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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नू रो॑दसी॒ अहि॑ना बु॒ध्न्ये॑न स्तुवी॒त दे॑वी॒ अप्ये॑भिरि॒ष्टैः। स॒मु॒द्रं न सं॒चर॑णे सनि॒ष्यवो॑ घ॒र्मस्व॑रसो न॒द्यो॒३॒॑ अप॑ व्रन् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । रो॒द॒सी॒ इति॑ । अहि॑ना । बु॒ध्न्ये॑न । स्तु॒वी॒त । दे॒वी॒ इति॑ । अप्ये॑भिः । इ॒ष्टैः । स॒मु॒द्रम् । न । स॒म्ऽचर॑णे । स॒नि॒ष्यवः॑ । घ॒र्मऽस्व॑रसः । न॒द्यः॑ । अप॑ । व्र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू रोदसी अहिना बुध्न्येन स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टैः। समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो३ अप व्रन् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। रोदसी इति। अहिना। बुध्न्येन। स्तुवीत। देवी इति। अप्येभिः। इष्टैः। समुद्रम्। न। सम्ऽचरणे। सनिष्यवः। घर्मऽस्वरसः। नद्यः। अप। व्रन् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! घर्मस्वरसो भवान् यथेष्टैरप्येभिस्सह सनिष्यवो नद्यः सञ्चरणे समुद्रं नापव्रँस्तथा बुध्न्येनाहिना सहिते देवी रोदसी नू स्तुवीत ॥६॥

    पदार्थः

    (नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अहिना) मेघेन (बुध्न्येन) अन्तरिक्षे भवेन (स्तुवीत) प्रशंसेत् (देवी) देदीप्यमाने (अप्येभिः) अप्सु भवैः (इष्टैः) सङ्गन्तुं प्राप्तुमर्हैः (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (न) इव (सञ्चरणे) सम्यग्गमने (सनिष्यवः) विभागं करिष्यमाणाः (घर्मस्वरसः) घर्मे यज्ञे स्वकीयो रसो यस्य सः (नद्यः) सरितः (अप) (व्रन्) अपवृण्वन्ति ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा मेघजलैः पूर्णा नद्य आवरणानि छित्त्वाऽन्तरिक्षेऽपो गच्छन्ति तथैव यूयं विद्याकाशं गत्वा सर्वा विद्याः प्रशंसत ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (घर्मस्वरसः) यज्ञ में अपने रसवाले आप जैसे (इष्टैः) मिलने और प्राप्त होने योग्य (अप्येभिः) जल में उत्पन्न हुए पदार्थों के साथ (सनिष्यवः) विभाग करती हुई (नद्यः) नदियाँ (सञ्चरणे) सुन्दर गमन में (समुद्रम्) अन्तरिक्ष के (न) तुल्य (अप, व्रन्) ढाँपती हैं, वैसे (बुध्न्येन) अन्तरिक्ष में हुए (अहिना) मेघ के सहित (देवी) प्रकाशमान (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी की (नू) शीघ्र (स्तुवीत) प्रशंसा करें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे मेघों के जलों से पूर्ण नदियाँ आवरणों को काट कर अन्तरिक्ष में जलों को प्राप्त होती हैं, वैसे ही आप लोग विद्या की दीप्ति को प्राप्त होकर सब विद्याओं की प्रशंसा करो ॥६॥

