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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒ही द्यावा॑पृथि॒वी इ॒ह ज्येष्ठे॑ रु॒चा भ॑वतां शु॒चय॑द्भिर॒र्कैः। वत्सीं॒ वरि॑ष्ठे बृह॒ती वि॑मि॒न्वन्रु॒वद्धो॒क्षा प॑प्रथा॒नेभि॒रेवैः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ही । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । इ॒ह । ज्येष्ठे॒ इति॑ । रु॒चा । भ॒व॒ता॒म् । शु॒चय॑त्ऽभिः । अ॒र्कैः । यत् । सी॒म् । वरि॑ष्ठे॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । वि॒ऽमि॒न्वन् । रु॒वत् । ह॒ । उ॒क्षा । प॒प्र॒था॒नेभिः॑ । एवैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मही द्यावापृथिवी इह ज्येष्ठे रुचा भवतां शुचयद्भिरर्कैः। वत्सीं वरिष्ठे बृहती विमिन्वन्रुवद्धोक्षा पप्रथानेभिरेवैः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मही इति। द्यावापृथिवी इति। इह। ज्येष्ठे इति। रुचा। भवताम्। शुचयत्ऽभिः। अर्कैः। यत्। सीम्। वरिष्ठे इति। बृहती इति। विऽमिन्वन्। रुवत्। ह। उक्षा। पप्रथानेभिः। एवैः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ द्यावापृथिव्योर्गुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यद्यो विमिन्वन् रुवद्धोक्षेव विद्वानिह सीं शुचयद्भिरर्कैः पप्रथानेभिरेवैर्गुणैस्सह वर्त्तमाने वरिष्ठे बृहती मही ज्येष्ठे रुचा द्यावापृथिवी भवतां ते [=तान्] यथावद्विजानाति स एव सर्वेषां कल्याणकरो भवति ॥१॥

    पदार्थः

    (मही) महत्यौ (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (इह) (ज्येष्ठे) अतिशयेन प्रशस्ये (रुचा) रुचिकर्यौ (भवताम्) (शुचयद्भिः) पवित्रयद्भिः (अर्कैः) अर्चनीयैः (यत्) यः (सीम्) सर्वतः (वरिष्ठे) अतिशयेन वरे (बृहती) बृहन्त्यौ (विमिन्वन्) विशेषेण प्रक्षिपन् (रुवत्) प्रशस्तशब्दवत् (ह) किल (उक्षा) सूर्यः (पप्रथानेभिः) भृशं विस्तृतैः (एवैः) सुखप्रापकैः ॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः पृथिवीमारभ्य सूर्य्यपर्य्यन्तान् पदार्थाञ्च जानन्ति त ऐश्वर्य्यवन्तो भूत्वा सर्वान् सुखयन्तु ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात ऋचावाले छप्पनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में द्यावापृथिवी अर्थात् प्रकाश और भूमि के गुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (विमिन्वन्) विशेष करके फेंकता हुआ (रुवन्) प्रशंसित शब्दवान् जैसे हो वैसे (ह) ही (उक्षा) सूर्य्य के समान विद्वान् (इह) यहाँ (सीम्) सब ओर से (शुचयद्भिः) पवित्र करते हुए (अर्कैः) सेवा करने योग्य और (पप्रथानेभिः) अत्यन्त विस्तारयुक्त (एवैः) सुख को प्राप्त करानेवाले गुणों के साथ वर्त्तमान (वरिष्ठे) अतीव श्रेष्ठ (बृहती) बढ़ते हुए (मही) बड़े (ज्येष्ठे) अत्यन्त प्रशंसा करने योग्य (रुचा) रुचिकर (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और भूमि (भवताम्) होते हैं, उनको यथावत् विशेष करके जानता है, वही सब का कल्याण करनेवाला होता है ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पृथिवी से लेके सूर्य्यपर्य्यन्त पदार्थों को जानते हैं, वे धनवान् होकर सब को सुखी करें ॥१॥

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    विषय

    'शुचयद्भिरकैः, पप्रथानेभिरेवैः'

