ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठो अध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं॑ वि॒शेवि॑शे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । इ॒ह । प्र॒थ॒मः । धा॒यि॒ । धा॒तृऽभिः॑ । होता॑ । यजि॑ष्ठः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । ईड्यः॑ । यम् । अप्न॑वानः । भृग॑वः । वि॒ऽरु॒रु॒चुः । वने॑षु । चि॒त्रम् । वि॒ऽभ्व॑म् । वि॒शेऽवि॑शे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः। यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। इह। प्रथमः। धायि। धातृऽभिः। होता। यजिष्ठः। अध्वरेषु। ईड्यः। यम्। अप्नवानः। भृगवः। विऽरुरुचुः। वनेषु। चित्रम्। विऽभ्वम्। विशेऽविशे॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सर्वगतस्याग्निशब्दार्थवाच्यव्यापकस्येश्वरस्य विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! इह धातृभिर्य्योऽयं प्रथमो होता यजिष्ठोऽध्वरेष्वीड्यो धायि विशेविशे यं चित्रं विभ्वमप्नवानो भृगवो वनेषु विरुरुचुस्तं परमात्मानं यूयं ध्यायत ॥१॥
पदार्थः
(अयम्) (इह) अस्मिन्संसारे (प्रथमः) आदिमः (धायि) धीयते (धातृभिः) धारकैः (होता) दाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु (ईड्यः) स्तोतुमर्हः (यम्) (अप्नवानः) पुत्रपौत्रादियुक्ताः (भृगवः) परिपक्वविज्ञानाः (विरुरुचुः) विशेषेण प्रकाशन्ते (वनेषु) वननीयेषु जङ्गलेषु (चित्रम्) अद्भुतम् (विभ्वम्) परमात्मानम् (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! अस्मिन् संसारे परमेश्वर एव युष्माभिर्ध्येयो ज्ञेयोऽस्ति यमुपास्य सांसारिकं पारमार्थिकं सुखं प्राप्स्यन्ति स एवेश्वरोऽत्र पूजनीयो मन्तव्यः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकादश ऋचावाले सप्तम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में सर्वगत अग्निशब्दार्थवाच्य व्यापक परमेश्वर के विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (इह) इस संसार में (धातृभिः) धारण करनेवालों से जो (अयम्) यह (प्रथमः) पहिला (होता) देने और (यजिष्ठः) अत्यन्त मेल करनेवाला (अध्वरेषु) नहीं हिंसा करने योग्य यज्ञों में (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (धायि) धारण किया गया जिसको (विशेविशे) प्रजा-प्रजा के लिये (यम्) जिस (चित्रम्) अद्भुत (विभ्वम्) व्यापक परमात्मा को (अप्नवानः) पुत्र और पौत्रादिकों से युक्त (भृगवः) परिपक्व विज्ञानवाले लोग (वनेषु) याचना करने योग्य जङ्गलों में (विरुरुचुः) विशेष करके प्रकाशित करते अर्थात् अपने चित्त में रमाते हैं, उस परमात्मा का आप लोग ध्यान करो ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! इस संसार में परमेश्वर ही का आप लोगों को ध्यान करना योग्य है और जिसकी उपासना करके सांसारिक और पारमार्थिक सुख को प्राप्त होओगे, वही ईश्वर इस संसार में पूजा करने योग्य जानना चाहिये ॥१॥
विषय
धाता-अप्नवान्-भृगु
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह, (इह) = इस मानव जीवन में (प्रथमः) = सर्वश्रेष्ठ (उत्तम) प्रभु (धातृभिः) = अपने अन्दर सोम का धारण करनेवालों से (धायि) = धारण किया जाता है। (सोम) = [वीर्य] का धारण करनेवाला पुरुष ही उस प्रभु का हृदय देश में दर्शन करनेवाला होता है। यह देखता है कि ये प्रभु ही होता इस सृष्टियज्ञ के होता हैं, वे ही सब कुछ देनेवाले हैं (हु दाने) । यजिष्ठ: वे ही संगतिकरण योग्य व समर्थनीय हैं, प्रभु के प्रति ही हमें अपना अर्पण कर देना चाहिए। (अध्वरेषु ईड्यः) = वे प्रभु ही हिंसा रहित कर्मों में स्तुति के योग्य हैं। सब अध्वर प्रभु कृपा से ही तो पूर्ण होते हैं। (२) प्रभु वे हैं (ये) = जिनको (अप्नवान:) = कर्मशील कर्मतन्तु का ताना ताननेवाले लोग (भृगव:) = [भ्रस्ज पाके] तपस्या की अग्नि में अपना परिपाक करनेवाले लोग (विरुरुचुः) = अपने हृदयों में दीप्त करते हैं। उस प्रभु को अपने हृदयों में दीप्त करते हैं, जो कि (वनेषु) = उपासकों में [वन संभक्तौ] (चित्रम्) = [चित्] ज्ञान को देनेवाले हैं तथा (विशे विशे) = प्राणिमात्र के लिये, संसार में प्रविष्ट प्रत्येक प्राणी के लिये (विभ्वम्) = व्याप्तिवाले हैं [pervading] अथवा ध्यान करनेवाले हैं [contemplating] । प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं, पर उपासक ही अन्तः स्थित प्रभु से प्रेरणा को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुप्राप्ति 'धाता, अनवान् व भृगुओं' को होती है, सोम [वीर्य] का धारण करनेवाले, क्रियाशील तपस्वी ही प्रभु को देखते हैं।