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    विषय

    प्रभुस्मरण

    पदार्थ

    [१] (नु) = अब (अहिना बुध्न्येन) = अहीन बुध्नवाले- अहीन आधारभूत प्रभु की प्राप्ति के दृष्टिकोण से (रोदसी) = द्यावापृथिवी (स्तुवीत) = हमारे से स्तुत हों। हम इन द्यावापृथिी का स्तवन करें इनके स्तवन में हम इनके उस अहीन आधारभूत प्रभु की महिमा को भी देखनेवाले बनेंगे। प्रभु ही तो इनको आधार दे रहे हैं, इस अनन्त से प्रतीयमान रोदसी के धारण करनेवाले वे प्रभु कितने ही महान् होंगे ? [२] (अप्येभिः इष्टै:) = प्राप्त करने योग्य इष्ट पदार्थों के हेतु से देवी - यह सब व्यवहारों व गतियों को करनेवाली स्वास्थ्य की देवी [अ-दिति] हमारे से आराधित होती है। स्वास्थ्य ही सब इष्ट पुरुष का मूल है 'धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्' । [३] (सनिष्यवः) = धनप्राप्ति की कामना करना (न) = जैसे (संचरणे) = मार्गों पर चलने के अवसर में समुद्रम् उस आनन्दमय प्रभु का स्मरण करना इसी प्रकार (घर्मस्वरसः) = दीप्त स्तुति के शब्दोंवाले [धर्म: दीप्त, स्वृ= शब्दे] पुरुष ही (नद्यः अपव्रन्) = इन ज्ञान-नदियों के प्रवाहों को खोल डालते हैं। प्रभुस्तवन से ही धनार्थी धन प्राप्त करते हैं और ज्ञानार्थी ज्ञान-नदियों के प्रवाहों में स्नान करते हैं। वैदिक साहित्य में ज्ञान को देनेवाला आचार्य भी 'समुद्र' है 'तपो प्रतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे' । ज्ञान का प्रवाह भी 'सरस्वती' नदी का प्रवाह है, इसमें स्नान करके विद्यार्थी 'स्नातक' बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - रोदसी [ द्यावापृथिवी] का स्मरण, इनके आधारभूत 'अहिर्बुध्न्य' प्रभु का स्मरण कराता है। प्रभुस्मरण से प्राप्त स्वास्थ्य सब पुरुषार्थों का आधार बनता है। प्रभुस्मरण से धनार्थी धन लाभ करता है और ज्ञानार्थी ज्ञान को प्राप्त करता है।

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    विषय

    स्त्रियें कैसे पुरुष को वरें । और लोग वर वधु की प्रशंसा करें ।

    भावार्थ

    (न) जिस प्रकार (संचरणे) चलने में (सनिष्यवः) जल को विभक्त कर लेने वाली (नद्यः) नदियें (धर्म-स्वरसः) बहते जलों से पूर्ण होकर, दूर जाकर (समुद्रम् अप व्रन्) समुद्र को ही वरण करती हैं। उसी प्रकार (सनिष्यवः) नाना द्रव्य, एवं ऐश्वर्य को चाहने वाली, (नद्यः) नदियों के तुल्य सुख समृद्धि से युक्त स्त्रियें भी (संचरणे) समान पद पर आचरण करने वा साथ मिल कर धर्मानुष्ठान करने के लिये (समुद्रं) समुद्र के समान गंभीर एवं अपार उदार पुरुष के प्रति (धर्म-स्वरसः) अति दीप्त उज्वल स्वर से प्रसन्नता युक्त होकर (अप-व्रन्) उसके प्रति अपने प्रेम भाव प्रकट करें और लोग (अप्येभिः इष्टैः) आप्त जनों के योग्य इष्ट उत्तम वचनों और आदर सत्कारों से और (बुध्न्येन अहिना) आकाश में स्थित मेघ या सूर्य के तुल्य शान्तिप्रद वा तेजस्वी वर के मिष से (रोदसी नु) आकाश और पृथिवी के तुल्य वर वधू दोनों की ही (स्तुवीत) स्तुति करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ भुरिक् पंक्तिः। ६,७ स्वराट् पंक्तिः। ८,९ विराड् गायत्री। १० गायत्री॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशा मेघांच्या जलांनी पूर्ण भरलेल्या नद्या आवरण हटवून अंतरिक्षातील जल प्राप्त करतात तसे तुम्ही ही विद्या प्राप्त करून सर्व विद्येची प्रशंसा करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As the sailors who desire to cross the sea study and appraise the sea and sea conditions to sail over, so, O dedicated performers of yajna, study the earth and heaven along with thunder and clouds and the desired water gifts of the skies so that streams of vapour and showers of rain be released for the rivers to flow over land to the sea.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of attributes of enlightened is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you take interest in the Yajnas. Praise the resplendent earth and heaven along with the cloud in the firmament and desirable wealth, uniting articles in the water. It is like the rivers in their charming movements while dividing them which cover the things under-neath, like the middle region.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the rivers full of the waters from the clouds, reach the waters in the firmament having cast aside all obstacles, in the same manner, go to the sky (height) of knowledge and admire all sciences.

    Foot Notes

    (धर्मंस्वरस:) धर्मे यज्ञे स्वकीयो रसो यस्य सः । धर्म इति यज्ञनाम (NG 3, 17)। = Whose real interest is in the Yajna. (समुद्रम् ) अन्तरिक्षम् । समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम । (NG 1, 3) = Firmament. (बुध्न्येन अहिना ) अन्तरिक्षे भवेन मेघेन । बुध्नमन्तरिक्षं बद्धास्मिन् धृता आपः इति (NKT 10, 4, 44) अहिरिति मेघनाम (NC 1, 10) = With the cloud in the firmament.

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