    पदार्थ

    [१] (इह) = इस हमारे जीवन-यज्ञ में (मही द्यावापृथिवी) = ये (महनीय) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मस्तिष्क व शरीर रूप द्यावापृथिवी (रुचा) = दीप्ति से (ज्येष्ठे) = अत्यन्त प्रशस्त (भवताम्) = हों। मस्तिष्क ज्ञानदीप्ति से तथा शरीर तेजस्विता की दीप्ति से दीप्त हो। [२] (यत्) = अब (सीम्) = निश्चय से (रुवत् उक्षा) = प्रभु-स्तवन करता हुआ और प्रभु-स्तवन के द्वारा शरीर व मस्तिष्क को सोम [वीर्य] से सिक्त करता हुआ [प्रभु-स्तवन से ही तो सोम का रक्षण होता है] यह पुरुष (शुचयद्भिः अर्कैः) = जीवन को पवित्र बनानेवाले मन्त्रों से तथा (पप्रथानेभिः एवैः) = विस्तार को प्राप्त होती हुई गतियों से उदार कर्मों से इनको (वरिष्ठे) = उरुतर [विशाल] व (बृहती) = प्रवृद्ध शक्तिवाला (विमिन्वन्) = बनाता है। मस्तिष्क को 'शुचयद्भिः अर्कैः' पवित्र ज्ञानप्रद मन्त्रों से उरुतर [विशाल] बनाता है तथा उदार कर्मों से शरीर को प्रवृद्ध शक्तिवाला। ऐसा करने पर हमारे द्यावापृथिवी महनीय व ज्येष्ठ बनते हैं, चमक उठते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोमरक्षण के द्वारा मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनाएँ तथा शरीर को तेजस्विता से चमका दें। हम पवित्र ज्ञान की वाणियों व उदार कर्मों को अपनानेवाले हों ।

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    विषय

    सूर्य पृथिवीवत् वर वधू, स्त्री पुरुष और गुरु शिष्य, राजा प्रजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (इह) इस संसार में जिस प्रकार (द्यावापृथिवी मही शुचयद्भिः अर्कैः रुचा ज्येष्ठे भवताम्) सूर्य और पृथिवी दोनों बड़ी होकर पवित्रकारी तेजों से कान्ति से सर्वोत्तम होते हैं । उसी प्रकार सूर्य-पृथिवीवत् पुरुष और स्त्री, (मही) गुणों में आदरणीय होकर (शुचयद्भिः-अर्कैः) पवित्र करने वाले वेदमन्त्रों और अन्नों से और (रुचा) कान्ति और उत्तम रुचि से (ज्येष्ठे) सब से उत्तम (भवताम्) होकर रहें। और जिस प्रकार (उक्षा) जल सेचन करने और सब को धारण करने वाला मेघ (वरिष्ठे वृहती विमिन्वन् पथानेभिः एवैः रुवत्) बड़ी २ सूर्य पृथिवी उन दोनों को व्यापता हुआ व्यापक तेजों और वायुओं द्वारा ध्वनित करता है उसी प्रकार (उक्षा) ज्ञान धाराओं का सब पर समान भाव से सेचन करने वाला विद्वान् पुरुष (यत्) जो (सीम्) सब प्रकार से (वरिष्ठे बृहती) सब से अधिक वरणीय, बड़े २ दोनों स्त्री और पुरुष को (विमिन्वन्) विशेष रूप से ज्ञानवान् करता हुआ (पप्रथानेभिः) अति विस्तृत (एवैः) ज्ञानों वा अर्थज्ञापक वचनों से (रुवत्) उपदेश करे । (२) इसी प्रकार प्रजा वा राजा भी पृथिवी सूर्य के तुल्य समृद्धि-ऐश्वर्य और परस्पर की रुचि से युक्त हों । बलवान् राजा वा नेता उभय पक्षों को आज्ञापक शासनों से आदेश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्द:– १, २, त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः॥ ५ निचृद्गायत्री। ६ विराड् गायत्री। ७ गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    x

    भावार्थ

    जी माणसे पृथ्वीपासून सूर्यापर्यंत पदार्थांना जाणतात त्यांनी धनवान बनून सर्वांना सुखी करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The great heaven and earth, greatest here both, grow bright and beautiful with pure and purifying showers of light when the sun, radiating and all round pervading both the great and best regions of the universe, rises and roars like a bull in the heavens with wide expansive rays of its glorious radiation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the heaven and sky, are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! a learned person is like the sun who eradicates all evils and teaches and preaches with force. He knows righty the attributes of the vast and excellent sources of the energy-the fire, sun and earth, possessing and purifying the admirable extensive properties, leading to happiness. He become benevolent to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men who know the real nature of all things from earth to sun, become prosperous and he should make all happy.

    Foot Notes

    (विमिन्वन्) विशेषेण प्रक्षिपन् । = Particularly throwing away all evils. (एवैः) सुखप्रापकैः । = Attributes or qualities which lead to happiness. (अर्कैः) अर्चनीयैः । = Admirable, worthy of respect.

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