदृश वर्त्तमान (उषसः) प्रभातवेलाएँ (जनाय) मनुष्य आदि के लिये (गातुम्) भूमि को (उ) तो (नूनम्) निश्चय प्रकाशित (कृणवन्) करती हैं, यह जानो ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग पुरुषार्थ से सूर्य्य के प्रकाश के सदृश विज्ञान को प्राप्त होकर, अन्धकार की निवृत्ति के सदृश अविद्या का निवारण करके आनन्दित होओ ॥१॥
विषय
पालक व प्रज्ञापक ज्योति
पदार्थ
[१] (इदम्) = यह (उ) = निश्चय से (त्यत्) = वह प्रसिद्ध (पुरुतमम्) = अतिशयेन पालक व पूरक (वयुनावत्) = अतिप्रशस्त प्रज्ञानवाली [ प्रशस्त कान्तिवाली] (ज्योतिः) = ज्योति पुरस्तात् पूर्व दिशा में (तमसः उद् अस्थात्) = अन्धकार को विनष्ट करके उठ खड़ी हुई है । [२] (नूनम्) = निश्चय से (दिवः दुहितर:) = ज्ञान का पूरण करनेवाली (विभाती:) = चमकती हुई (उषस:) = उषाएँ (जनाय) = लोगों के लिए (गातुं कृणवन्) = मार्ग को करती हैं। ये उषायें अन्धकार को दूर करके मार्ग को दिखानेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- उषाकाल का प्रकाश पालक [पुरुतमं] व प्रज्ञापक [वयुनावत्] है। ये उषाएँ प्रकाश को करती हुईं हमारे लिये मार्गदर्शन करती हैं।
विषय
उषावत् नव युवतियों के कर्त्तव्यों का वर्णन । उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (पुरुतमं) सबसे अधिक आकाश देश को पूरने वाला सूर्य प्रकाश (पुरस्तात्) प्राची दिशा में (वयुनावत्) सब ज्ञानों, कर्मों से युक्त, सर्वप्रकाशक होकर (तमसः अस्थात्) रात्रि के अन्धकार में से ऊपर उठता है और (दिवः दुहितरः विभातीः उषसः) देदीप्यमान सूर्य की कन्याओं के समान, वा प्रकाश से जगत् को पूरने और प्रकाश देने वाली, स्वप्रकाश युक्त उषा-वेलाएं (जनाय गातुं कृणवत्) मनुष्यों के लिये पृथिवी को प्रकट करती हैं उसी प्रकार (इद्म् उ) यह (त्यत्) वह प्रसिद्ध (पुरुतमं) समस्त विद्याओं से सब से अधिक पूर्ण (ज्योति) सर्व ज्ञानप्रकाशक, वेदमय तेज है, जो (तमसः) दुःखदायी अज्ञान से भिन्न, (पुरस्तात्) सबसे पूर्व विद्यमान, सब से श्रेष्ठ और (वयुना-वित्) उत्तम ज्ञान और कर्मोपदेश से युक्त होकर (अस्थात्) सदा के लिये स्थिर हैं । (नूनं) निश्चय से (दिवः) सर्व ज्ञानमय, प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की (दुहितरः) कन्याओं के तुल्य, वा उससे उत्पन्न अथवा ज्ञान रस की प्रदान करने वाली, (विभातीः) विविध ज्ञानों का प्रकाश करने वाली, (उषसः) ! पापों को दग्ध करने वाली वेद वाणियां (जनाय) समस्त मनुष्य मात्र के लिये (गातुं) जानने योग्य ज्ञान और मार्ग को (कृणवत्) प्रकट कर देती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात उषा, स्त्री व पुरुष यांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! तुम्ही पुरुषार्थाने सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विज्ञान प्राप्त करून अविद्येचा अंधकार निवारण करा व आनंदित व्हा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Yonder in the east arises and shines that glorious light of the dawn revealing itself from the depths of night’s darkness and inspiring us to wake up and see the light of knowledge. Surely daughters of heaven, the sublime lights of the dawn illuminate the earth for us to see the paths of the day’s action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A look at the morning is narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
This widely spread light of various kinds bestows knowledge, and has sprung up on the earth out of the darkness. Verily the dawns which are like the daughters of light are making the earth bright for men and other living beings which enables them to see and act.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should enjoy bliss by attaining the knowledge industriously like the light of the sun and by driving away ignorance like dispelling a night.
Foot Notes
(पुरुतमम् ) अतिशयेन बहुप्रकारम् । पुरु इति बहुनाम (NG 3, 1 ) वयुनम् इति प्रज्ञा नाम (NG 3, 9)। = Of various kinds. (वयुनावत्) प्रज्ञानवत् । = Full of knowledge. (दिवः) प्रकाशस्य । of light. (गातुम् ) पृथिवीम् । गातुरिति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = The earth.
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