विषय
प्रभु की उपासना।
भावार्थ
जो यह (प्रथमः) सब से श्रेष्ठ, सब से आदि में वर्तमान, (होता) सब सुखों और ऐश्वर्यों का देने वाला, (यजिष्ठः) सबसे अधिक पूज्य, एवं सबसे अधिक मित्र, सत्संग योग्य (अध्वरेषु) समस्त यज्ञों में (ईढ्यः) स्तुति करने योग्य है । (अयम्) उसे (धातृभिः) यज्ञादि कर्मकर्त्ता और ध्यान धारण के करने हारे पुरुष (इह) यहां, इस जगत् में (धायि) सभी हृदय में धारण करते हैं । और (यम्) जिसको (अप्नवानः) उत्तम कर्म करने हारे वा उत्तम रूप, गुण, पुत्र पौत्रादि युक्त (भृगवः) तेजस्वी, पापनाशक पुरुष (चित्रं) अद्भुत (विभ्वं) विभु, महान् व्यापक परमेश्वर को (विशेविशे) प्रत्येक प्रजा के हित के लिये (वनेषु) जंगलों में वा सभी भोग्य ऐश्वर्यों में या तेजस्वी पदार्थों में (विरुरुचुः) विद्युत् अग्नि के समान प्रकट पाते और उसी के तेज का ध्यान करते और स्वयं भी (यम् अप्नवानः विरुरुचुः) जिसको प्राप्त होते हुए विविध प्रकार से शोभित होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! या जगात परमेश्वराचेच ध्यान करणे योग्य आहे व ज्याची उपासना करून सांसारिक व पारमार्थिक सुख प्राप्त करता येते तोच ईश्वर या संसारात पूजा करण्यायोग्य आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This Agni here is the first and foremost power felt, lighted, installed and glorified by the pioneers of knowledge and yajnic action. It is the first performer of the cosmic yajna of creation, most adorable, worshipped in yajnas and all other programmes of love and non violent development. The same wonderful and all embracing light and power, men of science and Divinity blest with descendants and disciples develop and glorify in the forests and every household for the benefit of every community.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Agni Omnipresent God is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should mediate upon that God alone, Who is the first and the foremost liberal donor, unifier and Prana, He is worthy in all non-violent and inviolable Yajnas (sacrifice) is held steadfast within the hearts by the upholders of noble virtues and rules of restraint etc. Men of mature wisdom blessed with their children and grandchildren, living in the forests shine for the welfare of all people, by meditating upon that Omnipresent and wonderful God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! in this world, it is God, Whom you should know and meditate upon. It is by adoring Him, that you will attain mundane and spiritual real hippiness. You must regard that God alone as Adorable.
Foot Notes
(अप्नवान:) पुत्रपौत्रादियुक्ताः । अप्नइति अपत्यनाम (NG 2,2) = Blessed with children and grandchildren. (भृगव:) परिपक्वविज्ञानाः । भुज्जति तपसा शरीरमिति भृगुः ऋषिः प्रतापी वा । = Endowed with nature wisdom. (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु । अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसा कर्मा तत्प्रतिषेध: ( NKT 1, 7 ) = In the non-violent sacrificial acts.
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