ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
तद्दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्वार्यं॑ म॒हद्वृ॑णी॒महे॒ असु॑रस्य॒ प्रचे॑तसः। छ॒र्दिर्येन॑ दा॒शुषे॒ यच्छ॑ति॒ त्मना॒ तन्नो॑ म॒हाँ उद॑यान्दे॒वो अ॒क्तुभिः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठतत् । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । वार्य॑म् । म॒हत् । वृ॒णी॒महे॑ । असु॑रस्य । प्रचे॑तसः । छ॒र्दिः । येन॑ । दा॒शुषे॑ । यच्छ॑ति । त्मना॑ । तत् । नः॒ । म॒हान् । उत् । अ॒या॒न् । दे॒वः । अ॒क्तुऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्देवस्य सवितुर्वार्यं महद्वृणीमहे असुरस्य प्रचेतसः। छर्दिर्येन दाशुषे यच्छति त्मना तन्नो महाँ उदयान्देवो अक्तुभिः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठतत्। देवस्य। सवितुः। वार्यम्। महत्। वृणीमहे। असुरस्य। प्रऽचेतसः। छर्दिः। येन। दाशुषे। यच्छति। त्मना। तत्। नः। महान्। उत्। अयान्। देवः। अक्तुऽभिः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सवितुर्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! वयं यत्सवितुर्देवस्य प्रचेतसोऽसुरस्य मेघस्य महद्वार्यं छर्दिर्वृणीमहे तद्यूयं स्वीकुरुत येन विद्वांस्त्मना दाशुषे वार्यं महच्छर्दिर्यच्छति तन्महान् देवोऽक्तुभिर्न उदयान् ॥१॥
पदार्थः
(तत्) (देवस्य) देदीप्यमानस्य (सवितुः) वृष्ट्यादीनां प्रसवकर्त्तुः (वार्यम्) वरणीयेषु वा जलेषु भवम् (महत्) (वृणीमहे) स्वीकुर्म्महे (असुरस्य) मेघस्य (प्रचेतसः) प्रज्ञापकस्य (छर्दिः) गृहम्। छर्दिरिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (येन) (दाशुषे) दात्रे (यच्छति) (त्मना) आत्मना (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (महान्) (उत्) (अयान्) यच्छतु (देवः) द्योतमानः (अक्तुभिः) रात्रिभिः ॥१॥
भावार्थः
ये विद्वांसो मेघस्य सूर्य्यस्य च सम्बन्धविद्यां जानन्ति तेऽहोरात्रेषु महत्कार्य्यं संसाध्याऽऽनन्दन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में सविता परमात्मा के गुणों का वर्णन करते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करनेवाले (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) मेघ के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं (तत्) उसका आप लोग स्वीकार करो (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता से देवे ॥१॥
भावार्थ
जो विद्वान् जन मेघ और सूर्य्य के सम्बन्ध की विद्या को जानते हैं, वे दिन और रात्रियों में बड़े कार्य्य को सिद्ध करके आनन्दित होते हैं ॥१॥
विषय
'असुर प्रचेता' प्रभु
पदार्थ
[१] (देवस्य) = प्रकाशमय (सवितुः) = प्रेरक प्रभु के (तद्) = उस (वार्यम्) = वरणीय (महत्) = महनीय तेज को (वृणीमहे) = वरते हैं 'तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि'। उस प्रभु के तेज को वरते हैं, जो कि (असुरस्य प्रचेतसः) = [असून् राति] प्राणशक्ति का संचार करनेवाले हैं और प्रकृष्ट चेतनावाले हैं। प्रभु शक्ति व ज्ञान के पुञ्ज हैं। हम भी इनके तेज का वरण करते हैं। इसी तेज को धारण करने के लिए यत्नशील होते हैं । [२] येन जिस तेज से वे प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए आत्मार्पण करनेवाले के लिए, (छर्दिः) = शरण को (यच्छति) = देते हैं, (महान् देव:) = वे महादेव (नः) = हमारे लिए (त्मना) = स्वयं (अक्तुभिः) = अपनी प्रकाश की किरणों के साथ (तत्) = उस तेज को (उदयान्) = दें ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु 'असुर हैं, प्रचेता' हैं। हमारे लिए प्रभु प्रकाश की किरणों के साथ हमें तेजस्विता प्रदान करें जो तेजस्विता सब रक्षणात्मक कार्यों में विनियुक्त हो ।
विषय
सूर्यवत् सविता प्रभु परमेश्वर, जगदुत्पादक का वर्णन प्रजापति का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (असुरस्य) प्राणों के देने वाले (सवितुः देवस्य वार्यम् महत्) प्रकाशवान् सूर्य का जलों के उत्पन्न करने में समर्थ बड़ा भारी तेज है । (येन छर्दिः यच्छति) जिस तेज से वह स्वयं सबको गृह या आश्रय देता है और स्वयं भी (देवः अक्तुभिः महान् उद् अयान्) वह सूर्य प्रकाश युक्त किरणों से सब दिन स्वयं उदय को प्राप्त होता है उसी प्रकार हम लोग भी (प्र-चेतसः) उत्तम ज्ञानवान् (असुरस्य) सब के प्राणों के दाता वा शत्रुओं को वायु के तुल्य उखाड़ देने वाले (सवितुः) सर्वोत्पादक ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी, (देवस्य) प्रभु, राजा वा विजिगीषु के (तत् महत् वार्यम्) उस महान् शत्रुवारक और वरण करने योग्य बल ऐश्वर्य का (वृणीमहे) वरण करें प्राप्त करें (येन) जिससे वह (त्मना) स्वयं (दाशुषे) कर आदि देने वाले प्रजा जन को (छर्दि:-यच्छन्ति) गृह के समान शरण प्रदान करता है। वह (देवः) विजिगीषु, व्यवहारकुशल, विद्वान् पुरुष (अक्तुभिः) प्रकाशक, कमनीय गुणों से (महान्) महान्, आदर योग्य होकर दिनों दिन (उत् अयान्) उदय को प्राप्त हो और (नः तत् यच्छति) हमें भी वही ऐश्वर्य और तेज प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती ॥ २ विराड् जगती । ४ स्वराड् जगती । ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सविता अर्थात सर्व जग उत्पन्न करणाऱ्या परमात्म्याच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जे विद्वान मेघ व सूर्यासंबंधी विद्या जाणतात ते दिवसरात्र महान कार्य सिद्ध करून आनंदित होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We love, choose and pray for that great, lovable and cherished energy and refulgence of Savita, self- refulgent, all observant, giver of light, life and breath of energy by which, all by himself, he gives the peace and shelter of a blessed home to the generous yajnic devotee. May the same lord of light and life arise for us day by day and bless us with the bliss of a sweet home.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the Savita (sun) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! we worship and seek for the Eternal Home of sun, who is the Creator of Universe in the beginning, incessantly radiant, knower and container of great clouds. The learned persons also provide shelter to a donor in a magnificent manner. That sun may protect us during the nights and give away the riches immensely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons who know the relation between the sun and the cloud, can in joy bliss by doing great works in day time and at night.
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