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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - धरुण आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्र वे॒धसे॑ क॒वये॒ वेद्या॑य॒ गिरं॑ भरे य॒शसे॑ पू॒र्व्याय॑। घृ॒तप्र॑सत्तो॒ असु॑रः सु॒शेवो॑ रा॒यो ध॒र्ता ध॒रुणो॒ वस्वो॑ अ॒ग्निः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वे॒धसे॑ । क॒वये॑ । वेद्या॑य । गिर॑म् । भ॒रे॒ । य॒शसे॑ । पू॒र्व्याय॑ । घृ॒तऽप्र॑सत्तः । असु॑रः । सु॒ऽशेवः॑ । रा॒यः । ध॒र्ता । ध॒रुणः॑ । वस्वः॑ । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वेधसे कवये वेद्याय गिरं भरे यशसे पूर्व्याय। घृतप्रसत्तो असुरः सुशेवो रायो धर्ता धरुणो वस्वो अग्निः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वेधसे। कवये। वेद्याय। गिरम्। भरे। यशसे। पूर्व्याय। घृतऽप्रसत्तः। असुरः। सुऽशेवः। रायः। धर्ता। धरुणः। वस्वः। अग्निः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वदग्निगुणविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथा मया घृतप्रसत्तोऽसुरः सुशेवो रायो धर्त्ता वस्वो धरुणोऽग्निर्ध्रियते तद्बोधाय कवये वेद्याय यशसे पूर्व्याय वेधसे गिरं प्र भरे तथा यूयमप्येनमेतदर्थं धरत ॥१॥

    पदार्थः

    (प्र) (वेधसे) मेधाविने (कवये) विपश्चिते (वेद्याय) वेदितुं योग्याय (गिरम्) वाचम् (भरे) धरामि (यशसे) प्रशंसिताय (पूर्व्याय) पूर्वेषु लब्धविद्याय (घृतप्रसत्तः) घृते प्रसत्तः (असुरः) प्राणेषु सुखदाता (सुशेवः) शोभनं शेवः सुखं यस्मात् (रायः) द्रव्यस्य (धर्त्ता) (धरुणः) धारकः (वस्वः) पृथिव्यादेः (अग्निः) पावकः ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे विद्वांसो ! याग्न्यादिविद्यासाधारणास्ति तां शुभलक्षणान् मेधाविनो विद्यार्थिनो ग्राहयत ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् और अग्निगुणविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे मुझ को (घृतप्रसत्तः) जल में प्रसक्त होने (असुरः) और प्राणों में सुख देनेवाला तथा (सुशेवः) सुन्दर सुख जिसमें ऐसे (रायः) धन का (धर्त्ता) धारण करने और (वस्वः) पृथिवी आदि का (धरुणः) धारण करनेवाला (अग्निः) अग्नि धारण किया जाता है, उसके बोध के लिये (कवये) विद्वान् और (वेद्याय) जानने योग्य के लिये और (यशसे) प्रशंसित (पूर्व्याय) प्राचीनों में प्राप्त विद्यावाले (वेधसे) बुद्धिमान् के लिये (गिरम्) वाणी को (प्र, भरे) धारण करता हूँ, वैसे आप लोग भी इसको इसलिये धारण करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जो अग्नि आदि पदार्थों की विद्या असाधारण अर्थात् विलक्षण है, उसको उत्तम लक्षणवाले बुद्धिमान् विद्यार्थियों के लिये ग्रहण कराइये ॥१॥

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    विषय

    उत्तम विद्यावान् श्रेष्ठ जन का अभिषेक

    भावार्थ

    भा० - मैं ( कवये ) क्रान्तदर्शी, दीर्घ ज्ञानवान् ( वेद्याय ) ज्ञान को धारण करने कराने में उत्तम ( पूर्व्याय) पूर्व विद्वानों, हितैषी, वा उनसे विद्या प्राप्त करने वाले, ( यशसे ) यशस्वी पुरुष की ( गिरं ) उपदेश वाणी को ( प्र भरे ) धारण करू अथवा उसकी स्तुति वा उसका वर्णन करूं । ( घृत-प्रसत्तः ) अग्नि जिस प्रकार घृत से तीव्र होकर खूब काष्ठों को भस्म करता है, उसी प्रकार विद्वान् और राजा भी घृत अर्थात् अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय आदि जलों वा अभिषेचन योग्य जलों से उत्तम पद पर प्रतिष्टित होता है, वह ( असुरः ) शत्रुओं को बलपूर्वक उखाड़ने वाला, ( सु-शेवः) उत्तम सेवनीय, उत्तम सुखदाता, (रायः धर्त्ता ) ऐश्वर्यो को धारण करने वाला, ( वस्वः ) अपने अधीन बसे भृत्य, शिष्यादि का ( धरुणः ) धारक, आश्रय और ( अग्निः ) अग्रणी और अग्निवत् प्रकाशक और तेजस्वी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुण आङ्गिरस ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥ २, ४ त्रिष्टुप् । ३ विराटं त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    रायो धर्ता, धरुणो वस्वः

    पदार्थ

    [१] (वेधसे) = सृष्टि के निर्माता, (कवये) = क्रान्तप्रज्ञ, सर्वतत्वज्ञ, (वेद्याय) = जानने योग्य, (यशसे) = यशस्वी, (पूर्व्याय) = सृष्टि से पूर्वभावी 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' अर्थात् कभी न बननेवाले, सदा से वर्तमान प्रभु के लिये (गिरम्) = स्तुतिवाणियों को (प्रभरे) = प्रकर्षेण धारण करता हूँ। उस प्रभु का सतत स्मरण करता हूँ। सर्वज्ञ होने से उन प्रभु की यह सृष्टि पूर्ण है। इसमें हमें प्रभु को जानने का प्रयत्न करना है। प्रभु के ज्ञान के होने पर ही यह भक्ति पूर्ण होती है। [२] ये प्रभु (घृतप्रसत्तः) = ज्ञानदीप्ति से निर्मल होते हैं। प्रभु 'देदीप्यमान ज्ञान' हैं सो पूर्ण निर्मल हैं, हम भी प्रभु को इस ज्ञानदीप्ति से ही देख सकेंगे। (सुशेवः) = वे प्रभु उत्तम कल्याण करनेवाले हैं। इस कल्याण को प्राप्त कराने के लिये ही (असुर:) = [असून् राति] हमारे में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। कल्याण को प्राप्त कराने के लिये ही (रायः धर्ता) = जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक धनों के वे धारण करनेवाले हैं। धनों के ही क्या, (वस्वः) = निवास के लिये आवश्यक सब वसुओं के (धरुण:) = धारण करनेवाले हैं। इस प्रकार (अग्नि:) = हमें जीवन-यात्रा में आगे और आगे ले-चल रहे हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ-वे सृष्टि निर्माता प्रभु ही वेद्य हैं। उन्हीं का हम स्तवन करें। वे ही सब धनों व निवास के लिये आवश्यक पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व अग्नी यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या असाधारण आहे. ती उत्तम लक्षणयुक्त बुद्धिमान विद्यार्थ्यांना ग्रहण करावयास लावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I bear and offer words of adoration in honour of Agni, omniscient presence, visionary creator, glorious and eternal lord worth knowing. Pleased with the offer of ghrta and sincere devotion in yajna, Agni is the breath of life, gracious, giver and commander of the wealth of existence, sustainer of the universe and ultimate haven of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons and fire are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! as I hold this purifying fire which is kindled with ghee, gives happiness to the Pranas, good delight, upholds the wealth, and sustains the earth and other things. So far getting its true knowledge; I utter words of praise to a scholar, who is worthy of being known, admirable, and having received education from experienced and enlightened persons are extremely wise. In the same manner, you should also support him for the above purpose.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! teach the extraordinary science of Agni (energy and electricity) to the intelligent and virtuous students.

    Translator's Notes

    The epithets like, वेधा, कविः etc. used in the mantra clearly denote that by Agni is here meant a wise and enlightened leader as Rishi Dayananda Sarasvati has justifiably interpreted. Both Wilson and Griffith translate the words as 'the Creator' and the 'far seeing 'far-sighted (Wilson) and Wise Ordainer (Griffith), but think erroneously that by Agni, is meant the fire. How strange and absurd it is ?

    Foot Notes

    (वैधसे) मेधाविने । वेधा इति मेधाविनाम (NG 3, 15) = For extremely wise. (कवये ) विपश्चिते । कविः इति । मेधाविनाम (NG 2, 15) = For scholar.

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